परं+परः .... इन दो शब्दों के समास से परम्परा शब्द बना है।
परं(परम) का तात्पर्य अर्थात तत्वार्थ अर्थात तात्विक-अर्थ होता है सूक्ष्मतम,छोटी से छोटी इकाई,मूल इकाई।
परः का तात्पर्य होता है विस्तृततम क्षेत्र,विशालतम आयतन जिसमें पूर्ण आप्त [कवर] हो जाता है।
अर्थात जिस लौकिक परंपरा में व्यक्ति से लेकर पूर्ण समाज आ जाता है उसे परंपरा कहा जाता है।
कर्तव्यनिष्ठा एवं अधिकारों से बने आचरण को धारण करने वाले धर्म के तीन आयाम होते हैं।
जो मानसिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ रहना एवं सामाजिक हारमोनी को बनाये रखना होते हैं। उन्हीं को आधार देने वाली तीन सनातन परम्पराएं कही गई हैं। जब ये तीनों आयाम सम [Even] हो कर घन [Cube] हो जाते हैं तब वह परम्परा आत्म-कल्याणकारी और सर्व-कल्याणकारी की श्रेणी में आती है।
परम्पराओं के दो वर्ग होते हैं।
1. सनातन परम्पराएँ।
2. मिथकीय परम्पराएँ।
सनातन परम्पराएँ प्रकृति के सनातन धर्मचक्र पर आधारित होती हैं। ये पुनः दो वर्गों में वर्गीकृत होती हैं।
अ.) ब्रह्म परम्परा जो शिक्षा के विस्तार और ब्रह्म[Brain] के विकास की परम्परा कही गयी है।
ब.) वेद परम्परा जो सन्तति के विस्तार और ईश्वर[ऐश्वर्य] के विकास की परम्परा कही गई है।
मिथकीय परम्पराएँ मानव-निर्मित धर्म के रूप में होती हैं। इनको परिपाटी,रीति-रिवाज,मान्यताएं, अनुशासन के नियम,सभ्यता के मापदंड इत्यादि अनेक नाम दे सकते हैं। इन मिथकीय परम्पराओं में संशोधन होते रहते हैं और होते रहने भी चाहिए, करते रहना भी चाहिए क्योंकि ये सार्वकालिक नियम नहीं हो सकते अतः काल-स्थान-परिस्थिति के अनुकूल भी और परिवेश को अनुकूल बनाने के लिए भी ये मिथक परिवर्तनीय होते हैं। ये पुनः तीन वर्गों में वर्गीकृत होती हैं।
अ. राष्ट्रीय संविधान।
ब. सांप्रदायिक मान्यताएँ।
स. सामाजिक रीति-रिवाज।
लेकिन इन तीनों का उद्देश्य,मिशन,धर्म एक बात पर केन्द्रित होता है, संगठित रह कर अपने कर्तव्यों की पालना करते हुए अधिकारों के लिए लड़ना।
आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है कर्तव्यों एवं अधिकारों को परिभाषित करना।
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