आप यदि ऐसा सोचते हैं कि आज़ादी से पहले राजा-रजवाड़े,ज़मींदार जनता पर मन-मर्ज़ी अत्याचार करते थे तो आप सही सोचते हैं। लेकिन छठी शताब्दी में जब राजपूतों की योद्धा नस्ल विकसित की गई थी तब से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक राजपूत न सिर्फ ईश्वर-भाव[संरक्षक भाव] रखने वाले थे बल्कि जनता का सम्मान भी करते थे और जनता से डरते भी थे। कारण यह था की सुव्यवस्था नहीं होने पर जनता राज्य से पलायन कर जाती थी। बलात रोकने की कोशिश भी कारगर नहीं होती थी,चूँकि तीर्थाटन पर जाने से रोकने की हिम्मत राजाओं की भी नहीं होती थी। लोग तीर्थाटन पर जाते और मार्ग में आने वाले किसी अन्य राज्य में बस जाते। यहाँ तक कि कुशासन होने पर विद्रोह भी हो जाता था। विद्रोह का अर्थ था नए राजा का चुनाव वरना प्रजा का पलायन। लेकिन जब मुग़ल और बाद मे अंग्रेज़ स्थापित हो गए तो वे जनता की अवहेलना करने लग गए क्योंकि तब उनके लिए उनके हाई-कमान अधिक महत्वपूर्ण हो गये थे।उन हाई-कमानों की मर्ज़ी पर ही उनकी गद्दी सुरक्षित रह पाती थी। अब उनमें ईश्वर-भाव नष्ट हो गया और वे ईश्वर-भोगी[ऐश्वर्य-भोगी] हो गए।
ठीक इसी तरह वर्तमान के राजे-रजवाड़े[राजनेता] भी अपने क्षेत्र और क्षेत्र की जनता के नहीं बल्कि अपने पार्टी हाई-कमान के प्रतिनिधि होते हैं। यहाँ तक कि ये संसद और राष्ट्र के भी प्रतिनिधि नहीं होते। जब संसद में कोई बिल रखा जाता है या चर्चा होती है या कोई निर्णय लेना होता है, तब इन सांसदों की दृष्टि में उचित-अनुचित का मापदंड इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस पार्टी के प्रतिनिधि हैं। तब वे ना तो राष्ट्र के,ना संसद के,ना ही अपने संसदीय क्षेत्र के प्रतिनिधि होते हैं, बस अपने हाईकमान के आदेश पर उचित को अनुचित और अनुचित को उचित कहना इनकी मजबूरी होती है। चूँकि इनमें स्वाभिमान बचा ही नहीं है अतः यह इनकी फ़ितरत[प्रकृति] बन गई है।
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह बन गया है कि सभी दलों के हाई-कमान तानाशाह भी हो गए हैं। तानाशाह बनने की एक लोकतांत्रिक पद्दति विकसित हो गई है। यह पद्धति वैसे तो सभी संगठन,
संस्थाएं,संघ,एनजीओ से लेकर धार्मिक-सांप्रदायिक-आध्यात्मिक वर्ग द्वारा भी उपयोग में ली जाती है किन्तु उनका दोष इसलिए नहीं माना जाये क्योंकि जैसा राजा वैसी प्रजा। आज जो कोई भी दस-बीस,सौ -दो सौ लोगों को भी इकट्ठा करने में सफल हो जाता है वह अपनी सफलता में इतना इतराने लग जाता है कि दुराग्रही हो जाता है। उसके आग्रहों को न माना जाये तो अपने गणों को साथ लेकर तांडव करने लग जाता है। संसद में यह तांडव आप लाइव देखते ही हैं और समय-समय पर सड़कों पर भी देखते हैं। इन लाइव कार्यक्रमों को वैसे तो आप नि:शुल्क देखते हैं लेकिन यह आंकलन भी साथ-साथ चलता है कि राष्ट्र और जनगण इसकी कब-कब,कितनी-कितनी क़ीमत चुकाता रहता है। अब आपके सामने दो विकल्प हैं, एक है कि जैसा चल रहा है वैसा चलने दो। दूसरा है इस समस्या के समाधान हेतु कुछ किया जाये।
दूसरे विकल्प में पुनः दो विकल्प हैं। एक तरीक़ा है, जब-जब कोई नया संगठन पैदा हो आप अपनी भावुकता से पैदा हुई दुर्बलता से वशीभूत हो कर उसके समर्थक या अनुयाई बन जाएँ और नया तानाशाह व नया दुराग्रही उपजाने में मदद करते रहें। इस तरह नए-नए दल उपजते रहेंगे और दल-दल का अधिकाधिक विस्तार होता रहेगा। नकारात्मक वातावरण वाले नरक का साम्राज्य बढ़ता रहेगा। यदि सकारात्मक वातावरण एवं सुख-शान्ति वाला स्वर्ग चाहिए तो मान कर चलें ख़ुद मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता। अतः दूसरा विकल्प है आप अपने आप को जानें और एक मतदाता के धर्म का उपयोग-प्रयोग करें। परम्परा कहती है,"जहाँ धर्म है वहाँ विजय है।" आप अपना प्रतिनिधि संसद में भेजें.
आप यह क्यों चाहते हैं की इसके लिए संविधान में संशोधन हो अथवा चुनाव आयोग कुछ कदम उठाये यह आपका कर्तव्य और अधिकार है की आप निर्दलीय को अपना प्रतिनिधि चुन सकते हैं.इस क्रान्ति में न तो आपको चन्द्रगुप्त की तरह का,न शिवाजी की तरह का,और न ही स्वतंत्रता सेनानियों की तरह का भारी पराक्रम दिखाना है सिर्फ अपने संसदीय क्षेत्र के जन साधारण से मैत्री करनी है और अपना प्रतिनिधि चुनना है.अगर इतना सा पराक्रम नहीं कर सकते तो फिर इस नरक [नकारात्मक वातावरण] से निकल कर स्व के अर्ग की
सोचने का भी आपको अधिकार नहीं है।
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