आत्म-कथन:- जो विचार अपने आप ही अपने आप में पैदा होते हैं उन्हें ब्रह्म का आत्मभाव कहा गया है| यह निजी[आन्तरिक] व्यक्तित्व की रचना प्रक्रिया होती है। इसके लिए ‘‘सृजाम्-अहम्‘‘ शब्द का उपयोग होता है। चुंकि ये विचार होते हैं जो काल से अतीत[सर्वकालिक] होते हैं। अमरता दिलाने वाले ये भाव,उस ब्रह्म से सम्बन्ध रखते हैं,जो परम्ब्रह्म सर्वत्र और सर्वकालिक है तथा सबके अन्दर-बाहर एक ही है फिर भी सभी में विषिष्ट दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक का आत्म-भाव अतुलनीय[यूनीक] दिखाई देता है
जीवनी :- जीवन काल में बँधी स्वभाव[स्व के भाव] की वह प्रकृति जो स्वभाव से स्वभाव के परस्पर टकराने से पैदा होती है और जो प्रतिस्पर्धा में धकेलती है। यह प्रकृति दो भागों के परस्पर योग से बनती है और फिर अनेक वर्गो में आगे से आगे वर्गीकृत होती है।
1. शरीर का वंश, जो जीन[आनुवांशिक,वंशानुगत गुण सूत्रों] से बना होता है; जो कि व्यक्ति की शारीरिक कार्यक्षमता का स्तर बनाता है। अतः जीवनी में पहला परिचय होता है कि आप किस क्षेत्र में किस जाति एवं परिवार में पैदा हुए।
2. देही,जो कि स्वयं के शरीर में स्व का भाव[स्वभाव,अध्यात्म का स्तर] पैदा करने वाली प्रवृति है जो कि व्यक्ति में श्रद्धा[मानसिक सामर्थ्य] पैदा करती है। यह मानस, व्यक्ति के आत्म से जुड़ा हुआ होता है। अतः इसे अधि-आत्म[अध्यात्म] कहा गया है। यही अध्यात्म/स्वभाव/मानसिकता इत्यादि, व्यक्ति को शिक्षा एवं दीक्षा के वर्गीकृत विषयों में बाँधता है और व्यक्ति को प्रतिस्पर्धा में धकेलता है।
इस तरह जीवनी में दूसरा परिचय होता है कि अभी आप किस जाति का Job कर रहे हो और उस प्रक्रिया में आपने किस-किस प्रतिस्पर्धा को कब-कब जीता और अब आप कहां पर प्रतिष्ठित हैं। शरीर और देही दोनों के योग को देह कहा गया है। इस देह के जीवनकाल का वह घटनाक्रम जो काल खण्डों में बँटा होता है, उसे जीवनी कहा गया है।क्रमशः ....लेखन का सार्वभौमिक उदेश्य !
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