जम्हूरियती तानाशाही Democratic dictatorship.
एक लम्बे काल तक प्राकृत भाषाओं को संस्कारित करके विकसित हुए संस्कृत भाषा के शब्दकोष के मूल शब्द मुश्किल से चार-पाँच सौ धातु रूपों से बने हैं। इस धार्मिक-वैज्ञानिक भाषा के एक गुरु शब्द से गवर्न,गवर्नर,गवर्नमेंट,गरिमा,गौरव,गुरुत्व,ग्रेविटी इत्यादि शब्द बने हैं। आत्म-कल्याण के मार्ग में एक गुरू जहाँ बाधा बन जाता है उसके विपरीत जगत के सार्वजनिक जीवन में गुरु बिना कल्याण नहीं,मुक्ति नहीं,मोक्ष नहीं। लौकिक जीवन में आप प्रतिक्षण किसी ना किसी से गवर्न होते रहते हैं और किसी न किसी को गवर्न करते भी रहते हैं।
गवर्न करने की तीन सनातन पद्धतियाँ यानी व्यवस्था-प्रणालियाँ होती हैं,जो शरीर की त्रिगुणात्मक प्रकृति के अनुकूल वर्गीकृत होती हैं। इसे वैदिक[वैज्ञानिक] शब्दावली में देव-पद्धति,रक्षस-पद्धति,यक्ष-पद्धति कहा गया है।
देव जब देव को गवर्न करता है तो वह उसे गुर[विद्याएँ,technology,तरीक़े] सिखाता है जिससे अर्थ का उपार्जन कर सके। साथ ही साथ आचार्य बनकर आचरण सिखाता है, शिक्षक बनकर शिक्षा देता है।
रक्षस से राक्षस[आतंकी,आक्रमणकारी] और रक्षक[सुरक्षा देने वाला,सरंक्षक] दो शब्द बनते हैं। रक्षस जब गवर्न करता है तो बलप्रयोग करता है।
यक्ष जब गवर्न करता है तो वचन में बाँधता है, अनुबंध का उपयोग-प्रयोग करता है।
देव-रक्षक व्यवस्था-प्रणाली में विद्या-अध्ययन एवं सरंक्षण,सुरक्षा को प्राथमिकता देकर अर्थ-व्यवस्था की रूपरेखा डिज़ाइन की जाती है।
यक्ष-राक्षस प्रणाली में वचन एवं अनुबंध में बाँध कर अर्थव्यवस्था की रूपरेखा तैयार की जाती है। अनुबंध तोड़ने पर बल प्रयोग किया जाता है। आतंकित करना,आर्थिक-शारीरिक दंड देना अनुशासित रखने का तरीक़ा होता है। वर्त्तमान में पूरी दुनिया में यक्ष-राक्षस प्रणाली प्रचलन में है।
देव-रक्षक शास्त्रीय अर्थव्यवस्था हेतु धन-धान्य का उत्पादन करते-कराते हैं। जबकि यक्ष-राक्षस कॉमर्शियल अर्थव्यवस्था हेतु ऋण देने के लिए मुद्रा छापते हैं और आयुधों के निर्माण में धन का दुरूपयोग करते हैं।
छठी से सोलहवीं शताब्दी तक के काल-खंड में भारत में देव-रक्षक शासन-अनुशासन प्रणाली थी जो मुग़लों के और यूरोपियन कम्पनियों के स्थापित होने के बाद धीरे-धीरे यक्ष-राक्षस शासन-प्रशासन प्रणालियाँ प्रचलन में आने लग गईं। आज विश्व के अन्य सभी राष्ट्रों के साथ-साथ भारत में भी यक्ष-राक्षस शासन-प्रशासन प्रणाली स्थापित हो गई है। अतः अब जनगण अनुशासन को अप्रासंगिक मान कर आत्मानुशासित,स्वनियंत्रित और स्वानुशासित रहने की अवहेलना करने लग गई है और प्रत्येक कार्य,गतिविधि एवं सार्वजनिक अनुशासन के लिए प्रशासन का मुँह देखती है।
भारत जहाँ की भूमि पर विश्व की सर्वाधिक वनस्पति प्रजातियाँ (क़िस्में) उपजती हैं एवं सर्वाधिक प्राणी प्रजातियाँ[नस्लें] पैदा होती है। जहाँ के लोग यहाँ तक कहते थे कि "कोई नृपु होय हमें का हानि।" जब तक हमारे ऊपर देवताओं के राजा इंद्र[मानसून] की कृपा है,राजाओं का कर[टैक्स] हमें दरिद्र नहीं बना सकता। जिस समय यह लोकोक्ति बनी थी उस समय के लोगों ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि भारत भूमि पर एक समय ऐसी शासन-प्रशासन प्रणाली लागू हो जायेगी कि धन-धान्य पैदा करने वाला वर्ग ग़रीबी की रेखा से भी नीचे आ जायेगा क्योंकि उनको अपनी उपज की क़ीमत तक नहीं मिलेगी। यह सब तब होगा जब भारत में प्रजातंत्र होगा किन्तु प्रजा की नहीं चलेगी। लोकतंत्र होगा लेकिन लोगों की नहीं चलेगी। जहाँ एक राजा नहीं,अनेक राजा होंगे,सभी स्वायम्भू अधिनायक होंगे।
ऐसा इसलिए हो रहा है कि आज शासन-अनुशासन नाम की कोई चीज़ नहीं है,सिर्फ़ प्रशासन है जो एक निश्चित अवधि के नौकर,दास,ग़ुलाम,वेतनभोगी कर्मचारी होते हैं। फिर भी ये अधिकारी कहलाते हैं क्योंकि भारत की राजकीय व्यवस्था में सारे अधिकार इन्हीं के पास हैं। ये ख़ुद अनुबंध में बँधे अनुबंध की फ़ाइलें चलाते हैं तो राष्ट्र चलता है, फ़ाइलें रूक जाती हैं तो राष्ट्र रुक जाता है। यहाँ समझने की बात यह है कि भारतीय संविधान में सभी अधिकार राष्ट्रपति के पास हैं और राष्ट्रपति के माध्यम से प्रशासनिक अधिकारियों के पास हैं। बाक़ी सब के पास केवल भ्रम है। स्वयं राष्ट्रपति संसद से बँधा है। इस प्रशासनिक व्यवस्था को लोकतांत्रिक व्यवस्था नाम दिया गया है।
आज सभी राष्ट्रों के राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री तक भी एक तरह से वेतनभोगी प्रशासनिक कर्मचारी ही हैं। अतः दूरगामी परिणाम देने वाली,स्थाई समाधान वाली,सर्वकल्याणकारी योजनाओं में इनकी रुचि नहीं रहती। क्योंकि इनकी ख़ुद की सत्ता का कार्यकाल ही छोटा होता है। इससे भी महत्वपूर्ण कारण है कि विश्वके इन सभी वेतनभोगी अस्थायी अधिकारियों,नेताओं,नराधीशों,राष्ट्राध्यक्षों के ऊपर एक गुरु-वर्ग बैठा है। ये मुट्ठीभर हैं फिर भी स्थाई सत्ता इन पूँजीपति गुरुओं के हाथ में बनी रहती है। इनकी मर्ज़ी के बिना ये बड़ी-बड़ी हस्तियाँ कहीं भी अपने हाथ से हस्ताक्षर तक नहीं कर सकतीं जबकि इन पूंजीपति गुरुओं की मर्ज़ी हो तो हस्ताक्षर करने से मना नहीं कर सकतीं। फिर भी इन उच्चपदस्थ वर्ग से लेकर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों तक सभी स्वायंभू अधिनायक बने बैठे हैं।
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह बन गया है कि सभी दलों के हाईकमान भी तानाशाह हो गए हैं। तानाशाह बनने की एक लोकतांत्रिक पद्दति विकसित हो गई है। यह पद्धति वैसे तो सभी संगठन, संस्थाएं,संघ,एनजीओ से लेकर धार्मिक-सांप्रदायिक-आध्यात्मिक वर्ग द्वारा भी उपयोग में ली जाती हैं किन्तु उनका दोष इसलिए नहीं माना जाये क्योंकि जैसा राजा वैसी प्रजा।
आज जो कोई भी दस-बीस,सौ -दो सौ लोगों को भी इकट्ठा करने में सफल हो जाता है वह अपनी सफलता में इतना इतराने लग जाता है कि दुराग्रही हो जाता है। उसके आग्रहों को न माना जाये तो अपने गणों को साथ लेकर तांडव करने लग जाता है। संसद में यह तांडव आप लाइव देखते ही हैं और समय-समय पर सड़कों पर भी देखते हैं। इन लाइव कार्यक्रमों को वैसे तो आप नि:शुल्क देखते हैं लेकिन यह आंकलन भी साथ-साथ चलता चाहिए कि राष्ट्र और जनगण इसकी कब-कब, कितनी-कितनी क़ीमत चुकाता रहता है। अब आपके सामने दो विकल्प हैं, एक है कि जैसा चल रहा है वैसा चलने दो। दूसरा है इस समस्या के समाधान हेतु कुछ किया जाये।
एक देव जब गुरु होता है तो अधिक से अधिक दंड के रूप में डंडा चला सकता है या अनुशासन तोड़ने पर तप करवा के तपा सकता है। संरक्षक शारीरिक दंड दे सकता है। राक्षस होगा तो कुछ लोगों का ख़ून बहा सकता है। यह बहता हुआ ख़ून कम से कम दिखता तो है। जबकि एक अकेला यक्ष जब गुरु बन कर वित्त (पूंजी) के माध्यम से गवर्न करता है तो एक स्थान पर बैठा-बैठा पूरी दुनिया का ख़ून चूस लेता है जो कहीं भी बहता हुआ नहीं दिखता।
इन तीन तरह के गुरुओं की तानाशाही से बचाने के लिए किये गए अनेक उपायों में से एक उपाय प्रजातंत्र है। लेकिन आज की विडम्बना यही है कि आज के गुरुओं ने तानाशाही की प्रजातांत्रिक पद्धति खोज निकाली है।
धर्म के नाम पर दूसरे सम्प्रदाय को गालियाँ निकालो,भावुक अन्धानुयाइयों का झुण्ड इकट्ठा हो जायेगा। जनसमर्थन की जनतांत्रिक पद्धति से धर्मगुरु बन कर चाहे जैसी तानाशाही की जा सकती है। अपने अनुयाइयों पर भी और अपने विरोधियों पर भी। जो उसका समर्थन नहीं करे उस पर भी वह भाषाई आक्रमण की तानाशाही करने के लिए अधिकृत हो जाता है। जाति के नाम पर,क्षेत्र के नाम पर,व्यापार के नाम पर,N.G.O.के नाम पर चाहे जिस संस्था,संगठन,यूनियन इत्यादि के नाम पर जन को,लोगों को, प्रजा को इकठ्ठा कर लो, लो हो गया डेमोक्रेटिक सिस्टम। अब चूँकि इन संस्थाओं का एक मुखिया होता है तो वही सब का गुरु होता है। पूर्वाग्रह ग्रस्त गुरु का जो भी आग्रह-दुराग्रह होगा सब को मानना पड़ेगा। लो हो गई लोकतांत्रिक तानाशाही!
सबसे रोचक तानाशाही आध्यात्मिक गुरुओं की होती है। अध्यात्म धार्मिक-वैज्ञानिक शब्द है।जिसको साहित्य की भाषा में स्वभाव,प्रवृत्ति और नीयत तीन शब्दों से व्यक्त किया जाता है। स्वाभाविक स्वभाव की स्वाभाविकता को बनाये रखना अध्यात्म कहा गया है। जैसी शरीर की प्रकृति होती है वैसी ही उसकी मनो-प्रवृति होती है। अतः उसी के अनुकूल वह वृत्ति (जॉब) का चुनाव करता है। जैसी उसकी नीयत होती है,नियति उसी तरफ़ उसे अवश करके धकेलती है। इसमें दूसरा(कोई) क्या कर सकता है ?
लेकिन देख कर हँसी तब आती है जब एक आध्यात्मिक गुरु ख़ुद अपने स्वभाव की स्वाभाविकता त्याग कर दर्प में रहता है और अभिनय करता सा लगता है। साथ ही साथ फ़रमान भी जारी करता है कि क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। उसकी नीयत उसे चेलों को स्थाई ग्राहक बनाने की तरफ़ धकेलती है।उसने ख़ुद अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल वृति का चुनाव किया होता है। ऐसे उन गुरुओं की अस्वाभाविक बातों को न मानने पर,अस्वाभाविक तरीके से अभिवादन नहीं करने पर वे तानाशाही भाषा का उपयोग करने लग जाते हैं। लेकिन चूँकि वे अध्यात्म विषय[Psychology] के विशेषज्ञ तानाशाह होते हैं फिर भी इनके अनुयाइयों की बड़ी संख्या होती है। अतः इसे लोकतांत्रिक पद्धति कहा जा सकता है और इसी कारण लोकतंत्र में इनको इसका अधिकार है। यहाँ तक कि ये लोग शब्दों की निजी परिभाषा गढ़ लेने का अधिकार भी रखते हैं।
इन सब प्रकार की तानाशाहियों का प्रभाव उनके अनुयाइयों की मानसिकता को ही बाँधता है। लेकिन बड़ी पार्टियों के हाइकमानों की तानाशाही से विद्रोह करके नया दल बनाने तथा जाति,क्षेत्र,सम्प्रदाय,वाद इत्यादि पर नये-नये दल कुकुरमुत्तों की तरह पैदा होकर जिस तरह का तानाशाही रवैया अपनाते हैं,जिस तरह अपने भत्ते बढ़ाने,चुनाव प्रक्रिया में सुधार नहीं करने,कृषि भूमि को शहरीकरण औद्योगीकरण की भेंट चढ़ाने जैसे अनेकानेक ऐसे मुद्दों और धन का दुरुपयोग जैसे मुद्दों पर पूरी की पूरी संसद एक मत होकर अवहेलना करती है। इस लोकतांत्रिक तानाशाही से मुक्त होना ज़रूरी है।
यह तानाशाही श्रृंखला बहुत आगे तक जाती है,जो अंततः पूंजीपति गुरुओं पर जाकर रूकती है। अतः इस तानाशाही श्रृंखला को रोकना तभी संभव होगा जब इस दलीय राजनीति से मुक्ति मिलेगी। जब सांसदों पर हाईकमान नामक तानाशाह नहीं होंगे और वे अपने क्षेत्र की जनता के प्रति उत्तरदायी,जबाबदेह होंगे तभी नवभारत निर्माण सम्भव होगा।
विशेष: अंतिम लक्ष्य नव भारत निर्माण योजना में मैंने अपने लिए भी स्वायम्भू अधिनायक नाम चुना है जबकि यहाँ इस शब्द को नकारात्मक आलोचना के लिए उपयोग में लिया है।
अब आपको यह देखना है कि समाज में कौन-कौन ऐसे अधिनायक हैं जो अपने आप को [अहम् ब्रह्म को], वचन में बाँधकर, ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता मानने वाले दृढ निश्चयी हैं। जो अन्य पर शासन करने के लिए, अन्य को जीतने के स्वभाव के चलते, अधिनायक नहीं हैं बल्कि आत्म विजयी हैं अतः किसी भी प्रकार के लालच में आने वाले लोलुप नहीं हैं। ऐसे स्वायम्भू अधिनायकों को अपने समाज में खोजें।
ऐसे स्वायम्भू अधिनायकों की, कम से कम,भारत में तो कमी नहीं है, लेकिन ऐसे लोग एकांत प्रिय होते हैं और आत्म-केन्द्रित रहते हैं अतः उनको खोजने का परिश्रम करना होगा। जय माँ भारती।