हे विश्व के कर्णधारों ।
जब व्यक्तिगत स्तर की विषमता होती है तो व्यक्ति को अपने अन्दर शम को स्थापित करके शम्भु बनना पड़ता है ।
जब संस्थागत विषमताऐं होती है तो पूरे समूह को सम प्रदान करने के लिए सम्-प्रदाय (सम्प्रदाय) बना कर उसके लिए कुछ विवि-विधान, सम्-विधान (संविधान) बनाना पड़ता है । जिसे हम साम्प्रदायिक अथवा राष्ट्रीय धर्म कहते है। जिन का उदेस्य राजनैतिका,सामाजिक,आर्थिक तीन आधार सम करना होता है।
लेकिन जब हम विश्व स्तर की विषमताओं को सम से आप्त करना चाहें, समाप्त करना चाहें तो हमें धर्म के उस स्तर को समझना पड़ता है जो सम्प्रदायों एवं राष्ट्रों से ऊपर उठकर,समाज व्यवस्था से ऊपर उठ कर, मानव निर्मित सभी कानून कायदों से ऊपर उठ कर सम्पूर्ण पृथ्वी-ग्रह पर समान रूप से धारण किये जाने वाले धर्म को धारण करने सम्बन्धी है।
इस स्तर पर धर्म एवं विज्ञान एक दूसरे के पर्याय और पूरक हो जाते है अर्थात् उस धर्म को धारण करना होता है जो प्रकृति निर्मित है। विज्ञान के नियमों [प्रकृति निर्मित नियमों] से स्वतः ही भावों का परस्पर आदान प्रदान करके सनातन बना रहता है ।
सनातन उसे कहा गया है जो स्व-नियंत्रित,Self controlled,नान-डिस-कन्टीन्युअस,Nondiscontinuous अन-अवरूद्ध Unblock होता है जिसकी निरन्तरता बाधित होने पर वह प्रकृति निर्मित धर्म से स्वतः निरन्तरता को प्राप्त कर लेता है । संस्कृत के इस सनातनधर्म शब्द को लेटिन में इकोलोजीसाईकिल और हिन्दी में पारिस्थितिकी-चक्र कहा गया है। सभी धार्मिक-सम्प्रदायों या साम्प्रदायिक धर्मों का एक ही लक्ष्य बताया गया है, और वह लक्ष्य है "सनातन धर्म की रक्षा करना"।
मैं जहाँ तक समझता हूँ इस बिन्दु पर पूरे विश्व-समुदाय या मानव-मात्र को कोई ऐतराज नहीं होना चाहिये। कहने का तात्पर्य है कि इस बिन्दु पर हमें मानव निर्मित संस्थागत धर्मों से ऊपर उठकर एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना चाहिये। समग्र दृष्टिकोण में दो तरह की संस्थाएँ विशेष महत्व रखती हैं ।
एक तरह की संस्थाओं के नाम है राष्ट्र और दूसरी तरह की संस्थाओं के नाम हैं धार्मिक सम्प्रदाय । इन दोनों संस्थाओं का उद्धेश्य आर्थिक-विषमताओं में घिरे मानव समाज को सम-स्थिति प्रदान करना रहा था। लेकिन मानव के ये दोनों ही स्वनिर्मित धर्म वर्तमान काल की सभी विषमताओं के मूल कारण बन गये है ।
अब यहाँ एक प्रश्न उपजता है कि जब इनका उद्धेश्य सम-स्थापित [ संस्थापित] करना है, प्रजा (जीव प्रजातियों ) को विषमताओं से लड़ने के लिए संगठित करना है, तो फिर इन दो संस्थाओ के विकास के नाम पर हम विषमताएँ क्यों फैला रहे हैं ? इसका कारण है हम काम एवं अर्थ में डूब गये हैं और हमने विविध प्रकार की कॉमसियल संस्थाऐं (वाणिज्यिक प्रतिष्ठान) खड़े कर लिये हैं जो इन दोनों संस्थाओं पर हावी हो गये हैं।
अब यदि हम अपने वैचारिक स्तर या मानसिक स्तर या भावनात्मक स्तर या तर्क एवं दर्शन (लौजिक एवं फ़िलोसोफ़ी) इत्यादि के स्तर को एक ऊंचाई पर ले जायें और फिर इन तीनों को समभाव से देखें तब जाकर हम विश्व स्तर की विषमताओं को सम में आप्त (समाप्त) करके जीवनकाल को सुर में, हारमोनियस काल-खण्ड में बदल सकते हैं ।
अब चुंकि इतने बड़े-बड़े विशिष्ट पदों पर बैठे विषिष्ट लोगों के सामने एक साधारण व्यक्ति की क्या औकात हो सकती है जो आप विश्वस्तरीय लोगों को कोई रास्ता सुझा सके ।
लेकिन यह ठीक उसी तरह है जिस तरह एक पहाड़ी जंगल में विद्वानों एवं शूरवीरों की एक बहुत बड़ी टुकड़ी को उस क्षेत्र का निवासी, एक छोटा सा बच्चा सुगम मार्ग बता कर उनके श्रम को कम कर सकता है।
जिस तरह से एक साधारण ग्वाला (गौपालक कृष्ण) आप को एक प्रशासनिक डिजाइन बना कर दे सकता है।
एक साधारण लकड़हारा (कालीदास) नाटककार के रूप में साहित्य की एक विद्या/विधा का जनक होकर शिक्षा पद्धति में क्रान्ति ला सकता है।
इसी तरह मैं भी एक डिजाईन बता सकता हूँ। उस डिजाईन से आप एक वर्गीकृत समाज व्यवस्था को स्थापित कर सकते हैं। चुंकि समाज व्यवस्था का ढाँचा ही वर्गीकृत है अतः सभी वर्गों के हित की एक उचित व्यवस्था इस ढाँचे में होगी अतः तब इसमें कोई किसी का विरोधी नहीं होगा सभी अपने-अपने वर्ग में सुख से रहेंगे। समस्या तो तब आती है जब एक वर्ग दूसरे सभी वर्गों पर हावी होना चाहता है और सभी वर्गों के कर्म एवं धर्म क्षेत्र में अतिक्रमण करना चाहता है ।
सिर्फ एक बिन्दु ऐसा है जिसको लेकर मैं आशंकित हूँ कि कहीं ऐसा नहीं हो कि मैने तप के संयोग से सोचने का जो स्तर पाया है और फिर उस ऊंचाई के दृष्टिकोण से दुनिया को देखा है और उसी दृष्टिकोण (नजरिये) की वजह से मैं यह डिज़ाईन बना पाया हूँ वह कर्म निष्फल न चला जाये।
निष्फल जाने की शंका का कारण और कारक है, आप लोगों के अंहकार का स्तर अर्थात् यदि आपके अहंकार का स्तर यही रहा और आपने अपने इस पूर्व निर्णय को नहीं बदला कि ‘‘हम तो लड़ेगे ही लड़ेगे । क्योंकि हमारे गुणसुत्रों में चैरासी लाख पशु-योनियों के गुण हैं । अतः हम तो राष्ट्रीय, साम्प्रदायिक और वित्तीय वर्चस्व के लिए आपस में पशुओं की तरह लड़ेंगे, तू एक साधारण तुच्छ प्राणी हमें मार्ग दिखने की हिम्मत कैसे कर पाया ? अब यदि आपके अहंकार का स्तर पशुओं के स्तर का है जो बिना भिड़े नहीं रह सकते । कभी मादा के लिए, कभी घास के मैदान पर कब्जा हटाकर अपना कब्जा करने के लिए, तो कभी कभी सिर्फ अपनी-अपनी मासपेशियों और सींगों की शक्ति का प्रदर्शन करने जैसे स्तर का ही यदि आपका अहंकार है तो मान कर चले लड़कर ख़ुद भी मरना और दूसरों को भी मारना, यह आपकी नियति है ।
ऊँ तत् सत्
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