सम्माननीय पाठक !

नमस्ते !

{ नः मः अस्ते अर्थात [आपके बिना और आपके सामने भी ] मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। }

बात सारगर्भित भी है तो कुछ लम्बी-चौड़ी भी है अतःबात को संपादित करके कहने हेतू अभी 10 ब्लोग बनाए हैं.

"GISM" नामक इस ब्लॉग को केन्द्र में रखें और यहीं से पढ़ना शुरू करें।

देवर्षि नारद के तीन ब्लॉग में से

"सामाजिक पत्रकारिता" में जातीय व् साम्प्रदायिक संरचना को विस्तार से बताने पर लेखन केन्द्रित रहेगा।

"नैतिकता की राजनीति" में लेखन पौराणिक,प्राचीन तथ्यों एवं प्रकृति निर्मित संविधान,क़ुदरत के क़ानून,Nature Created Constitution,Laws of natural order of things पर केन्द्रित रहेगा।

"निर्दलीय राजनैतिक मंच" में लेखन वर्तमान की समसामयिक बातों पर केन्द्रित रहेगा।

इन तीनों ब्लॉग्स को आप "कला संकाय" [Faculty of arts] के विषयान्तर्गत पढ़ें।

"मुनि वेदव्यास" के चारों ब्लॉग को धर्म एवं विज्ञान के विषयान्तर्गत पढ़ें। धर्म को अपने आप के प्रति कर्तव्य एवं अधिकार के रूप में लें और विज्ञान को आयुर्विज्ञान के अंतर्गत लें।

इन चारों ब्लॉग्स को "दर्शन एवं विज्ञान संकाय" [Faculty of Philosophy and Sciences] विषयान्तर्गत पढ़ें।

"प्रणय विज्ञान" नामक "कार्तिकेय" के ब्लॉग को "वैवाहिक जीवन और नैसर्गिक आनंद" विषयान्तर्गत पढ़ें।

अंतिम चरण का ब्लॉग है "भव्य महा भारत निर्माण" ! इस ब्लॉग को "अर्थशास्त्र संकाय" [Faculty of Economics] विषयान्तर्गत पढ़ें। लेकिन चूँकि यह ब्लॉग "सांख्य और सांख्यिकी" [Principle Knowledge and Statistics] तक सीमित नहीं है बल्कि साँख्य का योग-प्रयोग-उपयोग [Experiment &-Applying to use] करना है अर्थात "व्यावहारिक धरातल [Practical Ground] पर नव महा भारत का निर्माण" करने हेतु पढ़ें।

इस तरह प्रथम चरण में हमें ज्ञान मार्ग से ध्यान मार्ग [Meditative Concentration via Knowledge path] से चलना है अतः सात्विक-बुद्धि,बोद्धिसत्व का उपयोग करके बुद्धि के देवता को काबू में करना है तब फिर फ़तह ही फ़तह है। फ़ारसी में कहा है 'हिम्मते मर्दां मददे ख़ुदा'। अतः प्रथम चरण में अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट करके,अपने आप में आत्मविश्वास बढ़ाने के कार्य से प्रारम्भ करें और पृथ्वी पर पुनः स्वर्ग बसाने के कार्य का श्री गणेश करें। अगले चरण स्वतः बढ़ते चले जायेंगे। बस नीयत होनी चाहिए नियति स्वतः लक्ष्य तक अवश करके धकेलती हुई पहुँचा देगी।

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य है जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

रविवार, 12 अगस्त 2012

16d.यह 'सनातन धर्म' का मामला है ! It is a matter of responsibility and the rights.


    हिंसा-अहिंसा, आस्था, श्रद्धा, संस्कार इत्यादि अनेक शब्द हैं जिनका विशेष वर्गों ने पेटेण्ट करा रखा है जबकि सच्चाई यह है कि अनेक विद्वान इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करते हैं फिर भी इन शब्दों का उपयोग यथा-अर्थ में नहीं किया जाता। इसी तरह संस्कृत भाषा की शब्दावली का एक शब्द है 'सनातन धर्म'।
     सनातन अर्थात् बिना लोप हुए,निरन्तरता लिये हुए चलने वाला धर्म। सनातन धर्म शब्द का शब्दार्थ है  non dis-continuous, बनी रहने वाली गुण-धर्मिता। वैज्ञानिक शब्दावली के लेटिन में इसको इकोलोजीकल  सिस्टम Ecological Cycle System और हिन्दी में पारिस्थितिकी-चक्र-सृष्टम कहा गया है। संस्कृत के अनेक धार्मिक-वैज्ञानिक शब्दों की तरह सनातन शब्द का भी कोई पर्यायवाची शब्द नहीं है। इसके अनेक पूरक शब्दों में पर्यावरण भी एक पूरक शब्द है जो इसका आंशिक अर्थ दर्शाता है।
     सनातन धर्म के संरक्षण के तीन तात्पर्य या तत्वार्थ हैं।

आध्यात्मिक तात्पर्य:- मानव चाहे कितना ही पतित और स्वार्थी हो जाये, आपस में लड़ने-झगड़ने लग जाये और युद्ध के माध्यम से सामूहिक आत्महत्या कर ले फिर भी वह बिना किसी सामाजिक ढ़ाँचें के रह नहीं सकता। मानसिक रूप से मानव इतना दुर्बल है कि वह आपसी सम्बन्धों के बिना नहीं रह सकता। जब ऐसा है तो मानव को चाहिये कि वह एक वर्गीकृत व्यवस्था पद्धति को अपनाये और परस्पर मान-सम्मान देते हुए जीवन का आनन्द ले। 
वर्तमान में यदि मानव ऐसा नहीं करता है और मनुष्य योनी में होते हुए भी श्वान योनी की तरह एक दूसरे पर गुर्राने,भोंकने,चिल्लाने का आचरण अपनाए हुए रहता है और आयुधों का निर्माण कर एक दूसरे से लड़कर मरता हैं तब भी युद्ध के समाप्त होने पर बचे हुए मानवों को अक्ल आयेगी तब वो प्रेम एवं भाईचारे से पुनः रहना शुरू कर देंगे। प्रेम एवं भाईचारा ही तो हमारा सनातन चरित्र है।
आधिदैविक तात्पर्य:- प्रकृति ने अर्थात् देवी शक्ति ने जिस पारिस्थितिकी[ईकोलोजी] को बनाया है उसके साथ सन्तुलन रख कर चौरासी लाख जीवयोनियों में बँटी प्रजा की प्रत्येक प्रजाति को अपनी वंशवृद्धि करने में सहयोग दे, उनका संरक्षण, संवर्धन करे अपनी भी वंशवृद्धि करे और सुन्दर से सुन्दर जीवन जीने का तरीका यानी विद्या अपनाये। जबकि आज हम दवाईयों के बल पर रिस-रिस कर जीने वाले, औसत आयु बढ़ने का भ्रम भले ही पाल लें l लेकिन इस सच्चाई को नकार नहीं सकते कि हम शक्तिहीन और वीर्यहीन [बलहीन] होते जा रहे हैं। 
आधिभौतिक तात्पर्य:- ईकोनोमिक्स को ईकोलोजी[फोरेस्ट ईकोलोजी एवं एग्रीकल्चरल ईकोलोजी] के माध्यम से पैदा होने वाले प्राकृतिक उत्पादन के आधार वाली अर्थव्यवस्था का रूप दे और भौतिक सुख साधनों के समान वितरण की ऐसी पद्धति अपनाये जिसमें एक दूसरे की आवश्यकता पूरी हो अर्थात् एक दूसरे की पूरक रहे ना कि परस्पर शोषक बनें। 
उपर्युक्त तीनों स्तरों पर सनातन धर्म की हानि तब होती है जब मानव सभ्यता मात्र सभ्यता रह जाती है और मूल संस्कृति नष्ट हो जाती है। जैसे कि पान के पत्ते का सेवन करने के लिए मसालों का उपयोग किया था लेकिन पान गायब हो गया मसाले रह गए और वे भी अपयोग बन कर, इसी तरह संस्कृति का अर्थ हो गया भूतकाल के भूत को अपनी मानसिकता पर हावी कर लेना, ऐसा इसलिए होता है क्यों कि मानव कामार्थ Commercial ढ़ाँचे को स्थापित कर लेता है।
यह उत्थान-पतन[उठा-पटक] क्या है, क्यों होता है मूल ढाँचा क्या था जो सनातन है और पुनः पुनः स्थापित होता है! इत्यादि अनेक प्रश्नों  के उत्तर खोजने के प्रयास में मैंने जैसा समझा है वह संक्षिप्ततम शब्दों में तथा अनेक आयामों से बताने का प्रयास कर रहा हूँ।
क्रुरान में सबसे ऊपर लिखा है ‘‘इस किताब में शंका करने की कोई गुँजाईश नहीं है‘‘।
इसी तरह बुद्ध ने अपने अनुयाईयों से कहा था कि ‘‘जितना मैंने जाना है वह सत्य है। इसको आस्था से ग्रहण करो। इसके बाद भी अनेक सत्य हैं उन्हें खोजो‘‘।
जबकि गीता में कहा ‘‘हे अर्जुन! मैने तुम्हें अशेषेण बता दिया है। अब तुम्हें क्या करना है, क्या नहीं करना है, इसका निर्णय तुम स्वविवेक से करो‘‘।
   अशेषेण के दो अर्थ होते हैं। 1. कुछ भी शेष नहीं छोड़ा सब कुछ बता दिया। लेकिन इस छोटेसे आख्यान में सब कुछ बताने का अर्थ है संक्षिप्त में,सारगर्भित,शब्दकोशीय भाषा में बताना। 2. अतः दूसरा अर्थ है Endless. यानी  कितनी ही विस्तृत व्याख्या करते जाओ कभी समाप्त नहीं होगी अतः अपनी बात को प्रामाणिकता देने के लिए मैं गीता को केन्द्रीय भूमिका में रख रहा हूँ।
मैंने गीता पर व्याख्या लिखी है। अन्य अनेक स्थापित विद्वानों ने भी लिखी है। लेकिन बाकी सभी व्याख्याऐं भाषा विशेषज्ञों ने लिखी हैं। उन्हीं के शब्दों में ‘‘गीता में जीव-आत्मा और परमात्मा के बीच का सम्बन्ध बताया गया है‘‘।
अब यहाँ एक तथ्य सीधा-साधा एवं स्पष्ट है कि जिसने जीव-विज्ञान को गहराई से नहीं जाना वह जीव-आत्मा के विषय को तथ्यात्मक और तर्क संगत[लोजीकली,बायोलोजीकली] कैसे समझ सकता है।
इसी तरह गीता के बारे में अनेक विद्वान कहते हैं कि गीता कर्म का सन्देश देती है लेकिन जिस व्यक्ति ने गीता की व्याख्या काम एवं अर्थ की गणित से की है वह कर्म के मूलार्थ को कैसे समझ सकता है !
गीता एक राजा,एक रक्षक,एक क्षत्रिय,एक गृहस्थ को कही गई है। जिसने गृहस्थ जीवन त्याग दिया और भिक्षा के अन्न् पर ऐश्वर्य भोग रहा है वह गीता के कर्म विषय की व्याख्या कैसे लिख सकता है !
गीता हो या अन्य शास्त्र, इनमें जो भी बातें कही गई हैं वे सभी बातें मानवीय स्तर की हैं अतः इन्हें साम्प्रदायिक एवं राष्ट्रीय मनोभावना के सीमित दायरे में बाँध कर कैसे समझा जा सकता है !
गीता में जैसे अशेषेण लिखा है वैसे ही गीता सदैव प्रासंगिक है। इसे पाँच हज़ार वर्ष पूर्व हुई एक ऐतिहासिक घटना के परिणामस्वरूप कही जाने के रूप में समझ कर वर्तमान काल-स्थान-परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में इसकी प्रासंगिकता को कैसे समझा जा सकता है !
   अभी-अभी रूस की सरकार ने गीता पर बेन लगाया तो आपने इसमें अपमान महसूस किया। यदि इस अपमान से बचना है तो इस एक मात्र विश्वकोश को भारत की धरोहर नहीं मानकर वैश्विक-शिक्षा-विभाग की धरोहर माननी चाहिए और इस तरह का अपमान भविष्य में नहीं हो इसके लिए भारतीयों को आगे आकर 'यथार्थ गीता' "gita as it is.' पढ़ना चाहिए तब आपको पता चलेगा कि इसमें कितनी कट्टरता, कितना पूर्वाग्रह,कितनी अतिवादिता भरी है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि इसमें गीता को वर्तमान के लिए अप्रासंगिक बता दिया गया है। मैं भी कहता हूँ इस तरह के अनुवाद का भारतीय मनीषी वर्ग स्वं आगे आकर विरोध करें।
गीता एक अशेषेण आख्यान है अतः इसे निष्पक्ष एवं समग्र दृष्टिकोण से समझना सिद्धान्ततः सत्य हो सकता है लेकिन गीता में यह भी लिखा है कि -
‘‘हे अर्जुन सांख्य[थ्योरी, प्रिसिपल, सूत्र, समीकरण, आंकड़ों] का तब तक कोई महत्व नहीं है जब तक सांख्य का योग[प्रयोग,उपयोग, व्यवहार में लाना,आचरण में ग्रहण करना] नहीं हो। बिना योग के सांख्य का जानकार उल्टा दुःखी हो जाता है जबकि योग[प्रेक्टिकल अभ्यास] में लगा हुआ एक योगी[योग्य व्यक्ति] स्वतः सांख्य का जानकार हो जाता है।
अब जब मैंने गीता के सांख्य को जाना है तो उसका उपयोग करना मेरा कर्तव्य भी और अधिकार भी हो जाता है। इसी कर्तव्य एवं अधिकार से बनने वाले धर्म की पालना करने हेतु मैं तब से लगा हूँ जब से मैने निर्णय किया।
इस सन्दर्भ में मैंने दो कार्य करने का प्रयास किया। एक तो यह कि सनातन धर्म के योगशास्त्र गीता की व्याख्या लिखी है जिसके साथ एक दुखान्तिका घट गई। जो पूर्वाग्रहों से ग्रसित लोग हैं उन्हें मेरी भाषा शैली पसन्द नहीं आई और जिस प्रबुद्धवर्ग के लिए यह पुस्तक लिखी गई वह वर्ग गीता को हाथ ही नहीं लगाता है। एक तो कारण यह है कि यह प्रबुद्ध वर्ग धर्म नाम से ही ऊकचूक हो जाता है और दूसरा कारण है वह हिन्दी में है। उनकी दृष्टि में हिन्दी में स्तर की चीज नहीं लिखी जा सकती।
अब इस ब्लॉग श्रंखला के माध्यम से मैं सांख्य के रूप में तो गीता की पुनः नये तरीके से व्याख्या करूँगा तथा योग के रूप में मैं अपने जीवन काल में पाँच किलोमीटर लम्बा पाँच किलोमीटर चौड़ा अर्थात् पच्चीस वर्ग किलोमीटर का एक गांव बसाना चाहता हूँ ताकि प्रत्यक्ष बता सकूं कि सनातन धर्म का स्थूल रूप क्या है! सर्वकल्याणकारी सामाजिक-आर्थिक ढाँचा कैसा होता है! सार्व-भौतिक उद्धेश्य की पूर्ति से मेरा तात्पर्य  है कि स्वर्ग कैसा होता है यह भूमि पर उतार कर बताना।
उपर्युक्त तीन धार्मिक उद्देश्यों में सभी धार्मिक उद्देश्य यानी शैक्षणिक उद्देश्य आ जायेंगे।

16c. धर्म एवं विज्ञान की तर्क संगत एवं तथ्यपरक जानकारी देना ! Religion sense and science information to be logical and fact oriented !


     धर्म एवं विज्ञान दोनों जीवन रूपी सिक्के के दो पहलू हैं और एक दूसरे के पूरक हैं। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए आवश्यक है कि हम दोनों का अलग-अलग अध्ययन नहीं करके एक साथ अध्ययन करें साथ ही आप देखेंगे कि किस तरह संस्कृत शब्दावली के एक ही शब्द से अन्य भाषाओं में दो अलग-अलग शब्द बने हैं जो उच्चारण दोष या कहें अपभ्रंश उच्चारण के परिणामस्वरूप बने हैं।
    भारतीय सभ्यता-संस्कृति की जिस ऊंचाई पर आप गर्व करते हैं; वह अभी तक एक काल्पनिक भ्रम है। जबकि इस ब्लॉग श्रृखला का यह उद्देश्य यह भी है कि आप यह प्रमाणिक रूप से बता सकेंगे कि भारत विश्वगुरू क्यों और कैसे था !
    इस विषय पर दो वर्ग बन गये हैं। एक वर्ग है जो सत्य जाने बिना ही राग-अनुराग से ग्रसित होकर एक बेसुरा राग अलापता है कि हमारी संस्कृति सर्वोच्च है,हमारी संस्कृति सर्वोच्च है,हमारी संस्कृति सर्वोच्च है। इस कारण दूसरा एक वर्ग द्वैष भाव रखने वाला पैदा हो जाता है वह भी सच्चाई जानने का इच्छुक हुए बिना ही पहले वर्ग को मूर्ख,साम्प्रदायिक,अतिवादी,कट्टरवादी इत्यादि कहता है। अब सच्चाई यह है कि ऐसा करने वाला दूसरा वर्ग सही कहता है क्योंकि जो पहला वर्ग अपनी सांस्कृतिक अवधारणाओं को जाने बिना आंखे बन्द किये हुऐ सिर्फ एक ही राग अलापता है उसको प्रतिकात्मक वाक्य में कहें तो वह कहता है ‘‘झण्डा ऊँचा रहे हमारा‘‘।
    इस ब्लॉग श्रृंखला के माध्यम से यह बताने या जताने का प्रयास किया जायेगा कि भारतीय संस्कृति क्यों सर्वोच्च है और थी !
    वर्तमान में स्थिति यह है कि एक भारतीय पुराने भवनों, भूतकाल की घटनाओं, उलजुलूल मान्यताओं से बने विभ्रम को संस्कृति समझ बैठा है परिणामस्वरूप संस्कृति यथार्थ से जुड़ा विषय नहीं रह कर भूत-प्रेतों का विषय बन गया है।
     मैं प्रबुद्ध वर्ग से अपेक्षा करता हूँ कि मेरी बात को यथा-अर्थ समझें; Otherwise meaning, अन्यथा अर्थ से न लें और भारत में पुनः सांस्कृतिक समाज व्यवस्था को स्थापित करने में सहभागी बनें, सहयोग दें, नैतिक समर्थन दें !

16b. सभी भाषाओं का प्रचार-प्रसार एक साथ ! Dissemination of all languages ​​at once !

संस्कृत भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, हिंदी भी। चुंकि संस्कृत भाषा संस्कारित भाषा है अतः 
इस में धर्म एवं विज्ञान का मूल साहित्य रचा हुआ है। धर्म एवं विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में शब्दों का अर्थ सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। संस्कृत के शब्दों का अर्थ देवनागरी लिपि तथा हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओँ के माध्यम से जितना स्पष्ट होता है, अन्य विदेशी भाषाओं में सम्भव नहीं है। अतः इस ब्लॉग श्रृंखला का एक उदेश्य अन्य भाषाओं के साथ साथ हिन्दी का प्रचार-प्रसार स्वतः पूरा होता है।
    हिन्दी भाषा एवं देवनगरी लिपि के माध्यम से बताने की मेरी मजबूरी के कारण देवनागरी लिपी एवं हिन्दी भाषा में मैं गीता की व्याख्या कर रहा हूँ अतः स्वतः ही संस्कृतजन्य हिन्दी भाषा का प्रचार होगा।
अतः जो सज्जन हिन्दी के प्रचार-प्रसार के इच्छुक हैं, उनसे अपेक्षा करता हूँ कि वे इस ब्लॉग श्रृंखला  के माध्यम से इस आन्दोलन के प्रचार-प्रसार में सहयोग देंगे। विशेषकर हिन्दी भाषी क्षेत्र के किशोरों एवं नवयुवाओं को पढ़ने के लिए प्रेरित करें।
इसके साथ मैं यह भी चाहता हूँ कि अन्य भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में तथा अंग्रेजी एवं अन्य राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं में भी इसका अनुवाद हो ताकि अन्तर्राज्यीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व की सबसे अधिक संस्कारित तथा प्रथम धार्मिक-वैज्ञानिक भाषा संस्कृत के शब्दों का प्रचार-प्रसार हो। इसका तरीका है अन्य भाषाओं में जब अनुवाद हो तब साथ-साथ में धार्मिक-वैज्ञानिक शब्दावली के मूल शब्द जो देवनगरी लिपि में, संस्कृत के हैं उन्हें उसी रूप में लिखा जाये।
कोई भी सज्जन यदि किसी क्षेत्रीय भाषा एवं लिपी में अनुवाद करने का इच्छुक हो और ऐसा श्रम कर सकता हो तो सम्पर्क करें। ब्लॉग्स में रूपांतरण की सुविधा है लेकिन अन्वय-समन्वय करना आवश्यक होता है। जो विद्यार्थी विद्या का उपयोग समाज हित में करेगा तभी समाज उसे अपना निर्दलीय जन प्रतिनिधि चुनेगा अथवा आप यदि स्वयं सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहें तो आपके समर्थन को वे विशेष दर्जा देंगे।
मेरा मानना है आज नहीं तो कल वैज्ञानिक भाषा के रूप में विश्व में लेटिन के स्थान पर संस्कृत शब्दावली अपनाना आवश्यक हो जायेगा। बस प्रारम्भिक अवस्था में हिन्दी के प्रति श्रद्धा रखने वाले, हिन्दी के प्रति राग-अनुराग रखे बिना और अन्य भाषाओं से द्वेष रखे बिना,सभी भाषाओं में अनुवाद करें,विशेषकर   भारतीय भाषाओं में अनुवाद अवश्य करें और इस आन्दोलन के सहयोगी बनें।

16a.. सार्वभौमिक उदेश्य ! Terrestrial Universal Objectives.


     यह लेखन एक ऐसे उद्धेश्य को लेकर किया जा रहा है जिसे सार्वभौमिक उद्देश्य कहा जा सकता है। सार्व-भौमिक का अर्थ है, इस भूमि पर भौतिक देह के जितने भी उद्धेश्य हो सकते हैं उन सभी उद्देश्यों को एक सूत्र में जोड़ कर सभी समस्याओं का निदान एवं समाधान करना। एक ऐसी अर्थशास्त्रीय अर्थव्यवस्था को स्थापित करना,जिसमें कोई भी व्यक्ति अभावग्रस्त नहीं रहे। व्यक्ति तो क्या; पूरा व्यक्त जगत[जीव-जगत] अभावमुक्त होकर भाव में भावित रहे, न कि अभावों में रहे,जैसा कि वर्तमान में हो रहा है।

     अब यदि, इन उद्देश्यों की सूची बनाई जाये तो सभी उद्देश्यों को तो सूचिबद्ध नहीं किया जा सकता अतः इन्हें तीन वर्गों में वर्गीकृत करके संकेत दे रहा हूँ कि सर्व कल्याणकारी व्यवस्था बनाने यानी सार्वभौमिक उद्देश्य पूर्ति करने हेतू एक मानक व्यवस्था पद्धति बताने और व्यावहारिक एवं प्रेक्टिकल रूप से एक मॉडल बनाकर बनाने के लिये; मैने अपने आप का सृजन किया है|

 उसको स्पष्ट करने के लिए इन सभी उदेश्यों के तीन शीर्षक दे रहा हूँ यानी वर्गीकृत कर रहा हूँ।

(1) सभी भाषाओं का प्रचार-प्रसार एक साथ।
(2) धर्म एवं विज्ञान की तर्क संगत एवं तथ्य परक जानकारी देना।
(3) सनातन धर्म का संरक्षण।

बुधवार, 8 अगस्त 2012

16. सूत्रधार आत्म-कथन ! Narrator's self-narration.


      आत्म-कथन:- जो विचार अपने आप ही अपने आप में पैदा होते हैं उन्हें ब्रह्म का आत्मभाव कहा गया है| यह निजी[आन्तरिक] व्यक्तित्व की रचना प्रक्रिया होती है। इसके लिए ‘‘सृजाम्-अहम्‘‘ शब्द का उपयोग होता है। चुंकि ये विचार होते हैं जो काल से अतीत[सर्वकालिक] होते हैं। अमरता दिलाने वाले ये भाव,उस ब्रह्म से सम्बन्ध रखते हैं,जो परम्ब्रह्म सर्वत्र और सर्वकालिक है तथा सबके अन्दर-बाहर एक ही है फिर भी सभी में विषिष्ट दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक का आत्म-भाव अतुलनीय[यूनीक] दिखाई देता है

     जीवनी :- जीवन काल में बँधी स्वभाव[स्व के भाव] की वह प्रकृति जो स्वभाव से स्वभाव के परस्पर टकराने से पैदा होती है और जो प्रतिस्पर्धा में धकेलती है। यह प्रकृति दो भागों के परस्पर योग से बनती है और फिर अनेक वर्गो में आगे से आगे वर्गीकृत होती है। 

   1. शरीर का वंश, जो जीन[आनुवांशिक,वंशानुगत गुण सूत्रों] से बना होता है; जो कि व्यक्ति की शारीरिक कार्यक्षमता का स्तर बनाता है। अतः जीवनी में पहला परिचय होता है कि आप किस क्षेत्र में किस जाति एवं परिवार में पैदा हुए।

   2. देही,जो कि  स्वयं के शरीर में स्व का भाव[स्वभाव,अध्यात्म का स्तर] पैदा करने वाली प्रवृति है जो कि व्यक्ति में श्रद्धा[मानसिक सामर्थ्य] पैदा करती है। यह मानस, व्यक्ति के आत्म से जुड़ा हुआ होता है। अतः इसे अधि-आत्म[अध्यात्म] कहा गया है। यही अध्यात्म/स्वभाव/मानसिकता इत्यादि, व्यक्ति को शिक्षा एवं दीक्षा के वर्गीकृत विषयों में बाँधता है और व्यक्ति को प्रतिस्पर्धा में धकेलता है।   

   इस तरह जीवनी में दूसरा परिचय होता है कि अभी आप किस जाति का Job  कर रहे हो और उस प्रक्रिया में आपने किस-किस प्रतिस्पर्धा को कब-कब जीता और अब आप कहां पर प्रतिष्ठित हैं। शरीर और देही दोनों के योग को देह कहा गया है। इस देह के जीवनकाल का वह घटनाक्रम जो काल खण्डों में बँटा होता है, उसे जीवनी कहा गया है।

क्रमशः ....लेखन का सार्वभौमिक उदेश्य !

शनिवार, 4 अगस्त 2012

15. Sons of my mind. मेरे मानस पुत्र !

       प्रत्येक व्यक्ति में दो प्रकार के व्यक्तित्व होते हैं।
       1. साकार 2. निराकार
साकार व्यक्तित्व है शारीरिक रूप, रंग, लम्बाई, मोटाई, नैन-नक्श, वज़न, नर-मादा इत्यादि मापदण्ड। ये सभी आकार सहित हैं अतः स-आकार[साकार] व्यक्तित्व है।
       निराकार व्यक्तित्व वह व्यक्तित्व है जो आपकी मानसिकता को व्यक्त करने वाला व्यक्तित्व है, आन्तरिक व्यक्तित्व है।
       चुंकि दोनों ही व्यक्तित्व हैं अतः ये व्यक्त होते हैं।
       साकार व्यक्तित्व शरीर का भौतिक स्वरूप है, जिसे देह कहा जाता है।यह पञ्च महाभूतों के संयोग से बना है। जिनमें तीन तो वे हैं जो पदार्थ की तीन अवस्थाऐं हैं।
     1. पृथ्वी               (ठोस)                     (भार)                   नापने की  ईकाई (ग्राम)
     2.जल                  (द्रव)                      (आयतन)             नापने की ईकाई (लीटर)
     3. वायु                 (गैस)                     (दाब)                    नापने की ईकाई (आयतन + भार )
     4. अग्नि      (स्वतन्त्र इलेक्ट्रोन)      (तापक्रम)                नापने की ईकाई (सेण्टीग्रेड) ।
     5. आकाश         (स्थान-क्षेत्र)               (दूरी)                    नापने की इकाई (मीटर)
      (चौथा वह परमाणु से मुक्त स्वतन्त्र इलेक्ट्रोन और फ़ोटोन है जिसे हम ऊष्मा प्रकाश या ऊर्जा कहते हैं,उसी को अग्नि कहा गया है।)
     (पाँचवां यह विशाल क्षेत्र या स्थान है जो दूरी के रूप में व्यक्त होता है जिसे आकाश कहा गया है।)
      पाँच भौतिक आधारों से बना व्यक्तित्व आपकी देह के आकार के रूप में व्यक्त होता है जबकि सोच आपका निराकार व्यक्तित्व है जो आपके आचरण से व्यक्त होता है। यह आचरण तीन रूपो का मिला-जुला रूप है जिन्हें कहा गया  है:-
      1.मन
      2.बुद्धि
      3.अहंकार
      आपका आन्तरिक निराकार व्यक्तित्व तभी व्यक्त होता है जब आप अपने मन-बुद्धि-अहंकार को व्यक्त करते हैं।
       मेरे बाबा[जो मेरे दादा थे], मेरे गुरू, शिक्षक,संरक्षक और सखा भी थे। उनके मुँह से एक वाक्य अक्सर सुनता था।
      मूर्ख और विद्वान के सींग-पूंछ नहीं होते कि उन्हें उनके आकार को देख कर पहचान सको कि यह मूर्ख है और यह विद्वान है। इसका पता तो तब चलता है जब वे कोई काम करते हैं या बोलते हैं।
          मन-बुद्धि-अंहकार के संयोग से पाँच तरह के मानसिक या आन्तरिक व्यक्तित्व उभर कर आते हैं। अतः हम यह भी कह सकते हैं कि मानव पाँच वर्गो में वर्गीकृत होता है।
     (1) साधारण वर्ग:- इसे जनरल केटेगरी, आम आदमी, जन साधारण कहा जाता है। जिन्हें संस्कृत में साधु कहा गया है जिसका अर्थ है सीधा-सादा यानी आमजन, साधारण शासित वर्ग। इस वर्ग में से तीन वर्ग उभर कर आते हैं जो इस साधु वर्ग को संचालित करने की सत्ता अपने हाथ में लेना चाहते हैं। ये तीन सत्ताऐं या शासक वर्ग हैं।
     (2) बौद्धिक-सत्तावर्ग।
     (3) राजकीय सत्ता वर्ग।
     (4) आर्थिक सत्ता वर्ग।
     ये तीनों सत्ताऐं प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को साधारण से ऊपर उठकर असाधारण बनना पड़ता है या विशिष्ट बनना पड़ता है।
    इन चारों के अलावा एक वर्ग और होता है जो वर्ग में वर्गीकृत तो होता है लेकिन समूह में नहीं रहता, अकेला रहना पसन्द करता है। अतः उस वर्ग का प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को किसी वर्ग-विशेष में वर्गीकृत कराना पसन्द नहीं करता। ‘एकला चलो‘ की नीति अपनाता है। लेकिन फिर भी उसके वर्ग का नाम है।
     (5) मनीषी वर्ग।
मनीषी वर्ग, साधारण नहीं होते हुए भी सत्ता से परहेज करता है।
      पहला वर्ग शासित वर्ग है।
दूसरा, तीसरा, चौथा वर्ग शासक वर्ग है।
पाँचवाँ मनीषी वर्ग आत्म-अनुशासित वर्ग होता है।
भारत-भूमि इस पाँचवें वर्ग को उत्पन्न करने के लिये उपजाऊ भूमि है,यानी भारत में यह वर्ग बहुसंख्यक है। व्यक्तिगत स्तर पर जितना अनुग्रह हो सके करता है। लेकिन विडम्बना यह है कि इस वर्ग की प्रकृति ही ऐसी है कि विषमता पैदा होते ही यह अपने आप को रिज़र्व कर लेता है, विषमता में उलझता नहीं।
       भारतीय समाज विश्व का सबसे पुराना सभ्य सुसंस्कृत समाज रहा है। भारत के वर्तमान इतिहास के विगत 2700 वर्ष का अर्थात् बुद्ध एवं महावीर के काल से वर्तमान तक के काल खण्ड का अवलोकन करें तो यह तीसरी बार हो रहा है कि मनीषी वर्ग हाशिये पर आ गया और वित्तेश वर्ग अन्य चारों वर्गों पर हावी हो गया है। अतः मानव सभ्यता के पुराने न मापे जाने वाले इतिहास में तो पता नहीं कितनी बार ऐसा हुआ होगा कि मनीषी वर्ग हाशिये पर आया होगा।
        भारत की आज़ादी के एक दशक बाद ही बहुत तेज़ी से मनीषी नामक मानसिक प्रजाति लुप्त होने लगी। आज यह स्थिति है कि यदि इसका सम्बन्ध शरीर विज्ञान के जेनेटिक विज्ञान से होता तो यह भी कहा जा सकता था कि यह प्रजाति बाघ की तरह विलुप्ति के कगार पर है। लेकिन चुंकि मनीषी एक मानसिक प्रजाति है अतः मानसिकता में परिवर्तन के साथ ही प्रजाति में परिवर्तन हो जाता है। अब यदि इस विलुप्त होती जा रही मानसिक प्रजाति के नवयुवा वर्ग का विकास हो, तत्पश्चात् वे नेतृत्व के लिये आगे आयें, तब तो मेरे लेखन का परिचय का अर्थ (लाभ) है वर्ना .........।
      अभी इन असाधारण प्रतिभाओं वाले विशिष्ट लोगों के सामने मुझे अपना परिचय देते हुए और मुझे अपना थोबड़ा दिखाने में भी शर्म आती है। सोचता हूँ कहीं ऐसा नहीं हो कि मेरी परियोजना Project, उद्धेश्य Object विषय Subject और अवधारणा Concept  नकार दिया जाये और मैं अपमानित महसूस करूँ। इससे तो अच्छा है प्रतिक्रिया नहीं होने पर ब्लोग्स  चुपचाप बन्द कर दूँ।
     मैं यदि अपना परिचय दूँ तो सबसे पहले मुझे मेरी शिक्षा-दीक्षा के बारे में पूछा जायेगा। मैं विज्ञान की परम और परः अर्थात् सूक्षमतम से सम्पूर्ण तक की स्थिति को स्पष्ट करूँगा तो स्थापित वैज्ञानिक और विद्वान वर्ग मुझ से मेरी शिक्षा के बारे में नहीं, साक्षरता और डिग्री के बारे में पूछेगा मैं तो मान्यता प्राप्त लिट्रेट भी नहीं हूँ और मेरे पास दिखाने के लिए या बताने के लिए कोई ऐसी डिग्री भी नहीं है जो मुझे आजकल की इतनी सारी भारी भरकम डिग्रियों वाले जमाने में प्रतिष्ठित कर सके तब मैं उन्हें क्या जवाब दूँगा !
    इसी तरह जब मैं धर्म, देवी-देवता,मान्यताऐं,प्रथायें,रीति-रिवाज़ की परम्पराओं के बारे में कुछ बताऊँगा तो स्थापित धार्मिक और ज्ञानी वर्ग पूछेगा कि ‘‘तूने दीक्षा कहाँ से ली‘‘! तब मैं उन्हें क्या जबाव दूँगा !
मेरी समस्या यह है कि न तो मैं विशेष पढ़ा लिखा हूँ अर्थात् बड़ी डिग्री, पद, प्रतिष्ठा कुछ भी तो नहीं है तो मैं क्या बताऊँ ? मैं कहीं भी तो विशेष वर्गीकृत समाज में प्रतिष्ठित नहीं हूँ। न ही मेरी कोई राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, आर्थिक, बौद्धिक इत्यादि वर्ग में प्रतिष्ठा है और न ही मैं किसी बड़े पद पर काम कर रहा हू या कर चुका हूँ कि मैं अपना परिचय दूँ।
   सिर्फ फ़ोटो छपवाकर और नाम बता देने से क्या लाभ हो जायेगा ? हाँ  हानि अवश्य हो सकती है कि आप यह सोचने लग जायें कि ‘‘जिस आदमी की ख़ुद की कोई हैसियत नहीं है वह पूरे भारत और प्रत्येक भारतीय की हैसियत बढ़ाने के हेतु योग्य कैसे हो सकता है ?‘‘ क्योंकि हैसियत नापने का आपका पैमाना तो आखिर डिग्री, पैसा और प्रोपर्टी तथा पद इत्यादि हैं। अब जब मेरे  पास इन में से कुछ भी नहीं है तो फिर परिचय देने का औचित्य ? फिर भी मैं अपना परिचय स्थान-स्थान पर दे रहा हूँ ताकि कहीं ऐसा नहीं हो कि आप मुझे फर्जी न समझ लें।
    अभी मेरे उस परिचय पर मत जाइये जो साकार देह का प्रतिष्ठित व्यक्तित्व होता है।  फ़िलहाल आप मेरे मन-बुद्धि-अहंकार वाले आन्तरिक एवं निराकार व्यक्तित्व को समझने का प्रयास करें और मानव के अपने जीवन की सार्थकता क्या है, इस प्रश्न पर चिन्तन करें ! अपने आप के प्रति; तत्पश्चात् राष्ट्र के प्रति; तत्पश्चात् सर्वोच्च ऊंचाई पर जाकर ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘‘ के प्रति क्या करना है; इस विषय पर आयें !
    मेरे परिचय का औचित्य इसलिए भी नहीं है कि मैं किसी विषय का विशेषज्ञ भले ही नहीं हूँ लेकिन जगत का ऐसा कोई भी विषय शेष नहीं बचा है जिस विषय के परम्-अर्थ को मैं नहीं जानता और न ही मेरी इस परियोजना में ऐसी कोई मानवीय और अमानवीय समस्या है जिसका निदान और समाधान नहीं है। अतः मेरा आप सभी [जो इन  ब्लोग्स  के माध्यम से मेरे सम्पर्क में आ रहे हैं]  से कहना है कि सर्वप्रथम इस सोच को इसी दृष्टिकोण को, इसी  नजरिये से प्रचारित प्रसारत करें। मैं भी यहीं हूँ, आप भी यहीं हैं। परिचय तो बाद में भी हो जायेगा। पहले आप मेरे उद्धेश्य  को रेखांकित तो करें।
     मैं अपनी शक्ल-सूरत नहीं दिखाने के अनेक कारण बना सकता हूँ जैसे कि इस हास्य-व्यंग्य में हैं। इसे आपने सुन रखा होगा।
    मेहमान - मेरे लिए पैग मत बनाना ।
    मेज़बान - कारण ?
    मेहमान - कारण यह है कि पहली बात तो मैंने शराब छोड़ दी है, दूसरा कारण है : पत्नी ने मना कर दिया है । तीसरा कारण है कि माँ ने सौगन्ध दिला दी, चौथा कारण है आज अमावस्या है इस दिन हम लोग शराब नहीं पीते, पांचवाँ कारण है कि अभी मेरे पीने का समय नहीं हुआ है तथा अन्तिम और निर्णायक कारण यह है कि अभी-अभी मैं चार पैग लेकर आया हूँ अतः बिल्कुल नहीं चलेगी।
   इसी तरह अपना परिचय देते हुए भी न देने के मैने कुछ कारण बताये, कुछ कारण और भी हैं लेकिन अन्तिम और निर्णायक कारण यह है कि मेरे ब्रह्म (ब्रेन) नामक गर्भ से कुछ चरित्रों का जन्म हुआ है, मैं अपने इन मानसपुत्रों से आपको मिलाता हूँ। यह अपना परिचय खुद देंगे। तो इनसे मिलें...
देवर्षि नारद से आप मिलेंगे 'सामाजिक पत्रकारिता', 'नैतिक राज बनाम राजनीति' तथा 'निर्दलीय राजनैतिक मंच'  नामक तीन ब्लॉग्स में।
मुनि वेदव्यास से आप मिलेंगे 'विज्ञान बनाम धर्म','अहम् ब्रह्मास्मि', 'कृष्ण वन्दे जगत गुरुं' ,'शिवोहम' नामक चार ब्लॉग्स में।

14. "जीतने वालों की मैं नीति हूँ" ! "I Policy, who will win!"




गीता का भगवान कहता हैः  "जीतने वालों की  मैं नीति हूँ"
    आप एक मतदाता के रूप में अपने आप को पहचानें और अपने मतदाता-धर्म की पालना करके अपना प्रतिनिधि खुद चुनें। अपने क्षेत्र का स्थाई निवासी और पार्टी-पोलिटिक्स से दूर रहने वाला निर्दलीय।
   इसके लिए ना तो कोई संस्था बनायें और ना ही किसी संगठन से जुड़ें और ना ही किसी संगठन को जोड़ें। दल-दल से मुक्त पवित्र मानसिकता वाले एवं पूर्वाग्रहों से मुक्त स्वविवेक से निर्णय लेने वाले व्यक्तियों का मैत्री समूह बनाएं। ये समूह मिलकर अपने क्षेत्र का अपना निर्दलीय प्रतिनिधि चुनेंगे तब वह आपका अपना प्रतिनिधि कहा जायेगा। पार्टी पॉलिटिक्स यूरोप से आई व्यवस्था है जहाँ पूँजीवाद एवं साम्यवाद नामक दो धाराएँ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती हैं कि वहाँ trade and industries वाली कॉमर्शियल गणित ही चलती है जिसमें पूँजी निवेशकों एवं श्रमिकों के,शोषकों एवं शोषितों के परस्पर हितों का संघर्ष चलता रहता है।    
      जबकि भारत के अर्थशास्त्र की पूरी गणित प्राकृतिक उत्पादन पर चलती है। अतः भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली में सबकुछ सर्वसम्मति से होता आया है।
    भारतीयों की मानसिकता में दो विरोधाभासी तथ्य होते हैं। एक तरफ तो दल-दल विहीन सर्वसम्मति; तो दूसरी तरफ निर्वाचित व्यक्ति को पूर्ण उत्तरदायी मानने की प्रवृति।
   इस के कारण ही यहाँ दृढ निश्चयी व्यक्ति को पसंद किया जाता रहा है। दृढ़ निश्चय जब विवेकहीन स्वार्थ का रूप ले लेता है तो वह दुराग्रह,ज़िद एवं तानाशाही प्रवृति के रूप में सामने आता है। चूँकि जब कोई संस्था बनती है तो उसमें पद और पदाधिकारी भी होते हैं। यहीं से भारतीयता पीछे छूट जाती है और धर्म का स्थान  मानवनिर्मित, artificial,स्वनिर्मित धर्म(संविधान) ले लेता है जो एक वर्ग को अधिकार दे देता है मनमर्ज़ी करने का,और दूसरा एक वर्ग उनका समर्थक बन कर उन्हें तानाशाह बनने में मदद करने लग जाता है। 
    अतः आप अपने अन्दर की भारतीयता को पहचानें और बिना पद एवं पदाधिकारियों वाले मैत्री-समूह बनाएं। सक्रिय होने से पहले इतना तो कर ही सकते हैं कि आप आत्म-भाव में आ कर अपने आप को टटोलें कि कहीं आप भी आत्म-कल्याण व सर्व-कल्याण से च्युत हुए व्यवस्था-प्रणालियों में सिर्फ इतना ही परिवर्तन तो नहीं चाहते हैं जिनसे आपका स्वार्थ,स्वहित,कामनाएं पूरी हो जाएँ;बाकी जाएँ भाड़ में।

Gita the Lord says, "I Policy who will win"
    Identify yourself as a voter and the voter - the cradle of religion and to choose their representatives themselves. Permanent residents of the area and the party - a party to stay away from Politics.
   Parties - Party-free pure-minded and prejudice-free decision-making discretion of the friendship group of individuals. Together these groups will choose their field representative's own party said he will be your own representative.
      While India's economy is run on natural production of the whole mathematics. So the Democratic consensus has everything in the system.
    There are two contradictory facts in the mindset of Indians. On the one hand, the team - a team without a consensus, on the other person elected to the tendency to accept full responsibility.
   Like this because the person has been determined here.Since then it has become an institution, there are office bearers.is.
    So, in your office and office-bearers of the Indian Identify and without the friendship - group.selfishness, self, desires to be fulfilled, the visit to hell.