वैसे तो प्रत्येक काल-स्थान-परिस्थिति में विरोधाभास,अंतर्द्वंद्व और विषमताएँ होती हैं क्योंकि शरीर की प्रकृति में गुण सविकार[विकारसहित] होते हैं। इसीलिए अच्छे और बुरे इंसान होते हैं,जिन्हें देव-असुर, इन्सान-शैतान, Evangel-Devil इत्यादि कहा जाता है। अतः हम यह नहीं कर सकते कि अच्छे-बुरे की एक समान परिभाषा सर्वत्र स्थापित कर दें। इसे एक ही संविधान को सभी पर थोपना कहा जायेगा।
चाहे भारतीय पौराणिक साहित्य लें या एंजिल-बाईबिल में वर्णित घटना लें, दोनों में ही एक समान घटनाएँ वर्णित हैं। भाईयों का बंटवारा होता है। सम्पति को लेकर झगड़ा होता है। एक अच्छा,एक बुरा भाई होता है।
इसी तरह गीता उपनिषद् का उपदेश लें या फिर क़ुरान में कही बातें लें, कर्त्तव्य के साथ-साथ अधिकार की भी, ईमान के साथ-साथ हक़ की भी बात कही गयी है। हक़ के लिए लड़ना अधिकार होता है।
बाइबिल-क़ुरान में तथा भारतीय साहित्य में एक मूलभूत अंतर है। यह अंतर ठीक वैसा ही है जैसा आयुर्वेद एवं अन्य सभी चिकित्सा प्रणालियों में है। अन्य सभी प्रणालियों में सिर्फ अस्वस्थ का निदान और उपचार है जबकि आयुर्वेद में स्वस्थ को स्वस्थ कैसे रखा जाए और साधारण प्राकृतिक स्थिति के शरीर को किस तरीक़े से शक्तिशाली और वीर्यवान बनाया जा सकता है,इसके विषय में ही सर्वाधिक लिखा गया है।
इसी तरह भारतीय पौराणिक साहित्य में उच्च बौद्धिक स्तर के अध्यापकों[ब्राह्मणों], शासकों [क्षत्रियों],आचार्यों[आचरण सिखाने वाले आध्यात्मिक गुरुओं],मुनियों[दार्शनिकों] और वैद्यों इत्यादि को अवधारणा स्पष्ट रखने हेतु गूढ़ ज्ञान बताया है। अर्थ का अनर्थ न हो जाये इसलिए अपात्र को पढ़ने से रोकने के लिए भी कुछ नियम बनाये गए।
लेकिन जब शिक्षा का स्थान साक्षरता ने ले लिया और साक्षरता का व्यावसायीकरण हुआ और साक्षरता का प्रचार-प्रसार जनसाधारण में हुआ और अध्यापक [ब्राह्मण] और किसान[क्षत्रिय] वाले भारतदेश में तथा वनवासी,आदिवासी परम्परा में आचार्य और श्रावक [श्रोता] वाले भारतवर्ष में बार-बार पण[मुद्रा] का प्रचलन करने वाले पणिये[बणिये] उत्तर-पश्चिम दिशाओं से भारत में आने लगे और वित्त के माध्यम से सत्ता पर क़ाबिज होने लगे और वैश्वीकरण होने लगा तब महाभारत काल में यह वैष्णव साहित्य लिखा गया, जिसमें ब्राह्मण साहित्य और वैदिक साहित्य में तीसरा आयाम अर्थशास्त्र भी जोड़ दिया गया और बहुत ही सरल भाषा मे त्रिआयामी ज्ञान दिया गया।
तब गीता के गुरु प्रकृति के प्रतिनिधि भगवान के मुख से पूँजीपति व बैंकर के समर्थन में विभूति योग में कहलवा दिया कि 'मैं यक्ष-रक्षसों में वित्तेश हूँ'।
अब आप चाहें तो वैदिक व पौराणिक साहित्य में अनेकानेक स्थानों पर जिन घटनाक्रमों का वर्णन है उस के आधार पर लें या चाहें तो विगत ज्ञात इतिहास में लें, भारत पर ही नहीं विश्व स्तर पर दो तरह के लोग हैं। एक प्राकृतिक जगत का नाश करके सोने और पूँजी,मुद्रा,वित्त,का संग्रह करने की काम और अर्थ वाली कामार्थ [Commercial] प्रणाली के समर्थक और दूसरे धन-धान्य उपजाने वाली आर्थिक प्रणाली Economic method के समर्थक।
ज्ञात इतिहास में संक्षिप्त विवरण लें।
2700 वर्ष पूर्व बुद्ध-महावीर द्वारा वनों की रक्षा का ज्ञान देना।
2500 वर्ष पूर्व भारत पर यवनों के आक्रमण के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में चाणक्य द्वारा यवन व्यापारियों[यहूदियों] से भारत को बचाना और राज्य कोष में रहने वाले सोने को घर-घर में फैलाने के लिए स्वर्ण आभूषणों का प्रचलन।
फिर 2300 वर्ष पूर्व अशोक के समय पुनः विदेशी व्यापारियों का आना और भारत की प्राकृतिक सम्पदा का नष्ट होना होना।
फिर 2100 वर्ष पूर्व विक्रमादित्य द्वारा भारत को सुरक्षित करना और ज्ञान-विज्ञान में एक ऊँचाई तक ले जाना और उधर ईसा द्वारा यहूदियों को धर्म की शिक्षा देना लेकिन यहूदियों द्वारा उन्हें सूली पर चढ़ा देना।
तत्पश्चात 1700 वर्ष पूर्व इधर भारत में पुनः गुप्तों[बाणियों] के शासन में कामार्थ [Commercial] प्रणाली का उत्थान होना और भारत में अमीर ग़रीब का बनना।
फिर 1400 वर्ष पूर्व हर्षवर्धन द्वारा गुप्तों के शासन का अंत और आदिशंकराचार्य द्वारा पुरोहितों का अंत और उधर पैग़म्बर मुहम्मद के इस्लामिक आन्दोलन द्वारा यहूदियों को मारना।
फिर 300 वर्ष पूर्व जब वैदिक साहित्य को चुराकर पुनः औद्योगिकीकरण हुआ तो वित्त के माध्यम से आर्थिक शोषण के विरुद्ध नाज़ियों द्वारा यहूदियों को मारना और
अब यहूदियों द्वारा पुनः विश्व को अपने आर्थिक लाभ के लिए परमाणु बमों और परमाणु भट्टियों से आच्छादित कर देना और अमेरिका को दुनिया का थानेदार बनाकर उसकी आर्थिक गर्दन अपने हाथ में लेना इत्यादि।
सब उसी घटनाक्रम की कड़ी है जिस घटनाक्रम में राक्षसों[आक्रमणकारी सेनाओं] को यक्ष अनुबंध में बाँध कर वित्त के बल पर स्वर्ग [पृथ्वी की प्राकृतिक सम्पदा के उत्पादन क्षेत्र] को अपने क़ब्जे में कर लेते हैं और उसे बंजर बना कर स्वर्ग को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं।
अब इस आन्दोलन में मैं पूंजीपति यक्षों, उनके द्वारा प्रचलित वचनबद्ध करके शासन करने की व्यवस्था के समर्थकों और इस भौतिक विकास के सुख-साधनों का उपयोग करते रहने के इच्छुक समर्थकों को एक वर्ग में रखता हूँ तथा इनके समानांतर दूसरे वर्ग में वे लोग हैं जो प्राकृतिक उत्पादक वर्ग हैं। जो संख्या में तो बहुसंख्यक हैं लेकिन जिनमें अधिकांश लोग वे हैं जिनकी पहुँच इण्टरनेट तो क्या,अख़बारों तक भी नहीं है। अतः मैं आप पढ़े-लिखे अल्पसंख्यकों से यह कहना,स्पष्ट करना,पूछना चाहता हूँ कि आप इस बारे में क्या सोचते हैं। आपके सामने दो विकल्प हैं।
पहला विकल्प है समय का इन्तजार करें और इस विकास के विनाश और इस उत्थान के पतन की चली आ रही परिपाटी को चलने दें। इस घटना में आप जो विकास के समर्थक हैं,आपकी हार होगी लेकिन जीत किसी की भी नहीं होगी क्योंकि जो वर्ग आज भी उसी स्थिति में है और बाद में भी उसी स्थिति में रहेगा। वह इस घटना से लगभग अप्रभावित रहेगा क्योंकि वह आहार के उत्पादन से जुड़ा है और हरियाली के बीच रह रहा है। अतः नंगा भले ही रह जायेगा लेकिन भूख से तड़प-तड़प कर,परमाणु विकीरण से प्रभावित होकर नहीं मरेगा।
दूसरा विकल्प है कि जब तक हम प्राकृतिक उत्पादन को आर्थिक पक्ष से नहीं जोड़ेंगे तब तक पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या,पृथ्वी का गर्मियों में अधिक गर्म और सर्दियों में अधिक सर्द होने की समस्या,ग्रामीणों की क्रय क्षमता कमजोर हो जाने से औद्योगिक-नगरों में आर्थिक विकास के सांध्रित बिंदु के आ जाने की समस्या, ग्रामीणों के विस्थापन से नगरों में सामाजिक समस्याओं का बढ़ना,शिक्षा को प्रायोगिक-तकनीकी ज्ञान से अलग करने से बेरोज़गारी बढ़ने की समस्या इत्यादि विविध प्रकार की समस्याओं से मुक्त नहीं हो सकते। इन समस्याओं के बढ़ते ही रहने की समस्या का एक मात्र समाधान है सनातन धर्म चक्र[पारिस्थितिकी चक्र] को विकसित होने देने के लिए वनों एवं वनों में रहने वाले आदिवासियों को वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था में पुनः स्थापित किया जाये।
अब कहना या पूछना यही है कि आप क्या चाहते है ? अपने आप से प्रश्न करें और अपने आप को ही इसका उत्तर दें। विशेषकर बुद्ध और महावीर के अनुयाइयों से मैं यह अपेक्षा करता हूँ कि वे आत्मसाक्षात्कार करें, अपने आप का Inerview लें।
क्या आप इस क्रांतिकारी आन्दोलन के क्रमबद्ध कार्यक्रम को गति देने के लिए आगे आ रहे हैं ? या अर्जुन की तरह कायरता के दोष से पैदा हो चुकी नपुंसकता को प्राप्त हो चुके हैं !
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