जब आप अपने-आप में स्थिर-स्थित हो जाते हैं तो आप के अन्दर का भगवान् [सृष्टम System] आपको अपने-आप समाधि की तरफ अवश करके धकेलता है। आप अपने-आप में मगन रह कर,बिना किसी कामना के कोई काम [जैसे कि बाग़वानी,साफ़-सफ़ाई,दैनिकचर्या इत्यादि के काम ] करते हुए जब स्थिर-चित्त[शम] हो जाते हैं तो समाधि की स्थिति अपने-आप बन जाती है।
आत्म-कल्याण का परिणाम
गीता की भाषा में: 'समाधि का हेतु कर्म नहीं शम होता है' ! जिस तरह सम का तात्पर्य वातावरण व परिवेश में सम स्थिति से होता उसी तरह शम का तात्पर्य देह के अन्दर की आधि-व्याधियों[मानसिक-शारीरिक बीमारियों] के शमन से होता है। गीता के इस वाक्य का तत्वार्थ है कि समाधि इस हेतु नहीं ली जाती है कि आप कर्म के नाम पर कोई ऊटपटांग काम करके अनावश्यक कर्मों का विस्तार करें बल्कि इस हेतु ली जाती है कि भौतिक शरीर में शम की स्थिति को स्थाई करके जब आप शम्भु बन जाते हैं तब एक तरफ़ तो आप पर ईश्वर का अनुग्रह हो जाता है जिस के परिणामस्वरुप आप अकाल मौत नहीं मरते,आपके शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। क्योंकि...
ईश्वर ही शरीर के अणुओं-परमाणुओं को अनुशासित रख कर जीव प्रजातियों के देह की रक्षा करता है और दूसरी तरफ़ आपके ब्रह्म[brain] में भी सत्व की वृद्धि होने से आप को कार्य-अकार्य,उचित अनुचित, भाव-अभाव इत्यादी उभयपक्षी सत्य का बोध होने लग जाता है तब आपमें निर्णय क्षमता बढ़ जाती है। तब व्यर्थ के काम करके कर्म का अनावश्यक विस्तार करने के स्थान पर संतुलित कर्म करते है।
ब्रह्म और ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त कर लेना ही आत्म-कल्याण कहा गया है। जब आप में मानसिक-सामर्थ्य एवं शारीरिक-क्षमता[कार्यक्षमता] या कहें शारीरिक-मानसिक-बल पर्याप्त होता है तब फिर दूसरी तरफ़ जगत के कल्याण हेतु आप इस योग्य योगी बन पाते हैं कि जगत में व्याप्त विषमताओं के कारण जानकर फिर उन कारणों के निराकरण के उपाय कर सकते हैं। वर्ना आपका मूल्यांकन परम-अर्थ को जानने तक नहीं पहुँच पाता है और आप स्वनिर्धारित अर्थ में उलझ कर रह जाते हैं।
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