इस पृथ्वी का नाम पृथ्वी इसलिये है कि यह पदार्थ से बनी है.
पृथ्वी का एक तात्पर्य यानी तत्वार्थ यह भी होता है की कमल की पंखुड़ियों की तरह इसके महाद्वीप हैं जो फैलते हैं। तो ऐसा लगता है जैसे समुद्र के बीच कमल खिल रहा है। इसी कमल पर ब्रह्म (जीव) की उत्पत्ति हुई है। जब पृथ्वी का जन्म हुआ था तब दोनों ध्रुओं पर बर्फ थी और एक ही भूमि थी जो कालांतर में द्वीपों और महाद्वीपों में बँट कर पृथक पृथक हो गयी।
पृथ्वी के धरातल को धरती कहा गया है क्योंकि यह हमे धारण किये रहती है हमारे लिये पोष्टिक आहार पैदा करती है अतः यह हमारी धाय-मां भी है ।
यह देवी-देवता की श्रेणी में भी इसलिए आती है कि यह हमें जीने का आधार देती है और हमें ऐश्वर्यशाली जीवन के लिए "सकल पदारथ" "सभी तरह के पदार्थ" देती है लेकिन 'करम हीन' 'कर्महीन' 'अकर्मण्य' नर को वे पदार्थ प्राप्त नहीं होते।
भागवत महापुराणा में शब्दों का मानवीकरण करके इस पृथ्वी की पीड़ा व्यक्त की गई है। पृथ्वी जिसका एक नाम गाम भी है क्योंकि यह ऐसी चक्रीय गति से धूमती है कि पुनःपुनः एक-एक स्थान पर बार-बार आती है। गाय को भी इसी आचरण के कारण गाय कहा गया है। गाय,घोडा,हाथी ये ऐसे पशु हैं जो घूम कर पुनः उसी स्थान पर आते हैं।
पृथ्वी गाय का रूप धारण करके विष्णु के पास पहूँचती और कहती है कि; ये मेरे पुत्र (मनुष्य) मेरे स्तन पान पर निर्भर [ वनस्पति की उपज पर निर्भर] नहीं रहते हैं, बल्कि मेरा गर्भ [ भूगर्भ ] निकाल-निकाल कर खा रहे हैं। आप मेरी रक्षा करो ।
इस पर विष्णु कहते है; ऐसा है तो मैं इनको नष्ट कर देता हूँ ।
इस पर पृथ्वी कहती है; ‘‘नहीं ऐसा तो मत करना क्योंकि आखिर ये मेरे पुत्र हैं" ।
वर्तमान में पुनः हमारी यही स्थिति हो गई है और हम पृथ्वी के स्तन का दुग्ध कही जाने वाली वनस्पति की अवहेलना कर रहे है और खनन के माध्यम से इसका गर्भ निकाल कर उसका भोग कर रहे हैं ।
प्रकृति यानी विष्णु इसमें व्याप्त रहकर इसकी प्रत्येक गतिविधि का संचालनकर्ता है । इस संचालन प्रक्रिया के माध्यम से सन्तुलन बनते हैं । उसी सन्तुलन प्रक्रिया में भूकम्प आते हैं । सुनामी आती है, तुफान आते हैं और ज्वालामुखी फटती है । इन घटनाओं से भी एक सन्तुलन पैदा होता है । पृथ्वी पुत्र पार्थ होने के नाते हमारा कर्तव्य बनता है कि हम इस सन्तुलन में अपना सहयोग दें और पृथ्वी पर के रेगिस्तानों को हरा भरा करें ताकि जब कभी भी हमारा भौतिक निर्माण ध्वस्त हो जाये हम हमारे अस्तित्व को बचाने में सक्षम रहें । पृथ्वी के गर्म में छेद करने वाले खनन कार्यो से भी अधिक खतरनाक भूमि में किये जाने वाले परमाणु विस्फोटों से यदि पृथ्वी का सन्तुलन अंश मात्र भी बिगड़ गया हो हमारा अस्तित्व समाप्त हो सकता है और पृथ्वी पुनः एक डायनासोर युग में जा सकती है।
पृथ्वी पुत्र पार्थ होने के नाते हमारा धर्म बनता है कि हम अपनी माता के स्वास्थ की रक्षा करें ना कि उसको अस्वस्थ करें। तो आईये हम एक ऐसी कार्ययोजना की शुरूआत करें जो हमारी अर्थव्यवस्था को मजबूत करे लेकिन उसका आर्थिक आधार हो प्राकृतिक उत्पादन ना कि इकतरफा औद्योगिककरण और शहरीकरण हो। इससे एक तरफ तो डिगरी-धारी साक्षर किन्तु अशिक्षित, खोटे ज्ञान वाले बेरोजगार युवाओं की अभावग्रस्त सेना खड़ी हो रही है जो कभी भी विद्रोह कर सकती है तो दूसरी तरफ अभाव ग्रस्त पुंजी-पतियों का वर्ग खड़ा हो रहा है जो भावना शुन्य और भयानक अभावों से त्रस्त हैं ।
जिन्होने अपने बचपन में सेकड़ों और हजारों रूपयों का अभाव देखा था आज उनके पास अरबो-खरबों का अभाव है। जिसके पास सो करोड़ है वह एक हजार करोड़ के अभाव से ग्रस्त है और जिसके पास एक हजार करोड़ है उसका अभाव उसे दस हजार करोड़ का बनने की दिशा में धकेल रहा है ।
एक तरफ तो सभी राष्ट्र परस्पर ऐसी प्रतिस्पर्धा में उलझ रहे हैं कि किसके राष्ट्र में कितने अरबपति और खरबपति हैं, तो दूसरी तरफ आपने शिक्षा का भी वाणिज्यिक-विस्तार कर दिया हैं जिससे पढ़े लिखे बेरोजगारों, निकम्मों, आतंकियों और असामाजिक युवाओं की सेना खड़ी कर रहे हैं।
पृथ्वी के भोगोलिक और भौतिक असन्तुलन को तो प्रकृति पर विद्यमान सनातन धर्म चक्र स्वमेव सन्तुलित कर देगा लेकिन जिस दिन मानव ने मानसिक सन्तुलन खो दिया, उस दिन बेरोजगारों, आतंकियों, साम्प्रदायिक पागलों और निकम्मों का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा क्योंकि उनका तो पहले से ही बिगड़ा हुआ है, लेकिन आप लोग जो आर्थिक सत्ताओं, राजनैतिक सत्ताओं और साम्प्रदायिक सत्ताओं पर बैठे हैं! आपके ये ताश के महल जब धरासाही होंगे, उस समय आपकी स्थिति क्या होगी ? इस पर जरा धेर्य पूर्वक विचार कर लेवें और वैचारिक आन्दोलन को गम्भीरता से लेवें, ताकि आपकी सत्ताऐं भी अक्षुण बनी रहे और पृथ्वी पर मानव मात्र ही नहीं जीव मात्र फूले फले ।
आपको क्या चाहिये ?
मुद्रा, करेंसी, वित्त, सोना सभी कुछ मिलेगा अभी जितना है उससे अधिक मिलेगा, जो मिलेगा स्थाई मिलेगा।
बेरोजगारी क्या होती है ? और इन बेरोजगारों का क्या किया जाये ? ये सभी समस्याऐं समाप्त हो जायेंगी, बस सिर्फ इतना ही करना है कि धरती पर उपजने वाला सोना अधिक से अधिक उपजे, सोना उपजाने वालों की सम्पन्नता स्थाई हो ताकि उनकी क्रम क्षमता बनी रहे।
जब उनकी क्रय क्षमता बढ़ेगी और फिर बनी रहेगी तो आपके उद्योग और व्यापार भी खूब फलेंगे फूलेंगे । आपका भी हित होगा और धरतीपुत्रों,भूमिपुत्रों का भी हित होगा । देवों, रक्षसों एवं यक्षों का भी हित होगा और ब्राह्मणों ( शिक्षकों ) एवं क्षत्रियों ( कृषी उत्पादकों ) का भी हित होगा । वनों में रहने वाले प्राकृत जनों का भी हित होगा और एक सर्व-कल्याणकारी स्थिति बनेगी जबकि अभी तो सभी दृष्टिकोणों से अकल्याणकारी है । कोई स्थिति प्रिय है तो उचित नहीं है और इच्छित है तो हितकारी नहीं है।
ॐ तत सत
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