आज हमने भौतिक विज्ञान का जो विकास किया है,वह इस सिद्धांत पर है कि 'आवश्यकता आविष्कार की जननी है'। लेकिन इससे भी बड़ी सच्चाई तो यह है कि हमने अपनी सुख-सुविधाओं के नाम पर और विकास के नाम पर अनेक अनावश्यक साधनों का भी विकास किया है।
और इससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि आज अनावश्यक साधनों का निर्माण सुख के साधनों के लिए नहीं बल्कि मात्र मुद्रा कमाने के लिए किया जा रहा है। एक ऐसी मानसिकता विकसित हो गयी है कि दुःख पाकर भी मुद्रा कमानी है ताकि उससे सुख खरीद सकें, अपमानित होकर भी मुद्रा कमानी है ताकि उससे सम्मान और प्रतिष्ठा मिल सके।
मुद्रा तो व्यवस्था का केन्द्रीय माध्यम मात्र है जो कि आज अव्यवस्था और अराजकता फैलाने का माध्यम बन गया है। लेकिन इसी मुद्रा को संसाधनों तथा मानवीय उर्जा की सुव्यवस्था करने के लिए काम में लिया जाये तो न तो मुद्रा का अवमूल्यन होगा और न ही इतनी भारी मात्रा में मुद्रा की आवश्यकता रहेगी।
वनवासी-आदिवासी अपनी-अपनी जीवनशैली में खुश रहते हैं लेकिन उन पर दो तरफ़ा मार पड़ रही है। एक तरफ़ तो उन्हें पिछड़ा हुआ और अशिक्षित कह कर मानसिक रूप से दीन-हीन बनाया जा रहा है तो दूसरी तरफ उनके आर्थिक आधार को नष्ट करके उन्हें सभ्य कहे जाने वाले असभ्य नगरवासियों का मोहताज बनाया जा रहा है। यह इसलिए हुआ कि आहार जैसी नैसर्गिक आवश्यकता की तुलना में मुद्रा को आवश्यक आविष्कार के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया है।
जिस वर्ग को आप हज़ारों वर्षों से शोषित और दलित बता रहे हैं, उनकी इस दुर्दशा का प्रारंभ तो मात्र दो-तीन सौ साल पहले शुरू हुए औद्योगिकीकरण और शहरीकरण की शुरुआत के साथ मुद्रा के प्रचलन के बाद ही हुई है, जो ईस्ट इण्डिया कंपनियों के भारत में स्थापित होने और प्राकृतिक सम्पदाओं के दोहन के बाद अठारहवीं सदी से हुई। लेकिन उससे भी बुरी स्थिति द्वितीय विश्वयुद्ध और भारत की तथाकथित आज़ादी के बाद हुई है।
अब इसका एक मात्र समाधान है नवभारत में एक तरफ़ इन सभी ग़रीब,अनाथ,दलित,मैला ढोने वाले तथा गंदे कहे जाने वालों को प्राकृतिक उत्पादन से जोड़ कर सभी को पवित्र काम में लगा कर इन्हें मानसिक कुंठाओं से और आर्थिक अभावों से मुक्त किया जायेगा।
वे ग्रामीण जो कृषि श्रमिक हैं और अपने कर्म के विषय में कृषि वैज्ञानिकों और पशु चिकित्सकों से अधिक जानकार और अधिक शिक्षित हैं, उस विषय में इनकी योग्यता का उपयोग किया जायेगा तो दूसरी तरफ़ बिना प्लानिंग के फैले पत्थरों के जंगलों की एक भौगोलिक सीमा निर्धारित की जायेगी और आज जहाँ आप तथाकथित पढ़े-लिखे लोग पशुओं से भी बुरी स्थिति में प्रदूषित और अपवित्र शहरों में और तनाव पैदा करने वाले वातावरण में रह रहे हैं उस स्थान पर प्रदूषण से मुक्त,साफ सुथरे व्यवस्थित नगरों का नव निर्माण किया जायेगा।
तीसरी तरफ़ ऐसी व्यवस्था की जायेगी कि औद्योगिक नगरों की कमाई का निवेश भले ही प्राकृतिक उत्पादन में हो लेकिन गणराज्यों की और वनोत्पादन की आय को वहीं पर पुनर्निवेश किया जायेगा। इस तरह उस आय से शिक्षा और चिकित्सा जैसे कार्य को धार्मिक कार्य के रूप में पुनः प्रतिष्ठित किया जायेगा।यानी...
1. इन दोनों विषयों से जुड़े वर्ग को सर्वोच्च प्रतिष्ठित वर्ग में माना जायेगा।
2. इनको वाणिज्य-व्यापार से मुक्त और निःशुल्क सेवा व्यवस्था में रखा जायेगा। वनक्षेत्र अर्थात धर्मक्षेत्र में ही ये शिक्षण एवं चिकित्सा संस्थान होंगे जहाँ आवास और आहार की शास्त्रीय विधि से व्यवस्था की जाएगी जो कि निःशुल्क होगी।
3. शिक्षा को मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखा जायेगा अर्थात विषय को थोपा नहीं जायेगा बल्कि रुचि एवं योग्यतानुसार चुनने का अधिकार विद्यार्थी का स्वयं का होगा।
इस तरह आप 'शहरी बाबू भी सत-चित्त-आनंद के तीनों आयामों का घन फल चख सकेंगे' और 'जो प्रकृति के बीच में रहते है वे भी सुख से रह सकेंगे' और 'नई पीढ़ी को आत्म कल्याण की सुविधा और वातावरण मिलेगा'।