परम्परा से मिले ज्ञान की यह विशेषता होती है कि ज्ञानार्जन के लिए साक्षर होना भी आवश्यक नहीं होता,श्रुति परंपरा से सुन कर भी समझा जा सकता है। बशर्ते तर्कसंगत वैज्ञानिक आधार को समझने के प्रति मानसिक सामर्थ्य(श्रद्धा) हो।
जब तार्किक आधार पर समझने के प्रति श्रद्धा होती है तो सके वैज्ञानिक आधार के प्रति भी विश्वास होने लगता है। यही विश्वास शोध कार्य में मदद करता है। जब श्रद्धा एवं विश्वास का योग(जोड़) हो जाता है तो यह जोड़ा अपनी जननी आस्था(सकारात्मक दिशा में जाने की दृष्टि,सकारात्मक दृष्टिकोण,सकारात्मक दार्शनिकता) का जनक भी बन जाता है।
आज पढ़ा-लिखा साक्षर[literate] नवबौद्धिक नवधार्मिक वर्ग शुद्ध प्रोफेशनल एवं सब्जेक्टिव होकर सिर्फ़ उपलब्धि की सोच रखता है। जबकि प्रोफेशन एवं मिशन,ओब्जेक्ट एवं सब्जेक्ट,उद्देश्य एवं उपलब्धि अर्थात धर्म[कर्तव्य-अधिकार] एवं कर्म[जॉब] दो अलग-अलग गतिविधियाँ नहीं हुआ करती हैं। इसी को अद्वैत सिद्धांत कहा गया है।
जब आप इन तमाम उभयपक्षी अद्वैत गतिविधियों को द्वैत कर लेते हैं तो फिर विषमताओं [असमानताओं,तनावों,कलह-क्लेशों, नॉनहार्मोनिकल कंडीशंस इत्यादि को] को बढ़ने से कभी नहीं रोक सकते।
इसी तरह सत्य के भी सत-असत नामक दो पहलू होते हैं तो इसी तरह गुण भी विकार सहित होते हैं।यदि आप सिक्के के एक पहलू को देखते समय दूसरे पहलू को नकार देंगे और दूसरे पहलू का अध्ययन करते समय पहले पहलू को नकार देंगे तो यहाँ आप सत्य से अनभिज्ञ रह जायेंगे लेकिन यदि एक पक्षीय जानकारी को ही ज्ञान मान लेते हैं तो आप अज्ञान से आवेशित हो जायेंगे।
अनभिज्ञता अज्ञान जितनी हानिकारक नहीं होती। अज्ञानी आत्मघाती के साथ-साथ समाजघाती भी हो जाता है। अज्ञान का मूल कारण दृष्टिकोणविहीन अंधश्रद्धा होती है और अनभिज्ञता का कारण सच्चाई के प्रति श्रद्धा [मानसिक-सामर्थ्य] का नहीं होना होता है। जब कोई व्यक्ति अनभिज्ञता अथवा अज्ञान के चलते अपने कार्य,आदेश एवं निर्णय के लिए तर्कसंगत वैज्ञानिक आधार नहीं खोज पाता है तो स्वायंभू अधिनायक[तानाशाह] की प्रवृत्ति उसमें स्वतः विकसित हो जाती है।
लेकिन जिस ज्ञानी की अवधारणा स्पष्ट होती है उसमें दृढ़ता से निर्णय लेने का धृति-बल होता है। इसलिए वह अपने निर्णय लेने के कारणों का तर्कसंगत व्यावहारिक कारण सुस्पष्ट करता है। अतः उसे विरोध नहीं समर्थन मिलता है जैसे कि लाल बहादुर शास्त्री और सरदार बल्लभ भाई पटेल थे। इसी को अध्यात्म[स्वाभाविक स्वभाव] कहा गया है। ऐसी स्थिति में पत्रकारिता का धर्म बनता है सत्य का अनुसंधान करना। सत्य,ज्ञान एवं सेन्स एक दूसरे के पूरक शब्द हैं। इसीलिए नारद को ज्ञान का देवता कहा गया है। [एक कालखंड ऐसा था जब भाषाएँ पढ़ाए जाने वाले गुरुकुल के कुलगुरु/कुलपति को नारद की पदवी दी जाती थी। फिर एक कालखंड ऐसा भी था जब या तो कुलपति तानाशाही पर उतर आये होंगे या फिर तानाशाह राजाओं के प्रति विद्दार्थी-विद्रोह हुआ होगा तब कुलपतियों का स्थान प्रस्तर प्रतिमाओं ने ले लिया,तब वे देव[जीवित व्यक्ति]से पत्थर के देवता बना दिए गए।]
अब भारत की राजनीति जब संकट के दौर से गुजर रही है तो पत्रकारों को एकजुट होकर राष्ट्र को संकट के इस दौर से निकालना चाहिए या कहूँ कि जब एक परिपूर्ण अवधारणा सामने आरही है तो राष्ट्र को इस राजनैतिक संकट के साथ-साथ सभी संकटों से निकालने के लिए सभी को एकजुट हो जाना चाहिए।
परम्परागत ज्ञान का एक प्रश्न :-
भारत-राष्ट्र -- भारत-देश -- भारत-वर्ष इनके अलग-अलग आशय होते हैं।
ऐहित्य में तीन भरत हुए हैं जिनके आचरण पर तीनों भारत का नाम भारत रखा गया।
भारत-राष्ट्र की रक्षा-सुरक्षा,भारत-देश की समृद्धि-सम्पन्नता एवं भारत-वर्ष के संरक्षण-संवर्धन के लिए
तीन महानायक राम हुए हैं। क्या आप इन तीन-तीन भरत एवं राम के नाम बता सकते हैं ?
आप पूछताछ करके भी पता करें कि कितने लोग इस प्रश्न का उत्तर देने में समर्थ हैं।
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