सम्माननीय पाठक !

नमस्ते !

{ नः मः अस्ते अर्थात [आपके बिना और आपके सामने भी ] मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। }

बात सारगर्भित भी है तो कुछ लम्बी-चौड़ी भी है अतःबात को संपादित करके कहने हेतू अभी 10 ब्लोग बनाए हैं.

"GISM" नामक इस ब्लॉग को केन्द्र में रखें और यहीं से पढ़ना शुरू करें।

देवर्षि नारद के तीन ब्लॉग में से

"सामाजिक पत्रकारिता" में जातीय व् साम्प्रदायिक संरचना को विस्तार से बताने पर लेखन केन्द्रित रहेगा।

"नैतिकता की राजनीति" में लेखन पौराणिक,प्राचीन तथ्यों एवं प्रकृति निर्मित संविधान,क़ुदरत के क़ानून,Nature Created Constitution,Laws of natural order of things पर केन्द्रित रहेगा।

"निर्दलीय राजनैतिक मंच" में लेखन वर्तमान की समसामयिक बातों पर केन्द्रित रहेगा।

इन तीनों ब्लॉग्स को आप "कला संकाय" [Faculty of arts] के विषयान्तर्गत पढ़ें।

"मुनि वेदव्यास" के चारों ब्लॉग को धर्म एवं विज्ञान के विषयान्तर्गत पढ़ें। धर्म को अपने आप के प्रति कर्तव्य एवं अधिकार के रूप में लें और विज्ञान को आयुर्विज्ञान के अंतर्गत लें।

इन चारों ब्लॉग्स को "दर्शन एवं विज्ञान संकाय" [Faculty of Philosophy and Sciences] विषयान्तर्गत पढ़ें।

"प्रणय विज्ञान" नामक "कार्तिकेय" के ब्लॉग को "वैवाहिक जीवन और नैसर्गिक आनंद" विषयान्तर्गत पढ़ें।

अंतिम चरण का ब्लॉग है "भव्य महा भारत निर्माण" ! इस ब्लॉग को "अर्थशास्त्र संकाय" [Faculty of Economics] विषयान्तर्गत पढ़ें। लेकिन चूँकि यह ब्लॉग "सांख्य और सांख्यिकी" [Principle Knowledge and Statistics] तक सीमित नहीं है बल्कि साँख्य का योग-प्रयोग-उपयोग [Experiment &-Applying to use] करना है अर्थात "व्यावहारिक धरातल [Practical Ground] पर नव महा भारत का निर्माण" करने हेतु पढ़ें।

इस तरह प्रथम चरण में हमें ज्ञान मार्ग से ध्यान मार्ग [Meditative Concentration via Knowledge path] से चलना है अतः सात्विक-बुद्धि,बोद्धिसत्व का उपयोग करके बुद्धि के देवता को काबू में करना है तब फिर फ़तह ही फ़तह है। फ़ारसी में कहा है 'हिम्मते मर्दां मददे ख़ुदा'। अतः प्रथम चरण में अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट करके,अपने आप में आत्मविश्वास बढ़ाने के कार्य से प्रारम्भ करें और पृथ्वी पर पुनः स्वर्ग बसाने के कार्य का श्री गणेश करें। अगले चरण स्वतः बढ़ते चले जायेंगे। बस नीयत होनी चाहिए नियति स्वतः लक्ष्य तक अवश करके धकेलती हुई पहुँचा देगी।

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य है जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

17. उत्तिष्ठ पार्थ !


आज भारत एक राजनैतिक संकट में फंस गया है और फंसते ही जा रहा है। ऐसा क्यों हो गया है और क्यों हो रहा है ?

एक तरफ तो दलीय राजनीति के कारण अनेकानेक दल बन गए और राजनीति,संसद,विधानसभाएं दल-दल का रूप ले चुके हैं तो दूसरी तरफ सभी दलों के हाईकमान छिछोरे तानाशाह बन गए हैं। भयानक उठा पटक चल रही है। यदि यही स्थिति बनी रही तो भारत को निकट भविष्य में आर्थिक,सामाजिक,सामरिक संकटों की चपेट में आने से बचाना मुश्किल हो जाएगा। अब आपका मतदाता धर्म यह बनता है कि आप  विद्यार्थी आन्दोलन के माध्यम से राष्ट्र को इस संकट से मुक्त कराएं।

आपको इस आन्दोलन में विशेष कुछ नहीं करना है। बस इतना ही करना है कि एक ऐसा वातावरण बनाना है जिसमें तीन काम हों।

    1.निर्दलीय राजनीति में आने के लिए ईमानदार,समझदार और आत्मविश्वास से भरपूर नवयुवा आगे आयें।
    2.मतदाता सिर्फ निर्दलीय और अपने-अपने क्षेत्र के स्थायी निवासी को ही चुनें।
    3.एक ही चुनाव क्षेत्र से जो-जो व्यक्ति आगे आयेंगे उनमें से चुनाव में तो एक ही व्यक्ति खड़ा होगा पायेगा लेकिन चुनाव के पहले और बाद में हमेशा सभी मिलकर अपने ज़िले और तहसील के विकास के लिए एकजुट होकर काम करें।
    यह काम आप बिना किसी विषमता में फँसे, दैनिक कार्यों में लगे हुए कर सकते हैं। 

यहाँ मैं उत्तिष्ठ भारत नहीं पार्थ का आह्वान कर रहा हूँ,अर्थात सभी पृथ्वीपुत्रों का अतः उन सभी विद्यार्थियों से भी कहना है जो विश्वभर में फैले हैं। भारत यदि बर्बाद हो चुका होगा,भले ही भारतीयों के कारण ही हो,तब भी वैश्विक स्तर पर सभी का नुकसान होगा। क्योंकि तब विश्वभर में आर्थिक संकट के कारण के परिणाम स्वरूप होने वाले गृहयुद्धों और तीसरे और इस कल्प के अन्तिम विश्वयुद्ध की त्रासदी से विश्व को सुरक्षित बचाने वाला कोई भी नहीं होगा। क्योंकि विश्वभर में भारत ही एक मात्र ऐसा राष्ट्र है जो देश के देशी लोगों की सेना द्वारा सामरिक रूप से सुरक्षित है। अन्य सभी राष्ट्रों के सैनिक मात्र नौकरी के लिए सेना में भर्ती होते हैं जबकि श्रीराम,बलराम और परशुराम का भारत सामरिक रूप से सुरक्षित होकर ग्रामीणों वाले गणराज्य और वर्षावनों वाले भारतवर्ष की अर्थव्यवस्था के कंधे पर सुरक्षित बैठा इतरा रहा है। 



इस इतराने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अभी अभी भारत के प्रधानमंत्री जब यूरोप व् अमेरिका की खस्ता हालत में भारत को नुक्सान पहुँचाकर भी उनको आर्थिक मंदी से उबारने का समझोता करके,या आश्वासन दे कर  मीटिंग से बाहर निकलते हैं पत्रकारों से मिलते है तो अपनी बेशर्म हार को भी जीत मानते हैं और विक्ट्री के संकेत वाले आकार में दो अंगुलियाँ चौड़ी करके जीत का संकेत देते हैं और संसद में कभी भी नहीं मुस्कुराने वाले  अपने अमेरिकी आकाओं को खुश करके, राफाँ चौड़ी करके मुस्कुराते हैं। क्योंकि भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जिसकी भूमि धन उपजाति है अतः हम समझोते के अनुसार अपनी मुद्रा का अवमुल्यन करके,महँगाई बढाकर भी अमेरिका और यूरोप को एक ऐसे आर्थिक संकट से निकालने का भरोसा दिला देते हैं जो आर्थिकसंकट कभी भी दूर नहीं हो सकता। क्योंकि उनका अर्थशास्त्र निर्माण पर चलता है उत्पादन पर नहीं। अतः इसे इतराना ही कहा जायेगा।


वैश्विक आन्दोलन बनाकर विश्व का समर्थन मांगने के दो कारण है एक तो यह की भारतीय विद्यार्थी भी इतने अधिक हीन भावना से ग्रसित हैं कि विश्व जनमानस का दबाव पड़ेगा तो वे आत्मविश्वास में आयेंगे। दूसरा कारण है यह पूरी परियोजना उत्पादन के अर्थशास्त्र पर है और यह हमेशा ध्यान में रहे कि निर्माण के लिए कच्चामाल प्राकृतिक उत्पादन ही होता है, अतः भारत विश्व को ऐसा उत्पादन निर्यात करेगा, जो आहार की आवश्यकता की पूर्ति भी करेगा तो औद्योगिक इकाईयों के लिए कच्चामाल भी उपलब्ध कराएगा और चूँकि भारत जनसख्या [उपभोक्ता संख्या] के मामले में भी विश्व का ऐसा सबसे बड़ा देश बनेगा जिस के ग्रामीणों की क्रयक्षमता भरपूर होगी अतः औद्योगिक इकाईयों में निर्मित सामग्री का भरपूर आयात करेगा अतः भव्य महाभारत निर्माण का यह आन्दोलन वैश्विक हित में होगा।   



जो वर्तमान का विद्यार्थी होता है वह निसन्देह भविष्य का ब्राह्मण यानी Brain of society होता है, लेकिन वर्तमान की व्यवस्था में आप भविष्य के शुद्र [नोकर] अथवा दास [वेतनभोगी बंधवाँ मजदूर] अथवा किसी यक्ष के अनुबंध में बंधकर यानी किसी व्यापारिक मालिक के लिए दिनरात काम करते रहने वाले भूतगण इत्यादि ही तो बनने जा रहे हैं। जबकि भारत ही धन उपजाने वाला एकमात्र ऐसा देश है जो एक ऐसी व्यवस्था बनाने में सक्षम है जिस व्यवस्था में सभी साधारण एवं विशिष्ट,व्यक्ति हों अथवा समुदाय,स्व का तन्त्र बनाकर स्वतन्त्र और स्व के अधीन रह कर,स्वाधीन होकर, आत्म-संतुष्टि,कार्य-संतुष्टि और कल्याणकारी कार्यों को करने वाले ब्राह्मण बन कर सुख से रह सकते हैं। 


ऐसी स्थिति में क्या? आपको यह नहीं सोचना चाहिए कि,भारत को विदेशी प्रशासन से स्वतन्त्र कराने वालों ने जो संघर्ष  किया उस संघर्ष की तुलना में आपका यह संघर्ष तो कुछ भी नहीं है कि आपको आपस में मिलकर अपने क्षेत्र का स्वतन्त्र,निर्दलीय,दलदल से मुक्त रहने वाला,सही मायने में, जनप्रतिनिधि चुनना है।


लेकिन इसके समानान्तर एक दूसरी सच्चाई भी है कि परस्पर भाईचारे के साथ सृजनात्मक कार्य करने के लिए धेर्य + उत्साह + समन्वय त्रिआयामी गुण चाहिए जबकि मात्र विरोध करने के लिए तो, मात्र आवेश से ही काम चल जाता है अतः डगर सरल होते हुए भी कठिन दिखाई देती है और नजदीक होते हुए भी दूर दिखाई देती है।


अतः यदि आप विद्यार्थियों के लिए राजनेताओं की तरह सुख की परिभाषा; परस्पर आलोचना करना,एक दूसरे को नीचा दिखाना और परपीड़क Sadistic बनना ही है तब तो आप इस व्यर्थ प्रतिस्पर्धा वाली शिक्षा-परीक्षा प्रणाली में लिप्त रहें लेकिन यदि आप अपना और अपनी संतति के भविष्य को सुरक्षित,संरक्षित और आनंददायक बनाना चाहते हैं अर्थात अपने भावी जीवनकालों को आनन्ददायक बनाना चाहते हैं तो इस आन्दोलन को भी आनंद के साथ लक्ष्य पर पहुँचाने का पराक्रम दिखाएँ।यदि आपने यह सोचकर इसकी अवहेलना की कि हमें अपनी पढाई में ध्यान देना है राजनीति के दलदल में नहीं जाना है तो मानकर चलें कि राजनीति का यह दलदल पूरी सभ्यता संस्कृति को ही दलदल बना देगा।  


2014 के आगामी आमचुनावों में आप [विद्यार्थी समुदाय] ही एकमात्र आशा की किरण हैं जो भारतीय संसद को दलदल मुक्त कर सकते हैं। यदि समय रहते सजग नहीं हुए तो नारकीय जीवन जीने को तैयार रहें। 

  
उत्तिष्ठ पार्थ !

हे पार्थ [पदार्थ से बना पार्थिव शरीर] उठ खड़ा हो जा!

चारों तरफ विषमता, तुम सम लिए पड़े हो। 
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ?
युवा हो,बौद्धिक बल है, जीवन पड़ा है बाक़ी। युग है प्रजातंत्र का, तुम खामखाँ डर रहे हो।
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ?
धरती भरी है सुख साधनों से, सिर्फ अव्यवस्था के कारण, अभाव भुगत रहे हो।
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ?
मुद्रा तो व्यवस्था का मानवनिर्मित है साधन , तुम्हारे पास बुद्धि है, प्रकृति के अनुग्राही हो 
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ?
उपयोग करो बुद्धि का, प्रयोग करो संपर्कों का, संगठित हो जाओ युवाओं, क्यों देर कर रहे हो ?
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ?
धर्म करो धारण, साथ में लो शिक्षा, किनारे करो साम्प्रदायिक गुरुओं को।
भगवान् के नाम पर क्यों शैतानों से डर रहे हो !
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ?
शास्त्र कहते हैं, अधिकार के लिए, शस्त्र उठाना धर्म है तुम्हारा।
Ballot से  Bullet को नीचा प्रमाणित कर दो
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ? 


रविवार, 12 अगस्त 2012

16e. सनातन धर्म का संरक्षण ! Protection of Ecology [Sanatan Dharma Chakra].


    सनातन धर्म दो परम्पराओं के परस्पर सन्तुलित रहते हुए समानान्तर विकास करने का नाम है।
 1. ब्रह्म परम्परा    2. वेद परम्परा
     ब्रह्म परम्परा कहती है, चौरासी लाख पशुयोनियों से क्रमिक विकास को प्राप्त होकर विकसित हुए मानव को अपने ब्रह्म[ब्रेन] को इतना विकसित करना चाहिये कि वह ब्राह्मण बने।
    इसी के समानान्तर वेद परम्परा कहती है कि जीव प्रजातियों में भावों का परस्पर पर्याप्त आदान-प्रदान हो ताकि 1.वनस्पति-साम्राज्य   2. पशु-साम्राज्य   3. मानव-साम्राज्य ; तीनों एक साथ रहकर वसुधैव- कुटुम्बकम बनकर सभी अपनी वंश वृद्धि करें और अपने वंश को अधिकाधिक उत्तम नस्ल का बनाएं ताकि  प्राकृतिक प्रक्रिया में आने वाले प्रत्येक अवरोध को सहन कर सके, सामना कर सकें और अपनी-अपनी प्रजाति को विलुप्त होने से बचा सकें।
     आप ब्रह्म परम्परा को धर्म के नाम से जानते हैं और वेद परम्परा को विज्ञान के नाम से जानते हैं। ये दोनों एक दूसरे की पूरक हैं जो समाज इनके अद्धैत आचरण को द्वैत बना देता है वह मूर्खों तथा धूर्तो की दो शाखाओं में विभाजित हो जाता है तब मूर्खों के शोषित एवं धूर्तों के शोषक वर्ग के रूप में विभाजित इस दोगले समाज का चमत्कारिक रूप से विकास तो होता दिखाई देता है लेकिन जल्द ही विनाश होकर धराशायी भी हो जाता है।
       तब बचता कौन है! जो सक्षम होता है! 'fittest survives.'
       अतः अपने अस्तित्व की रक्षा करने हेतु सक्षम होना धर्म एवं विज्ञान का आत्म-कल्याण के लिए  निजी उपयोग है और पूरे मानव-समाज को सक्षम करना धर्म एवं विज्ञान का सर्व-कल्याण हेतु सार्वजनिक उपयोग है।
    मानव समाज का वैभव तभी स्थायी रह सकता है जब वह वर्ग संघर्ष से मुक्त होने के लिए वर्गीकृत होकर रहे। इसी तथ्य को गीता में वैज्ञानिक तरीके से बताया है। मैं उसकी मात्र व्याख्या कर रहा हूँ अतः जो व्यक्ति भाव में आकर मुझ से राग अथवा द्वेष रख कर मुझे स्वीकार करते हैं अथवा विरोध करते हैं उनसे यही कहना है कि ये गीता में लिखा है मेरे निजी विचार नहीं हैं। और जो धर्म के नाम पर किसी भाषा विशेष की पुस्तक को साम्प्रदायिक समझता है उनसे कहना है कि ये विचार मेरे अपने अंदर स्वतः पैदा हुए हैं गीता का उपयोग तो सिर्फ इन विचारों को प्रामाणिक बनाने के लिए कर रहा हूँ।

16d.यह 'सनातन धर्म' का मामला है ! It is a matter of responsibility and the rights.


    हिंसा-अहिंसा, आस्था, श्रद्धा, संस्कार इत्यादि अनेक शब्द हैं जिनका विशेष वर्गों ने पेटेण्ट करा रखा है जबकि सच्चाई यह है कि अनेक विद्वान इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करते हैं फिर भी इन शब्दों का उपयोग यथा-अर्थ में नहीं किया जाता। इसी तरह संस्कृत भाषा की शब्दावली का एक शब्द है 'सनातन धर्म'।
     सनातन अर्थात् बिना लोप हुए,निरन्तरता लिये हुए चलने वाला धर्म। सनातन धर्म शब्द का शब्दार्थ है  non dis-continuous, बनी रहने वाली गुण-धर्मिता। वैज्ञानिक शब्दावली के लेटिन में इसको इकोलोजीकल  सिस्टम Ecological Cycle System और हिन्दी में पारिस्थितिकी-चक्र-सृष्टम कहा गया है। संस्कृत के अनेक धार्मिक-वैज्ञानिक शब्दों की तरह सनातन शब्द का भी कोई पर्यायवाची शब्द नहीं है। इसके अनेक पूरक शब्दों में पर्यावरण भी एक पूरक शब्द है जो इसका आंशिक अर्थ दर्शाता है।
     सनातन धर्म के संरक्षण के तीन तात्पर्य या तत्वार्थ हैं।

आध्यात्मिक तात्पर्य:- मानव चाहे कितना ही पतित और स्वार्थी हो जाये, आपस में लड़ने-झगड़ने लग जाये और युद्ध के माध्यम से सामूहिक आत्महत्या कर ले फिर भी वह बिना किसी सामाजिक ढ़ाँचें के रह नहीं सकता। मानसिक रूप से मानव इतना दुर्बल है कि वह आपसी सम्बन्धों के बिना नहीं रह सकता। जब ऐसा है तो मानव को चाहिये कि वह एक वर्गीकृत व्यवस्था पद्धति को अपनाये और परस्पर मान-सम्मान देते हुए जीवन का आनन्द ले। 
वर्तमान में यदि मानव ऐसा नहीं करता है और मनुष्य योनी में होते हुए भी श्वान योनी की तरह एक दूसरे पर गुर्राने,भोंकने,चिल्लाने का आचरण अपनाए हुए रहता है और आयुधों का निर्माण कर एक दूसरे से लड़कर मरता हैं तब भी युद्ध के समाप्त होने पर बचे हुए मानवों को अक्ल आयेगी तब वो प्रेम एवं भाईचारे से पुनः रहना शुरू कर देंगे। प्रेम एवं भाईचारा ही तो हमारा सनातन चरित्र है।
आधिदैविक तात्पर्य:- प्रकृति ने अर्थात् देवी शक्ति ने जिस पारिस्थितिकी[ईकोलोजी] को बनाया है उसके साथ सन्तुलन रख कर चौरासी लाख जीवयोनियों में बँटी प्रजा की प्रत्येक प्रजाति को अपनी वंशवृद्धि करने में सहयोग दे, उनका संरक्षण, संवर्धन करे अपनी भी वंशवृद्धि करे और सुन्दर से सुन्दर जीवन जीने का तरीका यानी विद्या अपनाये। जबकि आज हम दवाईयों के बल पर रिस-रिस कर जीने वाले, औसत आयु बढ़ने का भ्रम भले ही पाल लें l लेकिन इस सच्चाई को नकार नहीं सकते कि हम शक्तिहीन और वीर्यहीन [बलहीन] होते जा रहे हैं। 
आधिभौतिक तात्पर्य:- ईकोनोमिक्स को ईकोलोजी[फोरेस्ट ईकोलोजी एवं एग्रीकल्चरल ईकोलोजी] के माध्यम से पैदा होने वाले प्राकृतिक उत्पादन के आधार वाली अर्थव्यवस्था का रूप दे और भौतिक सुख साधनों के समान वितरण की ऐसी पद्धति अपनाये जिसमें एक दूसरे की आवश्यकता पूरी हो अर्थात् एक दूसरे की पूरक रहे ना कि परस्पर शोषक बनें। 
उपर्युक्त तीनों स्तरों पर सनातन धर्म की हानि तब होती है जब मानव सभ्यता मात्र सभ्यता रह जाती है और मूल संस्कृति नष्ट हो जाती है। जैसे कि पान के पत्ते का सेवन करने के लिए मसालों का उपयोग किया था लेकिन पान गायब हो गया मसाले रह गए और वे भी अपयोग बन कर, इसी तरह संस्कृति का अर्थ हो गया भूतकाल के भूत को अपनी मानसिकता पर हावी कर लेना, ऐसा इसलिए होता है क्यों कि मानव कामार्थ Commercial ढ़ाँचे को स्थापित कर लेता है।
यह उत्थान-पतन[उठा-पटक] क्या है, क्यों होता है मूल ढाँचा क्या था जो सनातन है और पुनः पुनः स्थापित होता है! इत्यादि अनेक प्रश्नों  के उत्तर खोजने के प्रयास में मैंने जैसा समझा है वह संक्षिप्ततम शब्दों में तथा अनेक आयामों से बताने का प्रयास कर रहा हूँ।
क्रुरान में सबसे ऊपर लिखा है ‘‘इस किताब में शंका करने की कोई गुँजाईश नहीं है‘‘।
इसी तरह बुद्ध ने अपने अनुयाईयों से कहा था कि ‘‘जितना मैंने जाना है वह सत्य है। इसको आस्था से ग्रहण करो। इसके बाद भी अनेक सत्य हैं उन्हें खोजो‘‘।
जबकि गीता में कहा ‘‘हे अर्जुन! मैने तुम्हें अशेषेण बता दिया है। अब तुम्हें क्या करना है, क्या नहीं करना है, इसका निर्णय तुम स्वविवेक से करो‘‘।
   अशेषेण के दो अर्थ होते हैं। 1. कुछ भी शेष नहीं छोड़ा सब कुछ बता दिया। लेकिन इस छोटेसे आख्यान में सब कुछ बताने का अर्थ है संक्षिप्त में,सारगर्भित,शब्दकोशीय भाषा में बताना। 2. अतः दूसरा अर्थ है Endless. यानी  कितनी ही विस्तृत व्याख्या करते जाओ कभी समाप्त नहीं होगी अतः अपनी बात को प्रामाणिकता देने के लिए मैं गीता को केन्द्रीय भूमिका में रख रहा हूँ।
मैंने गीता पर व्याख्या लिखी है। अन्य अनेक स्थापित विद्वानों ने भी लिखी है। लेकिन बाकी सभी व्याख्याऐं भाषा विशेषज्ञों ने लिखी हैं। उन्हीं के शब्दों में ‘‘गीता में जीव-आत्मा और परमात्मा के बीच का सम्बन्ध बताया गया है‘‘।
अब यहाँ एक तथ्य सीधा-साधा एवं स्पष्ट है कि जिसने जीव-विज्ञान को गहराई से नहीं जाना वह जीव-आत्मा के विषय को तथ्यात्मक और तर्क संगत[लोजीकली,बायोलोजीकली] कैसे समझ सकता है।
इसी तरह गीता के बारे में अनेक विद्वान कहते हैं कि गीता कर्म का सन्देश देती है लेकिन जिस व्यक्ति ने गीता की व्याख्या काम एवं अर्थ की गणित से की है वह कर्म के मूलार्थ को कैसे समझ सकता है !
गीता एक राजा,एक रक्षक,एक क्षत्रिय,एक गृहस्थ को कही गई है। जिसने गृहस्थ जीवन त्याग दिया और भिक्षा के अन्न् पर ऐश्वर्य भोग रहा है वह गीता के कर्म विषय की व्याख्या कैसे लिख सकता है !
गीता हो या अन्य शास्त्र, इनमें जो भी बातें कही गई हैं वे सभी बातें मानवीय स्तर की हैं अतः इन्हें साम्प्रदायिक एवं राष्ट्रीय मनोभावना के सीमित दायरे में बाँध कर कैसे समझा जा सकता है !
गीता में जैसे अशेषेण लिखा है वैसे ही गीता सदैव प्रासंगिक है। इसे पाँच हज़ार वर्ष पूर्व हुई एक ऐतिहासिक घटना के परिणामस्वरूप कही जाने के रूप में समझ कर वर्तमान काल-स्थान-परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में इसकी प्रासंगिकता को कैसे समझा जा सकता है !
   अभी-अभी रूस की सरकार ने गीता पर बेन लगाया तो आपने इसमें अपमान महसूस किया। यदि इस अपमान से बचना है तो इस एक मात्र विश्वकोश को भारत की धरोहर नहीं मानकर वैश्विक-शिक्षा-विभाग की धरोहर माननी चाहिए और इस तरह का अपमान भविष्य में नहीं हो इसके लिए भारतीयों को आगे आकर 'यथार्थ गीता' "gita as it is.' पढ़ना चाहिए तब आपको पता चलेगा कि इसमें कितनी कट्टरता, कितना पूर्वाग्रह,कितनी अतिवादिता भरी है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि इसमें गीता को वर्तमान के लिए अप्रासंगिक बता दिया गया है। मैं भी कहता हूँ इस तरह के अनुवाद का भारतीय मनीषी वर्ग स्वं आगे आकर विरोध करें।
गीता एक अशेषेण आख्यान है अतः इसे निष्पक्ष एवं समग्र दृष्टिकोण से समझना सिद्धान्ततः सत्य हो सकता है लेकिन गीता में यह भी लिखा है कि -
‘‘हे अर्जुन सांख्य[थ्योरी, प्रिसिपल, सूत्र, समीकरण, आंकड़ों] का तब तक कोई महत्व नहीं है जब तक सांख्य का योग[प्रयोग,उपयोग, व्यवहार में लाना,आचरण में ग्रहण करना] नहीं हो। बिना योग के सांख्य का जानकार उल्टा दुःखी हो जाता है जबकि योग[प्रेक्टिकल अभ्यास] में लगा हुआ एक योगी[योग्य व्यक्ति] स्वतः सांख्य का जानकार हो जाता है।
अब जब मैंने गीता के सांख्य को जाना है तो उसका उपयोग करना मेरा कर्तव्य भी और अधिकार भी हो जाता है। इसी कर्तव्य एवं अधिकार से बनने वाले धर्म की पालना करने हेतु मैं तब से लगा हूँ जब से मैने निर्णय किया।
इस सन्दर्भ में मैंने दो कार्य करने का प्रयास किया। एक तो यह कि सनातन धर्म के योगशास्त्र गीता की व्याख्या लिखी है जिसके साथ एक दुखान्तिका घट गई। जो पूर्वाग्रहों से ग्रसित लोग हैं उन्हें मेरी भाषा शैली पसन्द नहीं आई और जिस प्रबुद्धवर्ग के लिए यह पुस्तक लिखी गई वह वर्ग गीता को हाथ ही नहीं लगाता है। एक तो कारण यह है कि यह प्रबुद्ध वर्ग धर्म नाम से ही ऊकचूक हो जाता है और दूसरा कारण है वह हिन्दी में है। उनकी दृष्टि में हिन्दी में स्तर की चीज नहीं लिखी जा सकती।
अब इस ब्लॉग श्रंखला के माध्यम से मैं सांख्य के रूप में तो गीता की पुनः नये तरीके से व्याख्या करूँगा तथा योग के रूप में मैं अपने जीवन काल में पाँच किलोमीटर लम्बा पाँच किलोमीटर चौड़ा अर्थात् पच्चीस वर्ग किलोमीटर का एक गांव बसाना चाहता हूँ ताकि प्रत्यक्ष बता सकूं कि सनातन धर्म का स्थूल रूप क्या है! सर्वकल्याणकारी सामाजिक-आर्थिक ढाँचा कैसा होता है! सार्व-भौतिक उद्धेश्य की पूर्ति से मेरा तात्पर्य  है कि स्वर्ग कैसा होता है यह भूमि पर उतार कर बताना।
उपर्युक्त तीन धार्मिक उद्देश्यों में सभी धार्मिक उद्देश्य यानी शैक्षणिक उद्देश्य आ जायेंगे।

16c. धर्म एवं विज्ञान की तर्क संगत एवं तथ्यपरक जानकारी देना ! Religion sense and science information to be logical and fact oriented !


     धर्म एवं विज्ञान दोनों जीवन रूपी सिक्के के दो पहलू हैं और एक दूसरे के पूरक हैं। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए आवश्यक है कि हम दोनों का अलग-अलग अध्ययन नहीं करके एक साथ अध्ययन करें साथ ही आप देखेंगे कि किस तरह संस्कृत शब्दावली के एक ही शब्द से अन्य भाषाओं में दो अलग-अलग शब्द बने हैं जो उच्चारण दोष या कहें अपभ्रंश उच्चारण के परिणामस्वरूप बने हैं।
    भारतीय सभ्यता-संस्कृति की जिस ऊंचाई पर आप गर्व करते हैं; वह अभी तक एक काल्पनिक भ्रम है। जबकि इस ब्लॉग श्रृखला का यह उद्देश्य यह भी है कि आप यह प्रमाणिक रूप से बता सकेंगे कि भारत विश्वगुरू क्यों और कैसे था !
    इस विषय पर दो वर्ग बन गये हैं। एक वर्ग है जो सत्य जाने बिना ही राग-अनुराग से ग्रसित होकर एक बेसुरा राग अलापता है कि हमारी संस्कृति सर्वोच्च है,हमारी संस्कृति सर्वोच्च है,हमारी संस्कृति सर्वोच्च है। इस कारण दूसरा एक वर्ग द्वैष भाव रखने वाला पैदा हो जाता है वह भी सच्चाई जानने का इच्छुक हुए बिना ही पहले वर्ग को मूर्ख,साम्प्रदायिक,अतिवादी,कट्टरवादी इत्यादि कहता है। अब सच्चाई यह है कि ऐसा करने वाला दूसरा वर्ग सही कहता है क्योंकि जो पहला वर्ग अपनी सांस्कृतिक अवधारणाओं को जाने बिना आंखे बन्द किये हुऐ सिर्फ एक ही राग अलापता है उसको प्रतिकात्मक वाक्य में कहें तो वह कहता है ‘‘झण्डा ऊँचा रहे हमारा‘‘।
    इस ब्लॉग श्रृंखला के माध्यम से यह बताने या जताने का प्रयास किया जायेगा कि भारतीय संस्कृति क्यों सर्वोच्च है और थी !
    वर्तमान में स्थिति यह है कि एक भारतीय पुराने भवनों, भूतकाल की घटनाओं, उलजुलूल मान्यताओं से बने विभ्रम को संस्कृति समझ बैठा है परिणामस्वरूप संस्कृति यथार्थ से जुड़ा विषय नहीं रह कर भूत-प्रेतों का विषय बन गया है।
     मैं प्रबुद्ध वर्ग से अपेक्षा करता हूँ कि मेरी बात को यथा-अर्थ समझें; Otherwise meaning, अन्यथा अर्थ से न लें और भारत में पुनः सांस्कृतिक समाज व्यवस्था को स्थापित करने में सहभागी बनें, सहयोग दें, नैतिक समर्थन दें !

16b. सभी भाषाओं का प्रचार-प्रसार एक साथ ! Dissemination of all languages ​​at once !

संस्कृत भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, हिंदी भी। चुंकि संस्कृत भाषा संस्कारित भाषा है अतः 
इस में धर्म एवं विज्ञान का मूल साहित्य रचा हुआ है। धर्म एवं विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में शब्दों का अर्थ सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। संस्कृत के शब्दों का अर्थ देवनागरी लिपि तथा हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओँ के माध्यम से जितना स्पष्ट होता है, अन्य विदेशी भाषाओं में सम्भव नहीं है। अतः इस ब्लॉग श्रृंखला का एक उदेश्य अन्य भाषाओं के साथ साथ हिन्दी का प्रचार-प्रसार स्वतः पूरा होता है।
    हिन्दी भाषा एवं देवनगरी लिपि के माध्यम से बताने की मेरी मजबूरी के कारण देवनागरी लिपी एवं हिन्दी भाषा में मैं गीता की व्याख्या कर रहा हूँ अतः स्वतः ही संस्कृतजन्य हिन्दी भाषा का प्रचार होगा।
अतः जो सज्जन हिन्दी के प्रचार-प्रसार के इच्छुक हैं, उनसे अपेक्षा करता हूँ कि वे इस ब्लॉग श्रृंखला  के माध्यम से इस आन्दोलन के प्रचार-प्रसार में सहयोग देंगे। विशेषकर हिन्दी भाषी क्षेत्र के किशोरों एवं नवयुवाओं को पढ़ने के लिए प्रेरित करें।
इसके साथ मैं यह भी चाहता हूँ कि अन्य भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में तथा अंग्रेजी एवं अन्य राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं में भी इसका अनुवाद हो ताकि अन्तर्राज्यीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व की सबसे अधिक संस्कारित तथा प्रथम धार्मिक-वैज्ञानिक भाषा संस्कृत के शब्दों का प्रचार-प्रसार हो। इसका तरीका है अन्य भाषाओं में जब अनुवाद हो तब साथ-साथ में धार्मिक-वैज्ञानिक शब्दावली के मूल शब्द जो देवनगरी लिपि में, संस्कृत के हैं उन्हें उसी रूप में लिखा जाये।
कोई भी सज्जन यदि किसी क्षेत्रीय भाषा एवं लिपी में अनुवाद करने का इच्छुक हो और ऐसा श्रम कर सकता हो तो सम्पर्क करें। ब्लॉग्स में रूपांतरण की सुविधा है लेकिन अन्वय-समन्वय करना आवश्यक होता है। जो विद्यार्थी विद्या का उपयोग समाज हित में करेगा तभी समाज उसे अपना निर्दलीय जन प्रतिनिधि चुनेगा अथवा आप यदि स्वयं सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहें तो आपके समर्थन को वे विशेष दर्जा देंगे।
मेरा मानना है आज नहीं तो कल वैज्ञानिक भाषा के रूप में विश्व में लेटिन के स्थान पर संस्कृत शब्दावली अपनाना आवश्यक हो जायेगा। बस प्रारम्भिक अवस्था में हिन्दी के प्रति श्रद्धा रखने वाले, हिन्दी के प्रति राग-अनुराग रखे बिना और अन्य भाषाओं से द्वेष रखे बिना,सभी भाषाओं में अनुवाद करें,विशेषकर   भारतीय भाषाओं में अनुवाद अवश्य करें और इस आन्दोलन के सहयोगी बनें।

16a.. सार्वभौमिक उदेश्य ! Terrestrial Universal Objectives.


     यह लेखन एक ऐसे उद्धेश्य को लेकर किया जा रहा है जिसे सार्वभौमिक उद्देश्य कहा जा सकता है। सार्व-भौमिक का अर्थ है, इस भूमि पर भौतिक देह के जितने भी उद्धेश्य हो सकते हैं उन सभी उद्देश्यों को एक सूत्र में जोड़ कर सभी समस्याओं का निदान एवं समाधान करना। एक ऐसी अर्थशास्त्रीय अर्थव्यवस्था को स्थापित करना,जिसमें कोई भी व्यक्ति अभावग्रस्त नहीं रहे। व्यक्ति तो क्या; पूरा व्यक्त जगत[जीव-जगत] अभावमुक्त होकर भाव में भावित रहे, न कि अभावों में रहे,जैसा कि वर्तमान में हो रहा है।

     अब यदि, इन उद्देश्यों की सूची बनाई जाये तो सभी उद्देश्यों को तो सूचिबद्ध नहीं किया जा सकता अतः इन्हें तीन वर्गों में वर्गीकृत करके संकेत दे रहा हूँ कि सर्व कल्याणकारी व्यवस्था बनाने यानी सार्वभौमिक उद्देश्य पूर्ति करने हेतू एक मानक व्यवस्था पद्धति बताने और व्यावहारिक एवं प्रेक्टिकल रूप से एक मॉडल बनाकर बनाने के लिये; मैने अपने आप का सृजन किया है|

 उसको स्पष्ट करने के लिए इन सभी उदेश्यों के तीन शीर्षक दे रहा हूँ यानी वर्गीकृत कर रहा हूँ।

(1) सभी भाषाओं का प्रचार-प्रसार एक साथ।
(2) धर्म एवं विज्ञान की तर्क संगत एवं तथ्य परक जानकारी देना।
(3) सनातन धर्म का संरक्षण।

बुधवार, 8 अगस्त 2012

16. सूत्रधार आत्म-कथन ! Narrator's self-narration.


      आत्म-कथन:- जो विचार अपने आप ही अपने आप में पैदा होते हैं उन्हें ब्रह्म का आत्मभाव कहा गया है| यह निजी[आन्तरिक] व्यक्तित्व की रचना प्रक्रिया होती है। इसके लिए ‘‘सृजाम्-अहम्‘‘ शब्द का उपयोग होता है। चुंकि ये विचार होते हैं जो काल से अतीत[सर्वकालिक] होते हैं। अमरता दिलाने वाले ये भाव,उस ब्रह्म से सम्बन्ध रखते हैं,जो परम्ब्रह्म सर्वत्र और सर्वकालिक है तथा सबके अन्दर-बाहर एक ही है फिर भी सभी में विषिष्ट दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक का आत्म-भाव अतुलनीय[यूनीक] दिखाई देता है

     जीवनी :- जीवन काल में बँधी स्वभाव[स्व के भाव] की वह प्रकृति जो स्वभाव से स्वभाव के परस्पर टकराने से पैदा होती है और जो प्रतिस्पर्धा में धकेलती है। यह प्रकृति दो भागों के परस्पर योग से बनती है और फिर अनेक वर्गो में आगे से आगे वर्गीकृत होती है। 

   1. शरीर का वंश, जो जीन[आनुवांशिक,वंशानुगत गुण सूत्रों] से बना होता है; जो कि व्यक्ति की शारीरिक कार्यक्षमता का स्तर बनाता है। अतः जीवनी में पहला परिचय होता है कि आप किस क्षेत्र में किस जाति एवं परिवार में पैदा हुए।

   2. देही,जो कि  स्वयं के शरीर में स्व का भाव[स्वभाव,अध्यात्म का स्तर] पैदा करने वाली प्रवृति है जो कि व्यक्ति में श्रद्धा[मानसिक सामर्थ्य] पैदा करती है। यह मानस, व्यक्ति के आत्म से जुड़ा हुआ होता है। अतः इसे अधि-आत्म[अध्यात्म] कहा गया है। यही अध्यात्म/स्वभाव/मानसिकता इत्यादि, व्यक्ति को शिक्षा एवं दीक्षा के वर्गीकृत विषयों में बाँधता है और व्यक्ति को प्रतिस्पर्धा में धकेलता है।   

   इस तरह जीवनी में दूसरा परिचय होता है कि अभी आप किस जाति का Job  कर रहे हो और उस प्रक्रिया में आपने किस-किस प्रतिस्पर्धा को कब-कब जीता और अब आप कहां पर प्रतिष्ठित हैं। शरीर और देही दोनों के योग को देह कहा गया है। इस देह के जीवनकाल का वह घटनाक्रम जो काल खण्डों में बँटा होता है, उसे जीवनी कहा गया है।

क्रमशः ....लेखन का सार्वभौमिक उदेश्य !