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बात सारगर्भित भी है तो कुछ लम्बी-चौड़ी भी है अतःबात को संपादित करके कहने हेतू अभी 10 ब्लोग बनाए हैं.

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देवर्षि नारद के तीन ब्लॉग में से

"सामाजिक पत्रकारिता" में जातीय व् साम्प्रदायिक संरचना को विस्तार से बताने पर लेखन केन्द्रित रहेगा।

"नैतिकता की राजनीति" में लेखन पौराणिक,प्राचीन तथ्यों एवं प्रकृति निर्मित संविधान,क़ुदरत के क़ानून,Nature Created Constitution,Laws of natural order of things पर केन्द्रित रहेगा।

"निर्दलीय राजनैतिक मंच" में लेखन वर्तमान की समसामयिक बातों पर केन्द्रित रहेगा।

इन तीनों ब्लॉग्स को आप "कला संकाय" [Faculty of arts] के विषयान्तर्गत पढ़ें।

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अंतिम चरण का ब्लॉग है "भव्य महा भारत निर्माण" ! इस ब्लॉग को "अर्थशास्त्र संकाय" [Faculty of Economics] विषयान्तर्गत पढ़ें। लेकिन चूँकि यह ब्लॉग "सांख्य और सांख्यिकी" [Principle Knowledge and Statistics] तक सीमित नहीं है बल्कि साँख्य का योग-प्रयोग-उपयोग [Experiment &-Applying to use] करना है अर्थात "व्यावहारिक धरातल [Practical Ground] पर नव महा भारत का निर्माण" करने हेतु पढ़ें।

इस तरह प्रथम चरण में हमें ज्ञान मार्ग से ध्यान मार्ग [Meditative Concentration via Knowledge path] से चलना है अतः सात्विक-बुद्धि,बोद्धिसत्व का उपयोग करके बुद्धि के देवता को काबू में करना है तब फिर फ़तह ही फ़तह है। फ़ारसी में कहा है 'हिम्मते मर्दां मददे ख़ुदा'। अतः प्रथम चरण में अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट करके,अपने आप में आत्मविश्वास बढ़ाने के कार्य से प्रारम्भ करें और पृथ्वी पर पुनः स्वर्ग बसाने के कार्य का श्री गणेश करें। अगले चरण स्वतः बढ़ते चले जायेंगे। बस नीयत होनी चाहिए नियति स्वतः लक्ष्य तक अवश करके धकेलती हुई पहुँचा देगी।

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य है जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

सोमवार, 16 जुलाई 2012

7 इस क्रांतिकारी आन्दोलन की आवश्यकता क्यों ? एक सकारात्मक सोच का आयाम


       आज हमने भौतिक विज्ञान का जो विकास किया है,वह इस सिद्धांत पर है कि 'आवश्यकता आविष्कार की जननी है'। लेकिन इससे भी बड़ी सच्चाई तो यह है कि हमने अपनी सुख-सुविधाओं के नाम पर और विकास के नाम पर अनेक अनावश्यक साधनों का भी विकास किया है। 
     और इससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि आज अनावश्यक साधनों का निर्माण सुख के साधनों के लिए नहीं बल्कि मात्र मुद्रा कमाने के लिए किया जा रहा है। एक ऐसी मानसिकता विकसित हो गयी है कि दुःख पाकर भी मुद्रा कमानी है ताकि उससे सुख खरीद सकें, अपमानित होकर भी मुद्रा कमानी है ताकि उससे सम्मान और प्रतिष्ठा मिल सके।
     मुद्रा तो व्यवस्था का केन्द्रीय माध्यम मात्र है जो कि आज अव्यवस्था और अराजकता फैलाने का माध्यम बन गया है। लेकिन इसी मुद्रा को संसाधनों तथा मानवीय उर्जा की सुव्यवस्था करने के लिए काम में लिया जाये तो न तो मुद्रा का अवमूल्यन होगा और न ही इतनी भारी मात्रा में मुद्रा की आवश्यकता रहेगी।
     वनवासी-आदिवासी अपनी-अपनी जीवनशैली में खुश रहते हैं लेकिन उन पर दो तरफ़ा मार पड़ रही है। एक तरफ़ तो उन्हें पिछड़ा हुआ और अशिक्षित कह कर मानसिक रूप से दीन-हीन बनाया जा रहा है तो दूसरी तरफ उनके आर्थिक आधार को नष्ट करके उन्हें सभ्य कहे जाने वाले असभ्य नगरवासियों का मोहताज बनाया जा रहा है। यह इसलिए हुआ कि आहार जैसी नैसर्गिक आवश्यकता की तुलना में मुद्रा को आवश्यक आविष्कार के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया है।
     जिस वर्ग को आप हज़ारों वर्षों से शोषित और दलित बता रहे हैं, उनकी इस दुर्दशा का प्रारंभ तो मात्र दो-तीन सौ साल पहले शुरू हुए औद्योगिकीकरण और शहरीकरण की शुरुआत के साथ मुद्रा के प्रचलन के बाद ही हुई है, जो ईस्ट इण्डिया कंपनियों के भारत में स्थापित होने और प्राकृतिक सम्पदाओं के दोहन के बाद अठारहवीं सदी से हुई। लेकिन उससे भी बुरी स्थिति द्वितीय विश्वयुद्ध और भारत की तथाकथित आज़ादी के बाद हुई है।
     अब इसका एक मात्र समाधान है नवभारत में एक तरफ़ इन सभी ग़रीब,अनाथ,दलित,मैला ढोने वाले तथा गंदे कहे जाने वालों को प्राकृतिक उत्पादन से जोड़ कर सभी को पवित्र काम में लगा कर इन्हें मानसिक कुंठाओं से और आर्थिक अभावों से मुक्त किया जायेगा। 
    वे ग्रामीण जो कृषि श्रमिक हैं और अपने कर्म के विषय में कृषि वैज्ञानिकों और पशु चिकित्सकों से अधिक जानकार और अधिक शिक्षित हैं, उस विषय में इनकी योग्यता का उपयोग किया जायेगा तो दूसरी तरफ़ बिना प्लानिंग के फैले पत्थरों के जंगलों की एक भौगोलिक सीमा निर्धारित की जायेगी और आज जहाँ आप तथाकथित पढ़े-लिखे लोग पशुओं से भी बुरी स्थिति में प्रदूषित और अपवित्र शहरों में और तनाव पैदा करने वाले वातावरण में रह रहे हैं उस स्थान पर प्रदूषण से मुक्त,साफ सुथरे व्यवस्थित नगरों का नव निर्माण किया जायेगा।
   तीसरी तरफ़ ऐसी व्यवस्था की जायेगी कि औद्योगिक नगरों की कमाई का निवेश भले ही प्राकृतिक उत्पादन में हो लेकिन गणराज्यों की और वनोत्पादन की आय को वहीं पर पुनर्निवेश किया जायेगा। इस तरह उस आय से शिक्षा और चिकित्सा जैसे कार्य को धार्मिक कार्य के रूप में पुनः प्रतिष्ठित किया जायेगा।यानी... 
 1. इन दोनों विषयों से जुड़े वर्ग को सर्वोच्च प्रतिष्ठित वर्ग में माना जायेगा।
 2. इनको वाणिज्य-व्यापार से मुक्त और निःशुल्क सेवा व्यवस्था में रखा जायेगा। वनक्षेत्र अर्थात धर्मक्षेत्र में ही ये शिक्षण एवं चिकित्सा संस्थान होंगे जहाँ आवास और आहार की शास्त्रीय विधि से व्यवस्था की जाएगी जो कि निःशुल्क होगी।
 3. शिक्षा को मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखा जायेगा अर्थात विषय को थोपा नहीं जायेगा बल्कि रुचि एवं योग्यतानुसार चुनने का अधिकार विद्यार्थी का स्वयं का होगा।
     इस तरह आप 'शहरी बाबू भी सत-चित्त-आनंद के तीनों आयामों का घन फल चख सकेंगे' और 'जो प्रकृति के बीच में रहते है वे भी सुख से रह सकेंगे' और 'नई पीढ़ी को आत्म कल्याण की सुविधा और वातावरण मिलेगा'।

6 एक क्रांतिकारी आन्दोलन की आवश्यकता क्यों ? एक नकारात्मक सोच का आयाम।


           वैसे तो प्रत्येक काल-स्थान-परिस्थिति में विरोधाभास,अंतर्द्वंद्व और विषमताएँ होती हैं क्योंकि शरीर की प्रकृति में गुण सविकार[विकारसहित] होते हैं। इसीलिए अच्छे और बुरे इंसान होते हैं,जिन्हें देव-असुर, इन्सान-शैतान, Evangel-Devil इत्यादि कहा जाता है। अतः हम यह नहीं कर सकते कि अच्छे-बुरे की एक समान परिभाषा सर्वत्र स्थापित कर दें। इसे एक ही संविधान को सभी पर थोपना कहा जायेगा।
         चाहे भारतीय पौराणिक साहित्य लें या एंजिल-बाईबिल में वर्णित घटना लें, दोनों में ही एक समान घटनाएँ वर्णित हैं। भाईयों का बंटवारा होता है। सम्पति को लेकर झगड़ा होता है। एक अच्छा,एक बुरा भाई होता है।
         इसी तरह गीता उपनिषद् का उपदेश लें या फिर क़ुरान में कही बातें लें, कर्त्तव्य के साथ-साथ अधिकार की भी, ईमान के साथ-साथ हक़ की भी बात कही गयी है। हक़ के लिए लड़ना अधिकार होता है।
         बाइबिल-क़ुरान में तथा भारतीय साहित्य में एक मूलभूत अंतर है। यह अंतर ठीक वैसा ही है जैसा आयुर्वेद एवं अन्य सभी चिकित्सा प्रणालियों में है। अन्य सभी प्रणालियों में सिर्फ अस्वस्थ का निदान और उपचार है जबकि आयुर्वेद में स्वस्थ को स्वस्थ कैसे रखा जाए और साधारण प्राकृतिक स्थिति के शरीर को किस तरीक़े से शक्तिशाली और वीर्यवान बनाया जा सकता है,इसके विषय में ही सर्वाधिक लिखा गया है।
         इसी तरह भारतीय पौराणिक साहित्य में उच्च बौद्धिक स्तर के अध्यापकों[ब्राह्मणों], शासकों [क्षत्रियों],आचार्यों[आचरण सिखाने वाले आध्यात्मिक गुरुओं],मुनियों[दार्शनिकों] और वैद्यों इत्यादि को अवधारणा स्पष्ट रखने हेतु गूढ़ ज्ञान बताया है। अर्थ का अनर्थ न हो जाये इसलिए अपात्र को पढ़ने से रोकने के लिए भी कुछ नियम बनाये गए।
   लेकिन जब शिक्षा का स्थान साक्षरता ने ले लिया और साक्षरता का व्यावसायीकरण हुआ और साक्षरता का प्रचार-प्रसार जनसाधारण में हुआ और अध्यापक [ब्राह्मण] और किसान[क्षत्रिय] वाले भारतदेश में तथा वनवासी,आदिवासी परम्परा में आचार्य और श्रावक [श्रोता] वाले भारतवर्ष में बार-बार पण[मुद्रा] का प्रचलन करने वाले पणिये[बणिये] उत्तर-पश्चिम दिशाओं से भारत में आने लगे और वित्त के माध्यम से सत्ता पर क़ाबिज होने लगे और वैश्वीकरण होने लगा तब महाभारत काल में यह वैष्णव साहित्य लिखा गया, जिसमें ब्राह्मण साहित्य और वैदिक साहित्य में तीसरा आयाम अर्थशास्त्र भी जोड़ दिया गया और बहुत ही सरल भाषा मे त्रिआयामी ज्ञान दिया गया।
    तब गीता के गुरु प्रकृति के प्रतिनिधि भगवान के मुख से पूँजीपति व बैंकर के समर्थन में विभूति योग में कहलवा दिया कि  'मैं यक्ष-रक्षसों में वित्तेश हूँ'
    अब आप चाहें तो वैदिक व पौराणिक साहित्य में अनेकानेक स्थानों पर जिन घटनाक्रमों का वर्णन है उस के आधार पर लें या चाहें तो विगत ज्ञात इतिहास में लें, भारत पर ही नहीं विश्व स्तर पर दो तरह के लोग हैं। एक प्राकृतिक जगत का नाश करके सोने और पूँजी,मुद्रा,वित्त,का संग्रह करने की काम और अर्थ वाली कामार्थ [Commercial] प्रणाली के समर्थक और दूसरे धन-धान्य उपजाने वाली आर्थिक प्रणाली   Economic method के समर्थक।
     ज्ञात इतिहास में संक्षिप्त विवरण लें।
    2700 वर्ष पूर्व बुद्ध-महावीर द्वारा वनों की रक्षा का ज्ञान देना।
    2500 वर्ष पूर्व भारत पर यवनों के आक्रमण के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में चाणक्य द्वारा यवन व्यापारियों[यहूदियों] से भारत को बचाना और राज्य कोष में रहने वाले सोने को घर-घर में फैलाने के लिए स्वर्ण आभूषणों का प्रचलन।
    फिर 2300 वर्ष पूर्व अशोक के समय पुनः विदेशी व्यापारियों का आना और भारत की प्राकृतिक सम्पदा का नष्ट होना होना।
    फिर 2100 वर्ष पूर्व विक्रमादित्य द्वारा भारत को सुरक्षित करना और ज्ञान-विज्ञान में एक ऊँचाई तक ले जाना और उधर ईसा द्वारा यहूदियों को धर्म की शिक्षा देना लेकिन यहूदियों द्वारा उन्हें सूली पर चढ़ा देना।
    तत्पश्चात 1700 वर्ष पूर्व इधर भारत में पुनः गुप्तों[बाणियों] के शासन में कामार्थ [Commercial] प्रणाली का उत्थान होना और भारत में अमीर ग़रीब का बनना।
    फिर 1400 वर्ष पूर्व हर्षवर्धन द्वारा गुप्तों के शासन का अंत और आदिशंकराचार्य द्वारा पुरोहितों का अंत और उधर पैग़म्बर मुहम्मद के इस्लामिक आन्दोलन द्वारा यहूदियों को मारना।
    फिर 300 वर्ष पूर्व जब वैदिक साहित्य को चुराकर पुनः औद्योगिकीकरण हुआ तो वित्त के माध्यम से आर्थिक शोषण के विरुद्ध नाज़ियों द्वारा यहूदियों को मारना और
    अब यहूदियों द्वारा पुनः विश्व को अपने आर्थिक लाभ के लिए परमाणु बमों और परमाणु भट्टियों से आच्छादित कर देना और अमेरिका को दुनिया का थानेदार बनाकर उसकी आर्थिक गर्दन अपने हाथ में लेना इत्यादि।
    सब उसी घटनाक्रम की कड़ी है जिस घटनाक्रम में राक्षसों[आक्रमणकारी सेनाओं] को यक्ष अनुबंध में बाँध कर वित्त के बल पर स्वर्ग [पृथ्वी की प्राकृतिक सम्पदा के उत्पादन क्षेत्र] को अपने क़ब्जे में कर लेते हैं और उसे बंजर बना कर स्वर्ग को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं।
     अब इस आन्दोलन में मैं पूंजीपति यक्षों, उनके द्वारा प्रचलित वचनबद्ध करके शासन करने की व्यवस्था के समर्थकों और इस भौतिक विकास के सुख-साधनों का उपयोग करते रहने के इच्छुक समर्थकों को एक वर्ग में रखता हूँ तथा इनके समानांतर दूसरे वर्ग में वे लोग हैं जो प्राकृतिक उत्पादक वर्ग हैं। जो संख्या में तो बहुसंख्यक हैं लेकिन जिनमें अधिकांश लोग वे हैं जिनकी पहुँच इण्टरनेट तो क्या,अख़बारों तक भी नहीं है। अतः मैं आप पढ़े-लिखे अल्पसंख्यकों से यह कहना,स्पष्ट करना,पूछना चाहता हूँ कि आप इस बारे में क्या सोचते हैं। आपके सामने दो विकल्प हैं।
     पहला विकल्प है समय का इन्तजार करें और इस विकास के विनाश और इस उत्थान के पतन की चली आ रही परिपाटी को चलने दें। इस घटना में आप जो विकास के समर्थक हैं,आपकी हार होगी लेकिन जीत किसी की भी नहीं होगी क्योंकि जो वर्ग आज भी उसी स्थिति में है और बाद में भी उसी स्थिति में रहेगा। वह इस घटना से लगभग अप्रभावित रहेगा क्योंकि वह आहार के उत्पादन से जुड़ा है और हरियाली के बीच रह रहा है। अतः नंगा भले ही रह जायेगा लेकिन भूख से तड़प-तड़प कर,परमाणु विकीरण से प्रभावित होकर नहीं मरेगा।
     दूसरा विकल्प है कि जब तक हम प्राकृतिक उत्पादन को आर्थिक पक्ष से नहीं जोड़ेंगे तब तक पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या,पृथ्वी का गर्मियों में अधिक गर्म और सर्दियों में अधिक सर्द होने की समस्या,ग्रामीणों की क्रय क्षमता कमजोर हो जाने से औद्योगिक-नगरों में आर्थिक विकास के सांध्रित बिंदु के आ जाने की समस्या, ग्रामीणों के विस्थापन से नगरों में सामाजिक समस्याओं का बढ़ना,शिक्षा को प्रायोगिक-तकनीकी ज्ञान से अलग करने से बेरोज़गारी बढ़ने की समस्या इत्यादि विविध प्रकार की समस्याओं से मुक्त नहीं हो सकते। इन समस्याओं के बढ़ते ही रहने की समस्या का एक मात्र समाधान है सनातन धर्म चक्र[पारिस्थितिकी चक्र] को विकसित होने देने के लिए वनों एवं वनों में रहने वाले आदिवासियों को वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था में पुनः स्थापित किया जाये।
  अब कहना या पूछना यही है कि आप क्या चाहते है ? अपने आप से प्रश्न करें और अपने आप को ही इसका उत्तर दें। विशेषकर बुद्ध और महावीर के अनुयाइयों से मैं यह अपेक्षा करता हूँ कि वे आत्मसाक्षात्कार करें, अपने आप का Inerview लें।
     क्या आप इस क्रांतिकारी आन्दोलन के क्रमबद्ध कार्यक्रम को गति देने के लिए आगे आ रहे हैं ? या अर्जुन की तरह कायरता के दोष से पैदा हो चुकी नपुंसकता को प्राप्त हो चुके हैं !

5. आन्दोलनकारियों के हित के हेतु !


     हम लड़ाई नहीं लड़ रहे ! यह आनन्द में दोलन करते हुए क्रमबद्ध चलते रहने वाला कार्यक्रम है। अतः इस विषय को आनंद के साथ समझें। समझने में भी आनंद आना चाहिए और फिर movement में भी आनंद आना चाहिए तो Action, movement, activity, creatively work करने में, हलचल,गतिविधि, रचनात्मक कार्य करने और इस विषय में हथाई, गपशप, Gossiping, Chating, Discussions, Talks, Dialogue, Negotiations करने में भी आनंद आना चाहिए।
    किसी भी क्रांतिकारी आन्दोलन के लिए पाँच हितकारी हेतु [ कारक, Factor] होते हैं जो एक सेतू से सति [Adjoining by a Bridge] होने चाहिए।
 
    1.यह बौद्धिक आन्दोलन है,सड़कों पर उतरने वाला विद्रोह नहीं है। इसमें बुद्धि का उपयोग और बुद्धि का ही निवेश करना है। अतः सुस्पष्ट अवधारणा Concept हो,जिसमें समस्या के पीछे की पृष्टभूमि Background से समस्या का निदान Diagnosis हो तत्पश्चात समाधान resolution की सुस्पष्ट योजना हो। ताकि धृतिबल [picketing power, determination power, wit power बढ़े। इसके लिए आवश्यक है:-
    *धर्म[आचरण का बोध], *विज्ञान, *अर्थशास्त्र। इस त्रिआयामी दर्शन में सभी समस्याओं के परिपूर्ण निदान और समाधान आवृत हो जाते हैं। अतः इन तीन विषयों को समझना।
    *धर्म:- सनातन धर्म की रक्षा करना मानव का व्यक्तिगत भी और सामूहिक भी, प्रथम और अंतिम धर्म बनता है। परशुराम ने सनातन धर्म रक्षार्थ हथियार का निर्माण किया था। बुद्ध ने कहा था,'सनातन धर्मी आचरण का बोध हो'।
    *विज्ञान:- विज्ञान विषय का मिशन; निरोगी काया,प्रणय विज्ञान की जानकारी और बलवान संतति का विस्तार होता है। शिक्षा के माध्यम से सनातन धर्म के वैज्ञानिक आधार को विस्तार देना,मानव का वैज्ञानिक धर्म है। महावीर ने इसी शिक्षा की जानकारी आदिवासियों को दी थी।
    *अर्थशास्त्र:- सनातन धर्म चक्र को अर्थव्यवस्था का आधार बनाना जो कि सर्वकल्याणकारी आर्थिक धर्म है। इसी का उपदेश कृष्ण ने गीता में दिया है।
    जब कि आज धर्म,विज्ञान और अर्थव्यवस्था के नाम पर विषमता फैल चुकी है।
धर्म जो कि शिक्षा विभाग था आज मूर्खतापूर्ण पूर्वाग्रह फैलाने वाला विभाग बन गया है।
विज्ञान का सम्बन्ध शारीरिक मानसिक स्वास्थ से था जो आज अस्वस्थ करने के काम आता है।
राष्ट्र नाम की इकाइयाँ प्रशासनिक अर्थव्यवस्था,Economy के लिए बनी थीं जो आज अर्थशास्त्र,Economics के बिगाड़ने का हेतु बन गयी हैं।

    2.आन्दोलन में विभिन्न वर्गीकृत कार्यक्रम होते हैं,जो समानांतर चलते हैं। अग्रणी कर्ताओं का उन कार्यक्रमों के परिप्रेक्ष्य में सुस्पस्ट दृष्टिकोण होना चाहिए। अतः त्रिआयामी लक्ष्य समानांतर चलाने होंगे।
* अन्धानुयाई न तो बनना है न ही किसी को बनाना है। स्वविवेक से सोच-समझकर कदम उठाना है।
* जिस बहुसंख्यक वर्ग के लिए काम किया जा रहा है,उस तक बात पहुँचाने के लिए हरसंभव उपाय करना है।
* मानसिक हिंसा को, जो रागद्वेष और सांप्रदायिक वैमनस्य को फैलाता है,धीरे धीरे कम करके जड़ से उखाड़ना है।
 
     3.अलग-अलग काल-स्थान-परिस्थिति में अलग-अलग विभिन्न करण चलते हैं। जैसे वैश्वीकरण, आधुनिकरण Globalization, Modernization इत्यादि, उनके गुण-दोषों की विवेचना करना तत्पश्चात उस जनसमूह या जनसाधारण को,जिस के हित में आन्दोलन चल रहा हो,करण के बारे में अवगत करवाकर उनको साथ में लेना तथा जो वर्ग पहले से चल रहे करण से लाभान्वित हो रहा है,उसके हितों को भी ध्यान में रखना ताकि आन्दोलन निर्विरोध और सर्वसम्मति से चले।

     इस आन्दोलन का मिशन सांख्य योग पर आधारित वैश्विक व्यवस्था करना है। अतः सर्वप्रथम इस छोटे से सांख्य [सैद्धांतिक अवधारण ] को ध्यान में रखें।
     "वर्ग संघर्ष से विश्व को मुक्त करने के लिए सांख्य आधारित वर्गीकृत व्यवस्था प्रणालियाँ और व्यवस्था पद्धतियाँ अपनाने और सभी विषयों में व्याप्त विषमताओं को सम में आप्त [समाप्त] करने के लिए आपको ख़ुद को सूत्र बनाने का ज्ञान हो जाएगा,तब आप किसी के मार्गदर्शन के मोहताज नहीं रह कर,स्वविवेक से निर्णय करने के योग्य योगी बन जायेंगे।"

    4.आन्दोलन को गति देने के लिए प्रयास,चेष्टा करते रहें। दिशा निर्धारित करते रहें,आन्दोलन को आगे बढाने के लिए मार्ग खोजते रहें अर्थात कर्ता के रूप में अपनी योग्यतानुसार निरन्तर गतिविधियाँ चलाते रहें।

    5.आन्दोलन को चलाने में आनंद की अनुभूति होनी चाहिए। तनाव,कलह,क्लेश नहीं होना चाहिए। ताकि अंतर्मन की दैवी सम्पदा और भौतिक दैवी सम्पदा में सामंजस्य और संतुलन बना रहे।
   आनन्द को बनाये रखने के लिए अक्रोध यानि हास्य-व्यंग्य को ढाल बनाया जाता है।
    इन पाँचों कारकों को जानने के लिए हमें भारत का अध्ययन करना होगा। क्योंकि यह अवधारणा भारत से ही ली गयी है।
    आन्दोलन की अवधारणा भारत और भारतीय के इतिहास से क्यों ली गयी ?
     यह वैश्विक आन्दोलन है और भारत विश्वगुरु रह चुका है। इस आन्दोलन की शुरुआत भी भारत से शुरू होगी। आज का भारत पिछड़ा हुआ,विकास के लिए प्रयत्नशील यानी अविकसित माना जाता है। राजनेताओं के आचरण और प्रशासन में विवेक शून्यता के कारण इसे मूर्खों का देश माना जाता है।
     अव्यवस्थित शहरीकरण के कारण भारत गन्दे शहरों वाला देश माना जाता है। भारत के लिए ऐसी अनेक अपमानजनक बातें फैली हुई हैं। ऐसी स्थिति में भारत को आदर्श मानकर उसका अनुकरण कैसे किया जा सकता है !
    अतः बुद्धिमानों,विद्वानों और ज्ञानियों को आगे आना चाहिए। जबकि आज सभी बुज़ुर्ग अपने-अपने पूर्वाग्रहों से ग्रस्त [Prejudices]  हैं। ऐसी स्थिति में अनघ[निष्पाप, Chaste, Sinless] नवयुवाओं को आगे आना होगा और भारत को तथा भारतीय जनमानस को आन्दोलन की एक-एक बारीकियों को समझाना होगा।

शनिवार, 14 जुलाई 2012

4 हम आन्दोलन क्यों कर रहे हैं ?


पृथ्वी हमारी माता है!
 इसके पदार्थ से हमारा शरीर बना है जिसे पार्थिव शरीर[Mortal remains] कहते हैं।यह ग्रह है। जीव-जगत के हम सभी जीवों का घर है। इस पर सभी का एक समान अधिकार है। लेकिन इसको राष्ट्र नाम से बांटा जाता है। क्यों...?
क्योंकि राजाओं और राजनेताओं को शासक बनने के लिए एक मानव निर्मित सीमा रेखा चाहिए !
क्योंकि उद्योगपतियों को हथियार बनाने,बेचने का बहाना चाहिए !
हम आत्म अनुशासित रह लेंगे हमें हमारे ऊपर ऐसे शासक नहीं चाहिए,जिनको कोई भी पूंजीपति ख़रीद कर ख़ुद के हित में जनसाधारण का अहित करने वाला काम करवा सके।
हमे स्व का तंत्र बनानें की स्वतंत्रता चाहिए।
राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा के नाम पर हमें घातक हथियार नहीं चाहिए,जवानों को मरने-मारने का बहाना नहीं चाहिए,जन साधारण की परिश्रम की कमाई से गिनती के घातक शस्त्र निर्माताओं को धनवान बनाने राष्ट्रीय प्रणाली नहीं चाहिए। अतः यह वैश्विक आन्दोलन है।
विद्यार्थी आन्दोलन क्यों?
     क्योंकि हम युवा हैं। अभी हमारे सामने पूरा जीवन पड़ा है। जबकि कुछ मुट्ठी भर राजनेताओं और उनके मुट्ठी भर पूँजीपति आकाओं ने ऐसा वातावरण बना रखा है कि जब कभी भी उनके राष्ट्र और उनके कारखानों की वित्तीय स्थिति गड़बड़ाती है वे कहीं न कहीं युद्ध का आग़ाज़ कर देंते हैं। ऐसी ही किसी स्थिति में वे विश्वयुद्ध की परिस्थिति पैदा कर देंगे। इससे तो अच्छा है हम समय रहते अपने भविष्य के बारे में सोचें।
आज हमें राष्ट्र के नाम पर,तत्पश्चात राजनीति के नाम पर,दल,पार्टी,विभाग के नाम पर विभाजित कर के रखा गया है। सम्प्रदाय के नाम पर बलपूर्वक विभाजन थोपा गया है और अध्यापक भी वेतनभोगी कर्मचारी (नौकर)हैं। तब हम छात्र ही एक मात्र ऐसा वर्ग हैं जो अविभाजित होकर सम्पूर्ण परिवर्तन के बारे में सोचने का बौद्धिक स्तर रखते हैं।
बौद्धिक आन्दोलन क्यों?
   क्योंकि समस्या सिर्फ राजनैतिक सत्ताओं और वित्तीय सत्ताओं की ग़ैरज़िम्मेदारी तक सीमित नहीं है। उन्होंने जिस तरह धरती माँ को बाँट रखा है उसी तरह धर्म के ठेकेदारों ने इंसानियत को बाँट रखा है। धर्म का विषय शिक्षा से,आचरणसे,दायित्व से जुड़ा होता है। जबकि धार्मिक सम्प्रदाय आज अशिक्षित लोगों के आडम्बर का माध्यम बन कर रह गया है। आज की स्थिति यह है कि राष्ट्र के नाम पर विश्वयुद्ध और धर्म के नाम पर गृहयुद्ध की शुरुआत कभी भी हो सकती है। हम छात्र शिक्षा से जुड़े हैं अतः हमारा एक बौद्धिक स्तर है अतः हमारा धर्म बनता है कि हम शांति से बौद्धिक आन्दोलन चलायें।
आन्दोलन का नारा है 'सभी के सुख से रहने के अधिकार की रक्षा के लिए अपने कर्तव्य (धर्म) की पालना करेंगे "!

3 आन्दोलन का परिचय About the Movement.



*वैश्विक आन्दोलन से तात्पर्य : Global Movement Means:
    यह आन्दोलन पृथ्वी को उपजाऊ धरती में बदलने और सनातन धर्म चक्र(Ecosystem Cycles) पारिस्थिकी चक्र को आर्थिक चक्र(Economic Cycle) के रूप पुनः प्रतिष्ठित करने के लक्ष्य को प्राप्त करने तक चलना चाहिए ताकि न सिर्फ़ मानव-मात्र बल्कि जीव-मात्र को नैसर्गिक सुख(Natural amenities, Scenic happiness & Pleasures) से वंचित नहीं रहना पड़े। दूसरी तरफ़ एक बहुत बड़ा वर्ग आर्थिक स्वार्थ के लिए वैश्वीकरण चाहता है। उसे भी भरपूर क्रय-क्षमता वाला प्राकृतिक उत्पादन की अर्थव्यवस्था पर निर्भर रहने वाला उपभोक्ता वर्ग मिलेगा तब वे आयुध(War weapons) बनाने के उद्योगों के स्थान पर अच्छे स्तर की उपभोक्ता सामग्री बनाने वाले उद्योगों में निवेश करेंगे और ट्रेड-मार्केट भी फलेगा-फूलेगा अतः आन्दोलन वैश्विक है लेकिन इसकी शुरुआत विश्वगुरु भारत से होगी।
         यह आन्दोलन वर्गीकृत व्यवस्था बनाने के लिए किया जाना है ताकि वर्ग संघर्ष नहीं हो और सभी वर्ग अपने-अपने क्षेत्र,अर्थव्यवस्था और प्रशासन के विषय में स्व का तंत्र (System,framework)बनाने के लिए स्वतंत्र हों।
      प्रथम वर्ग के रूप में वर्षा वनों(Rain forests) वाले भारतवर्ष में आदिकाल (Early times) से रहने वाले आदिवासियों (Tribal) और वर्षा वनों को संरक्षित (Conserved-Protected)  करना है। इसके लिए भारी निवेश की आवश्यकता होगी। जिसकी चिंता आप न करें। आप तो विश्व स्तर पर इसके लिए आम सहमति वाला बौद्धिक वातावरण बनायें।
      द्वितीय वर्ग के रूप में कृषि-पशुपालन की अर्थव्यवस्था वाले भारत-देश के  गणराज्यों को आत्म निर्भर बनाया जायेगा और भारत को कम से कम 100 गणराज्यों में विभाजित किया जायेगा और सभी गणराज्यों की अपनी-अपनी स्वतन्त्र, स्वाधीन,स्वायत्तशासी और आत्मनिर्भर (Freeman,Discretionary, Autonomous and Independent) सत्ता होगी।  इन पर केन्द्रीय सरकार का किसी भी विषय में सीधा हस्तक्षेप (Agent Intervention) नहीं होगा। इनकी अपनी कृषि-पशुपालन की अर्थव्यवस्था होगी। इन गणराज्यों में एक विशेष सिंचाई प्रणाली का उपयोग करके कृषि-पशुपालन किया जायेगा और उच्चस्तर की शिक्षा,चिकित्सा सहित उच्च स्तर की जीवनशैली (Life Style) की व्यवस्था की जाएगी। भारतवर्ष और भारतदेश की पूरी भूमि शस्य-श्यामला-वसुंधरा होगी(Harvest greenest Wave-earth) और विश्व 'वसुधैव कुटुम्बकम' ("Combined Earth-family through Suprime  Brain Wave") होगा।
     इस व्यवस्था को पूरे विश्व में सभी राष्ट्र लागू करें,अनुसरण करें; इस सदभावना के कारण यह वैश्विक आन्दोलन माना जाये।
     तृतीय वर्ग के रूप में औद्योगिक नगरों को बसाया जायेगा जो सभी केंद्र शासित होंगे। रेलमार्ग के दोनों तरफ़ अधिकतम चार किलोमीटर चौड़े भू-भाग पर पूरे भारतराष्ट्र के औद्योगिक नगर फैले होंगे। रेलमार्ग ही यात्रा एवं परिवहन के माध्यम के रूप में राष्ट्र की रक्तवाहिनियों (Blood Vessels)  की तरह फैला हुआ होगा। इस केंद्र शासित भारत-राष्ट्र का कोई भी नागरिक (Citizen) पूरे राष्ट्र में कहीं भी जाकर रोज़गार कर सकेगा। लेकिन किसी भी गणराज्य के ग्रामीण की आय (Rural Income) का निवेश नगरीकरण (Urbanization) में नहीं होगा।
     इस भारत राष्ट्र की विशेषता यह भी होगी कि विदेशी भी बिना वीजा के आ-जा सकेंगे लेकिन गणराज्य अपनी अर्थव्यवस्था की,भाषा,संस्कृति,परंपरागत जीवन-शैली की सुरक्षा और संरक्षण को ध्यान में रख कर बाहरी व्यक्ति का अपने क्षेत्र में प्रवेश वर्जित कर सकता है। चाहे वह भारतीय सूदखोर बणिया अथवा संस्था हो अथवा एक रू.में खरीद कर दो में बेचने वाला व्यापारी (Trader) हो अथवा व्यर्थ की आकर्षक सामग्री बेचने वाला निर्माता हो चाहे विदेशी हो।
     चूँकि शहरी क्षेत्र में विश्व का कोई भी व्यक्ति बिना वीजा के आ-जा सकेगा अतः यह वैश्विक स्तर का आन्दोलन है और साथ में यह भी है कि भारत की इस संरचना (Structure) का अनुसरण जो राष्ट्र करेगा भारत उस राष्ट्र से विशेष मैत्री सम्बन्ध बनाएगा और चूँकि भारत की अर्थ व्यवस्था का मूलाधार प्राकृतिक उत्पादन होगा अतः मित्र राष्ट्र को खाद्य पदार्थों की आपूर्ति में प्राथमिकता दी जाएगी। इस लिए भी यह वैश्विक आन्दोलन है भले ही इसकी शुरुआत भारत से होगी।
    इस व्यवस्था से एक तरफ वैष्णव सम्प्रदाय के वैश्य वर्ग के हित में वैश्वीकरण भी हो जायेगा तो दूसरी तरफ ब्रह्म-यज्ञ करने वाले अध्यापकों और वैदिक यज्ञ करने वाले वैद्यों के नेतृत्व में ब्राह्मण-क्षत्रिय धर्म की पालना करने वालों के और प्राकृतिक उत्पादन की अर्थव्यवस्था पर निर्भर रहने वालों के हित भी सुरक्षित रहेंगे। सभी राष्ट्र इस संरचना को अपना सकते हैं अतः यह वैश्विक आन्दोलन है।    
  *बौद्धिक आन्दोलन से तात्पर्य:-
    यह सड़कों पर उतरकर या भीड़ को सड़कों पर उतारकर चलाया जाने वाला आन्दोलन नहीं है बल्कि गरिमामय तरीक़े से चलाया जाने वाला बौद्धिक आन्दोलन होगा। इस आन्दोलन को इंटरनेट की सभी सुविधाओं का उपयोग करके गति दी जाये और फिर मीडिया के सभी वर्ग इसको प्रचारित-प्रसारित करे तब इसका अच्छा परिणाम निकलेगा। परस्पर वार्ता से लेकर बड़े स्तर की संगोष्ठियों तक बौद्धिक स्तर की वार्ताएँ होनी चाहिए।
   यह आन्दोलन सर्वकल्याणकारी व्यवस्था बनाने के लिए है। अतः सभी वर्गों के लिए अपेक्षित और हितकारी होगा और सभी वर्गों को प्रिय एवं उचित लगेगा। अतः समझ कर-समझा कर धैर्य एवं उत्साह दोनों आचरण का योग करके चलाना होगा।
*विद्यार्थी आन्दोलन से तात्पर्य :-
ब्रह्म (Brain) के तीन आयाम होते हैं; ज्ञान-बुद्धि-विद्या।
     ज्ञानी में सत के भावों के प्रति आकर्षण होता है। अतः सत्य और सत्व की रक्षा करके ब्रह्म की सत्ता को प्राप्त करना जीवन का निर्धारित करता है।
     बुद्धिमान चित्त में शान्ति चाहता है अतः आर्थिक,राजनैतिक सत्ता को प्राप्त करके एक आदर्श प्रशासन देने को अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करता है।
     विद्वान की कामना होती है कि वह विद्याओं पर अनुसंधान करे और जीवन को आनंदमय बनाने में अपना सहयोग,योगदान दे या सहभागी बने। इस  के लिए वह अनेक प्रकार के रचनात्मक,सृजनात्मक कार्य करता है। किसी न किसी विद्या में पारंगत होने से ही जीवन-यापन का आधार मिलता है,विद्या से ही सुख के साधन विकसित और आविष्कारित किये जाते हैं।
      इसीलिये मैंने छात्र के स्थान पर विद्यार्थी शब्द का उपयोग किया है। विद्या के लिए निरंतर अभ्यास और जप (Revision) की आवश्यकता होती है। आप चाहे विद्या का अध्ययन कर रहे हैं अथवा रोज़गार में लग गए हैं जब तक आपके हाथ पैर हिलते हैं तब तक आप विद्यार्थी ही कहलायेंगे। अतः यह विद्यार्थी-आन्दोलन कहा जायेगा।
      नव महा भारत निर्माण के बाद शिक्षा प्रणाली और परीक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन किया जायेगा। आज की शिक्षा-परीक्षा प्रणाली में व्यक्ति को एक तरफ़ तो सांख्य (सैद्धांतिक ज्ञान) को रटने के लिए मजबूर किया जाता है दूसरी तरफ़ योग (प्रायोगिक कक्षाओं) के लिए बजट और साधन उपलब्ध नहीं कराये जाते। अतः विद्यार्थी जीवन में भी तनावग्रस्त रहना होता है और कार्य करने का व्यावहारिक अभ्यास नहीं होने से बेरोज़गारी से जूझना पड़ता है। इस तरह उसे विद्वान (विद्यावान) बनाने के स्थान पर कुंठित बना दिया जाता है। अतः विद्यार्थियों के हित में यह आन्दोलन विशेष महत्त्वपूर्ण है।
*आन्दोलन से तात्पर्य:-
      आन्दोलन शब्द के प्रति पूर्वाग्रह है कि जो सत्ता या व्यवस्था के प्रति विद्रोह होता है,उसे आन्दोलन कहा जाता है। क्रांतिकारी आन्दोलन शब्द के प्रति तो और भी अधिक पूर्वाग्रह है। जबकि यह आन्दोलन अपने शब्दार्थ के अनुरूप आनंद में दोलन करते हुए,झूमते हुए चलाया जायेगा। यह क्रांतिकारी भी है क्योंकि यह क्रमबद्ध कार्यक्रम के रूप में चलेगा। आपको इंटरनेट के अलावा आपस में गपशप के रूप में भी चलाना है।
     गपशप भी तीन वर्गों में वर्गीकृत होती है। ज्ञानार्जन हेतु,राजनैतिक रूचि हेतु और अर्थोपार्जन की संभावना के विषयान्तर्गत। इस ब्लॉग श्रृंखला का अध्ययन करने और आन्दोलन की गतिविधियों में सक्रिय होने से तीनों ही वर्गों को सामग्री मिलेगी।
क्रमशः

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

2 मनुष्य जीवन का एक ही लक्ष्य होता है !


                                           'सुख की प्राप्ति'

       हिमालय से जब नदियाँ नीचे उतरती हैं तो वे अलग-अलग दिशाओं में चलती हुई दृष्टिगोचर होती हैं। देखने में ऐसे लगता है जैसे इनके लक्ष्य अलग-अलग होंगे लेकिन अंततोगत्वा उन सभी का एक ही लक्ष्य होता है और वह है समुद्र।
     इसी तरह मनुष्य अकेला हो या समूह में प्रयास कर रहा हो,किसी भी युग व काल में हो किसी भी मनोस्थिति में,किसी भी परिस्थिति में हो,किसी भी पद अथवा विषय में कार्यरत हो, अपनी कथनी और करनी को कल्याणकारी मान रहे हों और दूसरों या प्रतिपक्ष के मार्ग को अकल्याणकारी मान रहे हों लेकिन अन्ततः लक्ष्य सभी का एक ही होता है और वह है 'सत्य शान्ति और आनंद की खोज'!
      यह साहित्य की भाषा में कहा गया है। इसी तथ्य को विज्ञान एवं धर्म की शब्दावली में कहें तो कहा जायेगा:- 'सत-चित-आनंद घन (सच्चिदानंद घन) की प्राप्ति' के लिए धरती पर जन्म लिया जाता है। चूँकि यह वैज्ञानिक शब्दावली है अतः इसकी अशेषेण व्याख्या करके एक तरफ़ तो बिना किसी तथ्य को शेष रखे मनःस्थिति के पीछे शम की प्रबलता सम्बन्धी कारण,शारीरिक स्वास्थ्य की स्थिति के पीछे शरीर विज्ञान सम्बन्धी कारण और काल-स्थान-परिस्थिति से बने सम विषम परिवेश को लेकर अनेक तथ्यों के माध्यम से सब कुछ स्पष्ट किया जा सकता है तो दूसरी तरफ़ अन्तहीन व्याख्या करते रहा जा सकता है क्योंकि हर व्यक्ति के लिए सुख की परिभाषा में भेद हो सकता है।
        इसी सच्चाई को सरल और संक्षिप्त में साधारण व्यक्ति की भाषा में कहें तो कहेंगे 'सुख की प्राप्ति ही जीवन का ध्येय होता है'! 
   साधारण भाषा में सच्चाई यह है कि मनुष्य ही नहीं जीव मात्र प्रकृति का ग़ुलाम है। शरीर भी सभी का त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा संचालित होता है,जिसे सत्व-रज-तम कहा गया है| अतः सुख भी तीन प्रकार का होता है।

सात्विक सुख :-

सात्विक सुख उसे कहा जाता है जिसकी प्राप्ति के लिए प्रयास करने के समय तो वह स्थिति विष के समान लगती है क्योंकि विषमताओं से गुज़रने का तप करना पड़ता है| लेकिन बाद में वह स्थिति अमृत होती है। अतः कभी भी नष्ट नहीं होने वाला स्थाई सुख मिलता है। जैसे कि अध्ययन करते समय विष समान लगता है लेकिन करियर बनने के बाद अमृत समान फल मिलता है। 

राजसी सुख :-

     राजसी सुख भोगने के समय अमृत समान लगता है लेकिन पुण्य नष्ट होने के बाद बचा हुआ जीवन विष बन जाता है। जैसा कि स्वास्थ को लेकर होता है। स्वाद के लिए व्यक्ति भोग भोगता है फिर कृशकाय हो कर नरक भोगता है। ऐसा ही भ्रमित होने वाले ज्ञान और मनोरंजन के परिप्रेक्ष्य में तथा अन्याय से धन,पद,प्रतिष्ठा इत्यादि प्राप्त करने के परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए।

तामसी सुख.:-

      जो सुख मोह,प्रमाद और आलस्य में मिलता है,अनुबन्ध में बँध कर नौकरी करने और अकर्मण्यता में मिलता है,उदेश्यहीन जीवन जीने में मिलता है,व्यर्थ के स्वार्थ और पर-पीड़ा में मिलता है,प्रतिस्पर्धा में मिलता है;उसे तामसी सुख कहा गया है। क्योंकि यह अस्थायी और क्षणभंगुर होता है।
[Note- इस विषय में विस्तृत जानकारी के लिए शिवोहम ब्लॉग में गुणत्रय विभाग योग पढ़ें]

                     यदि आप सात्विक सुख चाहते हैं तो पहले तप करना होगा !

       तप के प्रथम क्रम में आत्म-कल्याण होता है। जैसे शिक्षित होना,पूर्वाग्रहों को त्याग कर दिमाग़ के ताले खोलना,बुद्धि का स्तर बढ़ाना इत्यादि और अपने स्वास्थ्य का ध्यान रख सकें उतना शरीर विज्ञान का ज्ञान होना और उस ज्ञान का प्रयोग-उपयोग करना। यह आत्म-कल्याण नामक स्वार्थ होता है जिसको पूरा करना व्यक्तिगत धर्म होता है। यहाँ आत्म कल्याण का अर्थ होगा आन्दोलन के बारे में जान लेना ताकि यदि आन्दोलन के प्रति आस्था (सकारात्मक,स्वीकारात्मक भाव) जनित श्रद्धा (मानसिक सामर्थ्य) पैदा हो जाये तो आत्मविश्वास भी पैदा हो जाये। तब आन्दोलन को नैतिकता के साथ नीयत से गति दे सकें। 
       तप के दूसरे क्रम में परमार्थ आता है यानी एक सर्वकल्याणकारी व्यवस्था बनाने के लिए अव्यवस्था को अपने हाथ में लेना। यहाँ इसका तात्पर्य ख़ुद के स्वतन्त्र उम्मीदवार के रूप में राजनीति में आने से भी है तो अपने क्षेत्र में स्वतंत्र उम्मीदवार को खड़ा करके जीतने से भी है।
   वर्तमान में दो विरोधाभासी स्थितियाँ है। एक तरफ़ तो सारा ताण्डव पूँजी का है अतः चाहे शिक्षा प्रमाण-पत्र लेना हो या न्यायालय में झूठ से जय करना हो या ईमानदार को फँसाना हो या चुनाव जीतना हो सब कुछ पूंजी से हो सकता है। सरकारें गिराईं-बनाईं जा सकती हैं। कुल मिलाकर अयोग्य को योग्य के स्थान पर थोपा जा सकता है। लेकिन चूँकि प्रजातंत्र है अतः जिस तरह मत ख़रीदे जा सकते हैं,उसी तरह मतदाताओं को ईमानदारी से भी वश में किया जा सकता है।
    वर्त्तमान में चूँकि अधिकाँश मतदाता बरगलाये जा सकते हैं और बाक़ी बचे हुए अपनी-अपनी पार्टियों के अंधभक्त हैं अतः मामला कुछ टेढ़ा अवश्य है लेकिन एक वातावरण बना दिया जाये तो सरल भी है। अतः पहले आन्दोलन के बारे में समझ लीजिये।

बुधवार, 11 जुलाई 2012

1 यक्ष प्रश्न Demigod's Larger question


         जम्बू द्वीप (एशिया) का वह भू-भाग है जहाँ की धरती पर सूर्य की गर्मी (भारती नामक अग्नि) के साथ इंद्र (मानसून) नियमित आता है। अतः जब वहाँ वनस्पति-साम्राज्य (Plant - Kingdom),प्राणी-साम्राज्य (Animal Kingdom) एवं मानव-साम्राज्य (Human-Kingdom); तीनों में अपनी विविध प्रकार की जातियों की प्रजा (प्रजातियों Species,नस्लों) के साथ प्राकृतिक वैभव का एकमात्र स्थान बचा था(इस कारण उस क्षेत्र का नया नामकरण भारत-वर्ष हुआ);उस समय लिखे गए महाभारत काव्य की ऐतिहासिक कथा में एक घटना है।
    कौरवों से जुए में हार कर पाण्डव वचन( अनुबंध agreement ) में बँधे अज्ञातवास में थे तब एक बियाबान जंगल में रुके हुए थे। प्यास लगने पर भीम नदी से पानी लेने गया। ज्योंही भीम पानी भरने लगा, एक आवाज़ आई,रुको! भीम ने आवाज़ की तरफ़ देखा तो एक यक्ष व्यापारी दिखाई दिया। व्यापारी ने पानी भरने का पेमेन्ट माँगा और कहा-
यक्ष :-मैंने इस नदी का अधिकार ख़रीदा हुआ है। अतः तुम्हें शुल्क देने पर ही पानी मिलेगा।
भीम:- मेरे पास मुद्रा नहीं है,लेकिन मुझे पानी चाहिए। मेरे भाई और माता प्यासे बैठे हैं,तुम मुझ से पानी के बदले में काम करवा सकते हो।
यक्ष :-मेरे पास करवाने को कोई भी काम नहीं है लेकिन चूँकि तुम प्यासे हो अतः एक तरीक़े से सौदा बैठ सकता है। मैं तुमसे चार प्रश्न करता हूँ। तुम उत्तर दे सके तो पानी ले जा सकते हो लेकिन यदि उत्तर सही नहीं हुए तो तुम मेरे बंदी माने जाओगे।
भीम के रज़ामंद होने पर यक्ष ने चार प्रश्न किये,जिनका भीम सही उत्तर नहीं दे सका। भीम के काफ़ी समय तक वापस नहीं पहुँचने पर अर्जुन आया। फिर एक-एक करके नकुल,सहदेव और अंत में युधिष्ठर भी आ गये। चार प्रश्न थे उन प्रश्नों के चारों ने अलग-अलग उत्तर दिए। ये उत्तर उन चारों की मानसिकता दर्शाते हैं।
     लेकिन प्रश्नकर्ता धर्मराज (न्यायाधीश) था। जो यक्ष (अनुबंध पर काम करने कराने वाले व्यापारी) के भेष, वेशभूषा(Dress Code) में था। उसने नैतिक मनोवैज्ञानिक प्रश्न पूछे।
प्रश्न :-मनुष्य  का सर्वाधिक आश्चर्यजनक आचरण क्या है ?
उत्तर :-मनुष्य प्रतिक्षण किसी न किसी जीव को मरते देखता है। फिर भी वह अन्त तक ऐसा व्यवहार करता है जैसे कि वह तो कभी भी नहीं मरेगा।
     इस मनोविज्ञान का दूसरा पक्ष यह भी है कि यदि हम हर पल मरने की सोचने लग जाएँ तो हर पल निराशा, आशंका और उदासीनता से घिरे रहेंगे। अतः हमारी प्रकृति हमें वर्तमान में बाँधे (सती किये) रहती है।
   यहाँ एक प्रश्न यह भी पैदा होता है कि कुछ लोग आख़िर अधिक से अधिक जीना क्यों चाहते हैं ?
    कुछ लोग फिर (पुनः) पैदा होना क्यों चाहते हैं ?
   कुछ लोग पूछते हैं कि यह जगत,जिस में दुःख ही दुःख है। इस जगत को क्यों और किसने बनाया!
   अतः सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बिंदु या इन प्रश्नों के उत्तर हैं कि जीव जब पैदा होता है तो एक लक्ष्य लेकर पैदा होता है। उस लक्ष्य को जो व्यक्ति प्राप्त कर लेता है और प्राप्त करना जान जाता है, वह अधिक से अधिक जीना और पुनः पुनः पैदा होना चाहता है।
   लेकिन जो उस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता वह इस बात पर चिंतन करता है कि यह जगत जिस में दुःख ही दुःख है इस जगत को क्यों और किसने बनाया।
   उस लक्ष्य के बारे में एक मूर्ख लकड़हारे कालिदास ने,जो ज्ञात इतिहास का सबसे पहला और सबसे बड़ा नाट्य लेखक बना था ने कहा!
                                       मनुष्य जीवन का एक ही लक्ष्य होता है।

                                                     'सुख की प्राप्ति'