सम्माननीय पाठक !

नमस्ते !

{ नः मः अस्ते अर्थात [आपके बिना और आपके सामने भी ] मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। }

बात सारगर्भित भी है तो कुछ लम्बी-चौड़ी भी है अतःबात को संपादित करके कहने हेतू अभी 10 ब्लोग बनाए हैं.

"GISM" नामक इस ब्लॉग को केन्द्र में रखें और यहीं से पढ़ना शुरू करें।

देवर्षि नारद के तीन ब्लॉग में से

"सामाजिक पत्रकारिता" में जातीय व् साम्प्रदायिक संरचना को विस्तार से बताने पर लेखन केन्द्रित रहेगा।

"नैतिकता की राजनीति" में लेखन पौराणिक,प्राचीन तथ्यों एवं प्रकृति निर्मित संविधान,क़ुदरत के क़ानून,Nature Created Constitution,Laws of natural order of things पर केन्द्रित रहेगा।

"निर्दलीय राजनैतिक मंच" में लेखन वर्तमान की समसामयिक बातों पर केन्द्रित रहेगा।

इन तीनों ब्लॉग्स को आप "कला संकाय" [Faculty of arts] के विषयान्तर्गत पढ़ें।

"मुनि वेदव्यास" के चारों ब्लॉग को धर्म एवं विज्ञान के विषयान्तर्गत पढ़ें। धर्म को अपने आप के प्रति कर्तव्य एवं अधिकार के रूप में लें और विज्ञान को आयुर्विज्ञान के अंतर्गत लें।

इन चारों ब्लॉग्स को "दर्शन एवं विज्ञान संकाय" [Faculty of Philosophy and Sciences] विषयान्तर्गत पढ़ें।

"प्रणय विज्ञान" नामक "कार्तिकेय" के ब्लॉग को "वैवाहिक जीवन और नैसर्गिक आनंद" विषयान्तर्गत पढ़ें।

अंतिम चरण का ब्लॉग है "भव्य महा भारत निर्माण" ! इस ब्लॉग को "अर्थशास्त्र संकाय" [Faculty of Economics] विषयान्तर्गत पढ़ें। लेकिन चूँकि यह ब्लॉग "सांख्य और सांख्यिकी" [Principle Knowledge and Statistics] तक सीमित नहीं है बल्कि साँख्य का योग-प्रयोग-उपयोग [Experiment &-Applying to use] करना है अर्थात "व्यावहारिक धरातल [Practical Ground] पर नव महा भारत का निर्माण" करने हेतु पढ़ें।

इस तरह प्रथम चरण में हमें ज्ञान मार्ग से ध्यान मार्ग [Meditative Concentration via Knowledge path] से चलना है अतः सात्विक-बुद्धि,बोद्धिसत्व का उपयोग करके बुद्धि के देवता को काबू में करना है तब फिर फ़तह ही फ़तह है। फ़ारसी में कहा है 'हिम्मते मर्दां मददे ख़ुदा'। अतः प्रथम चरण में अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट करके,अपने आप में आत्मविश्वास बढ़ाने के कार्य से प्रारम्भ करें और पृथ्वी पर पुनः स्वर्ग बसाने के कार्य का श्री गणेश करें। अगले चरण स्वतः बढ़ते चले जायेंगे। बस नीयत होनी चाहिए नियति स्वतः लक्ष्य तक अवश करके धकेलती हुई पहुँचा देगी।

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य है जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

शनिवार, 4 अगस्त 2012

14. "जीतने वालों की मैं नीति हूँ" ! "I Policy, who will win!"




गीता का भगवान कहता हैः  "जीतने वालों की  मैं नीति हूँ"
    आप एक मतदाता के रूप में अपने आप को पहचानें और अपने मतदाता-धर्म की पालना करके अपना प्रतिनिधि खुद चुनें। अपने क्षेत्र का स्थाई निवासी और पार्टी-पोलिटिक्स से दूर रहने वाला निर्दलीय।
   इसके लिए ना तो कोई संस्था बनायें और ना ही किसी संगठन से जुड़ें और ना ही किसी संगठन को जोड़ें। दल-दल से मुक्त पवित्र मानसिकता वाले एवं पूर्वाग्रहों से मुक्त स्वविवेक से निर्णय लेने वाले व्यक्तियों का मैत्री समूह बनाएं। ये समूह मिलकर अपने क्षेत्र का अपना निर्दलीय प्रतिनिधि चुनेंगे तब वह आपका अपना प्रतिनिधि कहा जायेगा। पार्टी पॉलिटिक्स यूरोप से आई व्यवस्था है जहाँ पूँजीवाद एवं साम्यवाद नामक दो धाराएँ इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती हैं कि वहाँ trade and industries वाली कॉमर्शियल गणित ही चलती है जिसमें पूँजी निवेशकों एवं श्रमिकों के,शोषकों एवं शोषितों के परस्पर हितों का संघर्ष चलता रहता है।    
      जबकि भारत के अर्थशास्त्र की पूरी गणित प्राकृतिक उत्पादन पर चलती है। अतः भारतीय प्रजातान्त्रिक प्रणाली में सबकुछ सर्वसम्मति से होता आया है।
    भारतीयों की मानसिकता में दो विरोधाभासी तथ्य होते हैं। एक तरफ तो दल-दल विहीन सर्वसम्मति; तो दूसरी तरफ निर्वाचित व्यक्ति को पूर्ण उत्तरदायी मानने की प्रवृति।
   इस के कारण ही यहाँ दृढ निश्चयी व्यक्ति को पसंद किया जाता रहा है। दृढ़ निश्चय जब विवेकहीन स्वार्थ का रूप ले लेता है तो वह दुराग्रह,ज़िद एवं तानाशाही प्रवृति के रूप में सामने आता है। चूँकि जब कोई संस्था बनती है तो उसमें पद और पदाधिकारी भी होते हैं। यहीं से भारतीयता पीछे छूट जाती है और धर्म का स्थान  मानवनिर्मित, artificial,स्वनिर्मित धर्म(संविधान) ले लेता है जो एक वर्ग को अधिकार दे देता है मनमर्ज़ी करने का,और दूसरा एक वर्ग उनका समर्थक बन कर उन्हें तानाशाह बनने में मदद करने लग जाता है। 
    अतः आप अपने अन्दर की भारतीयता को पहचानें और बिना पद एवं पदाधिकारियों वाले मैत्री-समूह बनाएं। सक्रिय होने से पहले इतना तो कर ही सकते हैं कि आप आत्म-भाव में आ कर अपने आप को टटोलें कि कहीं आप भी आत्म-कल्याण व सर्व-कल्याण से च्युत हुए व्यवस्था-प्रणालियों में सिर्फ इतना ही परिवर्तन तो नहीं चाहते हैं जिनसे आपका स्वार्थ,स्वहित,कामनाएं पूरी हो जाएँ;बाकी जाएँ भाड़ में।

Gita the Lord says, "I Policy who will win"
    Identify yourself as a voter and the voter - the cradle of religion and to choose their representatives themselves. Permanent residents of the area and the party - a party to stay away from Politics.
   Parties - Party-free pure-minded and prejudice-free decision-making discretion of the friendship group of individuals. Together these groups will choose their field representative's own party said he will be your own representative.
      While India's economy is run on natural production of the whole mathematics. So the Democratic consensus has everything in the system.
    There are two contradictory facts in the mindset of Indians. On the one hand, the team - a team without a consensus, on the other person elected to the tendency to accept full responsibility.
   Like this because the person has been determined here.Since then it has become an institution, there are office bearers.is.
    So, in your office and office-bearers of the Indian Identify and without the friendship - group.selfishness, self, desires to be fulfilled, the visit to hell.

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

13. मतदाता के अपने धर्म का उपयोग-प्रयोग करें !


      आप यदि ऐसा सोचते हैं कि आज़ादी से पहले राजा-रजवाड़े,ज़मींदार जनता पर मन-मर्ज़ी अत्याचार करते थे तो आप सही सोचते हैं। लेकिन छठी शताब्दी में जब राजपूतों की योद्धा नस्ल विकसित की गई थी तब से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक राजपूत न सिर्फ ईश्वर-भाव[संरक्षक भाव] रखने वाले थे बल्कि जनता का सम्मान भी करते थे और जनता से डरते भी थे। कारण यह था की सुव्यवस्था नहीं होने पर जनता राज्य से पलायन कर जाती थी। बलात रोकने की कोशिश भी कारगर नहीं होती थी,चूँकि तीर्थाटन पर जाने से रोकने की हिम्मत राजाओं की भी नहीं होती थी। लोग तीर्थाटन पर जाते और मार्ग में आने वाले किसी अन्य राज्य में बस जाते। यहाँ तक कि कुशासन होने पर विद्रोह भी हो जाता था। विद्रोह का अर्थ था नए राजा का चुनाव वरना प्रजा का पलायन। लेकिन जब मुग़ल और बाद मे अंग्रेज़ स्थापित हो गए तो वे  जनता की अवहेलना करने लग गए क्योंकि तब उनके लिए उनके हाई-कमान अधिक महत्वपूर्ण हो गये थे।उन हाई-कमानों की मर्ज़ी पर ही उनकी गद्दी सुरक्षित रह पाती थी। अब उनमें ईश्वर-भाव नष्ट हो गया और वे ईश्वर-भोगी[ऐश्वर्य-भोगी] हो गए।
         ठीक इसी तरह वर्तमान के राजे-रजवाड़े[राजनेता] भी अपने क्षेत्र और क्षेत्र की जनता के नहीं बल्कि अपने पार्टी हाई-कमान के प्रतिनिधि होते हैं। यहाँ तक कि ये संसद और राष्ट्र  के भी प्रतिनिधि नहीं होते। जब संसद में कोई बिल रखा जाता है या चर्चा होती है या कोई निर्णय लेना होता है, तब इन सांसदों की दृष्टि में उचित-अनुचित का मापदंड इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस पार्टी के प्रतिनिधि हैं। तब वे ना तो राष्ट्र के,ना संसद के,ना ही अपने संसदीय क्षेत्र के प्रतिनिधि होते हैं, बस अपने हाईकमान के आदेश पर  उचित को अनुचित और अनुचित को उचित कहना इनकी मजबूरी होती है। चूँकि इनमें स्वाभिमान बचा ही नहीं है अतः यह इनकी फ़ितरत[प्रकृति] बन गई है।
          इससे भी अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह बन गया है कि सभी दलों के हाई-कमान तानाशाह भी हो गए हैं। तानाशाह बनने की एक  लोकतांत्रिक पद्दति विकसित हो गई है। यह पद्धति वैसे तो सभी संगठन,
संस्थाएं,संघ,एनजीओ से लेकर धार्मिक-सांप्रदायिक-आध्यात्मिक वर्ग द्वारा भी उपयोग में ली जाती है किन्तु उनका दोष इसलिए नहीं माना जाये क्योंकि जैसा राजा वैसी प्रजा। आज जो कोई भी दस-बीस,सौ -दो सौ लोगों को भी इकट्ठा करने में सफल हो जाता है वह अपनी सफलता में इतना इतराने लग जाता है कि दुराग्रही हो जाता है। उसके आग्रहों को न माना जाये तो अपने गणों को साथ लेकर तांडव करने लग जाता है। संसद में यह तांडव आप लाइव देखते ही हैं और समय-समय पर सड़कों पर भी देखते हैं। इन   लाइव कार्यक्रमों को वैसे तो आप नि:शुल्क देखते हैं लेकिन यह आंकलन भी साथ-साथ चलता है कि राष्ट्र  और जनगण इसकी कब-कब,कितनी-कितनी क़ीमत चुकाता रहता है। अब आपके सामने दो विकल्प हैं, एक है कि जैसा चल रहा है वैसा चलने दो। दूसरा है इस समस्या के समाधान हेतु कुछ किया जाये।
    दूसरे विकल्प में पुनः दो विकल्प हैं। एक तरीक़ा है, जब-जब कोई नया संगठन पैदा हो आप अपनी भावुकता से पैदा हुई दुर्बलता से वशीभूत हो कर उसके समर्थक या अनुयाई बन जाएँ और नया तानाशाह व नया दुराग्रही उपजाने में मदद करते रहें। इस तरह नए-नए दल उपजते रहेंगे और दल-दल का अधिकाधिक विस्तार होता रहेगा। नकारात्मक वातावरण वाले नरक का साम्राज्य बढ़ता रहेगा। यदि सकारात्मक वातावरण एवं सुख-शान्ति वाला स्वर्ग चाहिए तो मान कर चलें ख़ुद मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता। अतः दूसरा विकल्प है आप अपने आप को जानें और एक मतदाता के धर्म का उपयोग-प्रयोग करें। परम्परा कहती है,"जहाँ धर्म है वहाँ विजय है।" आप अपना प्रतिनिधि संसद में भेजें.
      आप यह क्यों चाहते हैं की इसके लिए संविधान में संशोधन हो अथवा  चुनाव आयोग कुछ कदम उठाये यह आपका कर्तव्य और अधिकार है की आप निर्दलीय को अपना प्रतिनिधि चुन सकते हैं.इस क्रान्ति में न तो आपको चन्द्रगुप्त की तरह का,न शिवाजी की तरह का,और न ही स्वतंत्रता सेनानियों की तरह का भारी पराक्रम दिखाना है सिर्फ अपने संसदीय क्षेत्र के जन साधारण से मैत्री करनी है और अपना प्रतिनिधि चुनना है.अगर इतना सा पराक्रम नहीं कर सकते तो फिर इस नरक [नकारात्मक वातावरण] से निकल कर स्व के अर्ग की
सोचने का भी आपको अधिकार नहीं है।

12. ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या ! अहम् ब्रह्मास्मि !


     चूँकि जगत के इन तीनों रूपों; 1.राष्ट्रीय-संविधान 2.साम्प्रदायिक मान्यताएँ और 3.सामाजिक रीति-रिवाज़ की प्रणालियों के लिए आपका ब्रेन,डिज़ाइन करने के लिए कोई ना कोई मिथक गढ़ता है,जैसे कि मुद्रा, मान्यताएं,शुभ-अशुभ,पाप-पुण्य,संविधान इत्यादी अतः जब नई व्यवस्था प्रणाली बनाई जाती है तब तो इनके बनाने के पीछे जो तर्कसंगत वैज्ञानिक अवधारणाएँ होती हैं वे आपके ब्रेन में सुस्पस्ट होती हैं लेकिन कालान्तर में जब कामार्थ भाव वाली कॉमर्स पुनः हावी हो जाती है और उन मिथकों का भी वाणिज्यीकरण हो जाता है तब फिर अध्ययन-चिंतन-मननशील व्यक्ति अर्थात ब्रह्म में रमण करने वाला ब्रह्मण,विकृत हो चुकी व्यवस्था-प्रणालियों को पुनः डिज़ाइन कर सकता है, इसी सन्दर्भ में कहा गया है ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या। 
    ब्राह्मण:- यहाँ ब्राह्मण शब्द को अन्यथा न ले जायें। आप के पास ब्रेन है और वह ब्रेन अन्य की बनायी गयी मिथकीय अवधारणाओं को अंधभक्त बन कर स्वीकार नहीं करता है और अपनी मौलिक अवधारणाएँ बना सकता है अतः आप ब्राह्मण हैं।
    क्षत्रिय:- आपका अपना एक स्वतन्त्र प्रशासनिक क्षेत्र शरीर है अतः आप क्षत्रिय भी हैं।
    वैश्य:- जब आप अन्य से सरोकार, इस लिए रखते हैं कि इस लेन-देन के बिना जीविका चल नहीं सकती अतः आप वैश्य भी हैं।
     लेकिन आपका अपना मैं,अहम् ही वह सत्य है जो हर वास्तविकता को जानता है और समसामयिक यथार्थ को जान कर नए मिथक गढ़ सकता है। अतः ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है।
     जब तक भारत ब्राह्मणक्षत्रियों या क्षत्रियब्राह्मणों का ही भारत होता है तब तक भारत में धर्म को पुस्तकीय आयाम की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि दिमाग और जिस्म दोनों व्यक्तिगत धर्म है अतः आपका बोध Common sense,Sense of KARM, Realization,  Perception आपके स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता Awareness पैदा कर देता है जो की आपका स्वस्फूर्त धर्म होता है.लेकिन जब मुद्रा का प्रचलन हो जाता है और सनातन धर्म चक्र वाली अर्थव्यवस्था को तहस नहस कर दिया जाता है और आपके जीवन यापन का आधार खिसक जाता है तब आपको अहसास, Realise होता है कि अब एक सामूहिक धर्म की आवश्यकता है। उसी सामूहिक धर्म को सम्प्रदाय,religion कहा जाता है जिस का उदेश्य ही समूह में सामूहिक अर्थ व्यवस्था को,समानता को स्थापित करना होता है. 
     इसी परिपेक्ष्य में गीता के रूप में पहली धार्मिक पुस्तक उतरी जिसमे सभी पूर्ववर्ती वैज्ञानिक खोजों का सक्षिप्त में एक स्थान पर संग्रह कर दिया गया।इस के ही विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुए हैं।आज जब, चाहे मुर्खता कहें या धूर्तता या फिर बालकबुद्धि जनित राग-द्वेष कहें, ये साम्प्रदायिक संस्थाएँ जब अपना धर्म निभाने में असमर्थ है,राज्य शासन-प्रशासन संविधान के अनुरूप कर्तव्य निभाने में असमर्थ है और सब कुछ पूंजी की सत्ता का खेल हो गया है तो ब्रह्म ही वह केन्द्रीय सत्ता है जो वास्तविकता को समझ कर मिथकीय मान्यताओं को नया समसामयिक रूप दे सकती है। 
     इसीलिए आज पुनः ऐसी स्थिति आगई है जब नवधार्मिक,नवबौद्धिक,नवधनाड्य,नवराजनेता और नये शाहीनोकर वर्ग धर्म के मूलाधार की संगठित होकर अवहेलना कर रहे हैं तो इनका सामना नव युवा विद्यार्थी ही आंदोलित होकर कर सकते हैं।
     यहाँ आपको राक्षसों वाला आक्रमणकारी आन्दोलन नहीं करना है बौद्धिक आन्दोलन करना है।खूनी क्रान्ति नहीं करनी है क्रमबद्ध कार्य क्रम से क्रान्ति करनी है.अधिक से अधिक यह हो सकता है की निर्दलीय के सामने दलदल आजाये तो उसे बलपूर्वक ठोस या द्रव में बदलने के लिए ब्रह्म का उपयोग करके ढोस कदम उठा सकते हैं। इसे हिंसा नहीं माना जायेगा बल्कि मानसिक हिंसा को नष्ट करने का स्थायी उपाय माना जायेगा।


11. जगत के कल्याण से तात्पर्य !


     जगत के तीन आयाम होते हैं। 
   1. जब हम जीव-जगत कहते हैं तो उसका तात्पर्य उस प्राकृतिक Economics से होता है जिसे Ecology (पारिस्थितिक चक्र) कहा गया है। वनस्पति-जगत ऑक्सीजन व खाद्य-सामग्री देता है तो प्राणी-जगत उसे पेमेंट के रूप में कार्बन डाईऑक्साइड व खाद-सामग्री[मल-मूत्र] दे देता है। इस प्रक्रिया को भावों का सम आदान-प्रदान कहा गया है। इस प्रक्रिया को सुचारू चलने देना और इसके लिए वनों की रक्षा करना जगत कल्याण का पहला आयाम है।
    2.  जगत-कल्याण का दूसरा तात्पर्य सामाजिक-अर्थव्यवस्था से है,जो बिना मुद्रा के,वस्तु विनिमय व दान से चलती है। हम एक दूसरे की आवश्यकताओं का,हितों का परस्पर ध्यान रखते हैं। भारत जो कि त्योहारों-उत्सवों का देश माना जाता है और त्योहारों पर दान देने का प्रचलन और पुरानी बातों को भुला कर वैमनस्य दूर करने के लिए मिलना जुलना इत्यादि सामाजिक अर्थशास्त्र के हितार्थ हेतु प्रचलित किये गये। 
    3.  जगत-कल्याण का तीसरा तात्पर्य राष्ट्रीय राजनैतिक अर्थव्यवस्था से है जो वाणिज्य एवं टैक्स पर चलता है। इसमें विषमता न होने पाए इसके लिए संविधान बनाते हैं और संविधान में संशोधन करते हैं।
     ये जगत के वे बनावटी रूप हैं जिनको आपका ब्रेन[ब्रह्म] पुनः पुनः डिज़ाइन करता रहता है। अतः जगत के कल्याण हेतु आप अपने निजी स्तर पर जो कुछ भी करते हैं वह प्रशंसनीय है लेकिन आज जब सामाजिक संरचना खंडहर हो गयी है और राष्ट्रीय साम्राज्य के सामने सभी बौने हो गए हों और यह जो साम्राज्यवादी शासन-प्रशासन व्यवस्था-प्रणाली, Imperialistic governance administrative arrangements systems है इसमें इस तरह बँधे हुए हैं कि कोई भी पूंजीपति; मदारी बन कर बंदरिया की तरह,इस व्यवस्था के माध्यम से पूरे देश को नचा सकता है।
   अतः आज के परिप्रेक्ष्य में जगत के कल्याण हेतु निजी स्तर पर किये जा रहे प्रयास का लाभ भी अन्ततः पूंजीपति के हित में जाते हैं। अतः आज अर्जुन को,एक भावी शासक दल के एक सदस्य को कहे  गए आख्यान गीता, में बताये गए उपायों को समझना चाहिए।
  विगत समय[19वीं सदी तक] जब भारत में किसान-क्षत्रिय एवं ब्राह्मण-अध्यापक ही सर्वोच्च सत्ता में थे तब धर्म के इस वैष्णव-आख्यान गीता को इतना महत्त्व नहीं दिया गया लेकिन आज जब वैश्य वर्ग के वर्चस्व में वैश्विकरण हो गया है तो इस आख्यान का महत्त्व भी बन गया है। अतः वेदव्यास के ब्लॉग्स में गीता की व्याख्या पढ़ें। जिनकी धृति राष्ट्र में बँधकर रह गयी है ऐसे धृतराष्ट्र के पुत्रों धार्तराष्ट्रों से, भारतदेश और भारतवर्ष को बचाने के लिए जो प्रयास किये जा रहे हैं, वही प्रयास जगत के कल्याण का हेतु बन जायेगा।    

10. ध्यान-समाधि, आत्म-कल्याण क्या है ?


ध्यान-समाधि क्या है ?
    जब आप अपने-आप में स्थिर-स्थित हो जाते हैं तो आप के अन्दर का भगवान् [सृष्टम System] आपको अपने-आप समाधि की तरफ अवश करके धकेलता है। आप अपने-आप में मगन रह कर,बिना किसी कामना के कोई काम [जैसे कि बाग़वानी,साफ़-सफ़ाई,दैनिकचर्या इत्यादि के काम ] करते हुए जब स्थिर-चित्त[शम] हो जाते हैं तो समाधि की स्थिति अपने-आप बन जाती है।
आत्म-कल्याण का परिणाम
     गीता की भाषा में: 'समाधि का हेतु कर्म नहीं शम होता है' ! जिस तरह सम का तात्पर्य वातावरण व परिवेश में सम स्थिति से होता उसी तरह शम का तात्पर्य देह के अन्दर की आधि-व्याधियों[मानसिक-शारीरिक बीमारियों] के शमन से होता है। गीता के इस वाक्य का तत्वार्थ है कि समाधि इस हेतु नहीं ली जाती है कि आप कर्म के नाम पर कोई ऊटपटांग काम करके अनावश्यक कर्मों का विस्तार करें बल्कि इस हेतु ली जाती है कि भौतिक शरीर में शम की स्थिति को स्थाई करके जब आप शम्भु बन जाते हैं तब एक तरफ़ तो आप पर ईश्वर का अनुग्रह हो जाता है जिस के परिणामस्वरुप आप अकाल मौत नहीं मरते,आपके शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। क्योंकि... 
     ईश्वर ही शरीर के अणुओं-परमाणुओं को अनुशासित रख कर जीव प्रजातियों के देह की रक्षा करता है और दूसरी तरफ़ आपके ब्रह्म[brain] में भी सत्व की वृद्धि होने से आप को कार्य-अकार्य,उचित अनुचित, भाव-अभाव इत्यादी उभयपक्षी सत्य का बोध होने लग जाता है तब आपमें निर्णय क्षमता बढ़ जाती है। तब व्यर्थ के काम करके कर्म का अनावश्यक विस्तार करने के स्थान पर संतुलित कर्म करते है।  
     ब्रह्म और ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त कर लेना ही आत्म-कल्याण कहा गया है। जब आप में मानसिक-सामर्थ्य एवं शारीरिक-क्षमता[कार्यक्षमता] या कहें शारीरिक-मानसिक-बल पर्याप्त होता है तब फिर दूसरी तरफ़ जगत के कल्याण हेतु आप इस योग्य योगी बन पाते हैं कि जगत में व्याप्त विषमताओं के कारण जानकर फिर उन कारणों के निराकरण के उपाय कर सकते हैं। वर्ना आपका मूल्यांकन परम-अर्थ को जानने तक नहीं पहुँच पाता है और आप स्वनिर्धारित अर्थ में उलझ कर रह जाते हैं।


9.. आत्म-कल्याण+ जगत-कल्याण क्या होता है ?




     धर्म के तीन आधार होते हैं क्योंकि जिस प्रकृति[भगवान] ने जगत का क्रमिक विकास किया है वह त्रिगुणात्मक है। तीन गुण;तीन-गुना-तीन के गुणनफल से क्रमिक विकास करते हैं।
     धार्मिक-वैज्ञानिक भाषा में जिसे अध्यात्म-आदिदेव-अधिभूत नाम से जाना जाता है,साहित्यिक-वैज्ञानिक भाषा में स्वभाविक मनोविज्ञान [Nature due to Psychology],शरीर और शरीर विज्ञान [Substance and Physiology], देह के भरण पोषण हेतु आहार Organic appropriate foods की उत्पादन प्रक्रिया [Ecosystem-based economy] कहा गया है।
     इसी तरह सामाजिक-धर्म की भाषा में तीन आधारों को शिक्षा+स्वास्थ्य+जीविका-उपार्जन Education + Health + living - Procurement कहा गया है।
     इसमें प्रथम दोनों आत्म-कल्याण के विषय हैं तथा तीसरा समाज[जगत] के कल्याण का,सामूहिक  कल्याण का विषय है। सामूहिक कल्याण के यानी समाज-विज्ञान के सभी विषय अंततः अर्थशास्त्र में merge हो जाते हैं।
    अतः व्यक्तिगत-जीवन में जो शिक्षा को ब्रह्म के विकास [Brain development] तथा क्रीड़ाओं को शारीरिक स्वास्थ्य के परिप्रेक्ष्य में [In the context of physical health] नहीं देखता,वह मूर्ख है। 
   इसी तरह सामूहिक-जीवन में जो अर्थशास्त्र के सिद्धांतों [Principles of Economics] की अवहेलना करता है,वह मूर्ख है। 
   लेकिन जो अर्थशास्त्र को कॉमर्स में बदल लेता है [Economics takes to convert in commerce] यानी काम एवं अर्थ जनित स्व-अर्थ की आपूर्ति करने के लिए सामूहिक हितों की अनदेखी करता है,वह धूर्त है।
    जो रोजगार के कार्यों  की अवहेलना करके आत्म-कल्याण के नाम पर गृहस्त जीवन त्यागता है वह मुर्ख की श्रेणी में आता है और जो इस सांप्रदायिक भेष Appearance का उपयोग कामार्थ के लिए करता है वह धूर्त की श्रेणी में आता है।
    कोई भी व्यक्ति हो चाहे धर्माध्यक्ष हो या राष्ट्राध्यक्ष हो या फिर चाहे वाणिज्य प्रतिष्ठान का अध्यक्ष हो यदि वह त्रुटी,गलती करता है या फिर संस्था को हानि पहूँचने जैसा निर्णय लेता है तो इसके पीछे दोनों मे से एक कारण अवष्य होता है या तो वह अज्ञानी या मूर्ख है या फिर वह जान-बूझ कर कर रहा है अतः धूर्त है।अतः चाहे कोई कितना ही योग्य हो लेकिन वह मूर्ख अथवा धूर्त होने के कारण अयोग्य की श्रेणी में आएगा। इसीलिए गीता में सिर्फ आत्म-संयम योग में ही,एक स्थान पर ही कहा है 'तस्मात् अर्जुन योगी भव' बाकि स्थानों पर सिर्फ वस्तुस्थिति [वास्तविकता] को ही स्पष्ट किया है.
   योग्य को योगी कहा गया है वेशभूषा Costumes से कोई व्यक्ति योग्य योगी नहीं हो जाता।
   अतः जब तक आप धूर्तता और मूर्खता से मुक्त नहीं होंगे,विषमता से मुक्त व्यवस्था-प्रणालियाँ आप को स्वीकार नहीं होंगी।
    अतः पहली आवश्यकता होती है आत्म-कल्याण करना,आत्म-संयम योग पर योगारूढ़ होना, तब वह ईमानदार और योग्य योगी बनता है, तब वह जगत के हित के लिए ईमानदारी से सोच पाता है.आप के भारत में इस विषय में अधिक सोचने,चिंता करने की आवश्यकता नहीं है आपको बड़ी संख्या में ऐसे योगी मिल जायेंगे लेकिन उन्हें खोज कर लाना पड़ेगा वे अपने-आप चलाकर राजनीती में नहीं आयेंगे।  
  

सोमवार, 16 जुलाई 2012

8. लोकतांत्रिक अधिनायकवादिता !


जम्हूरियती तानाशाही       Democratic dictatorship.
        एक लम्बे काल तक प्राकृत भाषाओं को संस्कारित करके विकसित हुए संस्कृत भाषा के शब्दकोष के मूल शब्द मुश्किल से चार-पाँच सौ धातु रूपों से बने हैं। इस धार्मिक-वैज्ञानिक भाषा के एक गुरु शब्द से गवर्न,गवर्नर,गवर्नमेंट,गरिमा,गौरव,गुरुत्व,ग्रेविटी इत्यादि शब्द बने हैं। आत्म-कल्याण के  मार्ग में एक गुरू जहाँ बाधा बन जाता है उसके विपरीत जगत के सार्वजनिक जीवन में गुरु बिना कल्याण नहीं,मुक्ति नहीं,मोक्ष नहीं। लौकिक जीवन में आप प्रतिक्षण किसी ना किसी से गवर्न होते रहते हैं और किसी न किसी को गवर्न करते भी रहते हैं।
        गवर्न करने की तीन सनातन पद्धतियाँ यानी व्यवस्था-प्रणालियाँ होती हैं,जो शरीर की त्रिगुणात्मक  प्रकृति के अनुकूल वर्गीकृत होती हैं। इसे वैदिक[वैज्ञानिक] शब्दावली में देव-पद्धति,रक्षस-पद्धति,यक्ष-पद्धति कहा गया है।
        देव जब देव को गवर्न करता है तो वह उसे गुर[विद्याएँ,technology,तरीक़े] सिखाता है जिससे अर्थ का उपार्जन कर सके। साथ ही साथ आचार्य बनकर आचरण सिखाता है, शिक्षक बनकर शिक्षा देता है।
       रक्षस से राक्षस[आतंकी,आक्रमणकारी] और रक्षक[सुरक्षा देने वाला,सरंक्षक] दो शब्द बनते हैं।  रक्षस जब गवर्न करता है तो बलप्रयोग करता है।
        यक्ष जब गवर्न करता है तो वचन में बाँधता है, अनुबंध का उपयोग-प्रयोग करता है।
        देव-रक्षक व्यवस्था-प्रणाली में विद्या-अध्ययन एवं सरंक्षण,सुरक्षा को प्राथमिकता देकर अर्थ-व्यवस्था की रूपरेखा डिज़ाइन की जाती है।
        यक्ष-राक्षस प्रणाली में वचन एवं अनुबंध में बाँध कर अर्थव्यवस्था की रूपरेखा तैयार की जाती है। अनुबंध तोड़ने पर बल प्रयोग किया जाता है। आतंकित करना,आर्थिक-शारीरिक दंड देना अनुशासित रखने का तरीक़ा होता है। वर्त्तमान में पूरी दुनिया में यक्ष-राक्षस प्रणाली प्रचलन में है।
        देव-रक्षक शास्त्रीय अर्थव्यवस्था हेतु धन-धान्य का उत्पादन करते-कराते हैं। जबकि यक्ष-राक्षस कॉमर्शियल अर्थव्यवस्था हेतु ऋण देने के लिए मुद्रा छापते हैं और आयुधों के निर्माण में धन का दुरूपयोग करते हैं।
       छठी से सोलहवीं शताब्दी तक के काल-खंड में भारत में देव-रक्षक शासन-अनुशासन प्रणाली थी जो मुग़लों के और यूरोपियन कम्पनियों के स्थापित होने के बाद धीरे-धीरे यक्ष-राक्षस शासन-प्रशासन प्रणालियाँ प्रचलन में आने लग गईं। आज विश्व के अन्य सभी राष्ट्रों के साथ-साथ भारत में भी यक्ष-राक्षस शासन-प्रशासन प्रणाली स्थापित हो गई है। अतः अब जनगण अनुशासन को अप्रासंगिक मान कर आत्मानुशासित,स्वनियंत्रित और स्वानुशासित रहने की अवहेलना करने लग गई है और प्रत्येक  कार्य,गतिविधि एवं सार्वजनिक अनुशासन के लिए प्रशासन का मुँह देखती है।
       भारत जहाँ की भूमि पर विश्व की सर्वाधिक वनस्पति प्रजातियाँ (क़िस्में) उपजती हैं एवं सर्वाधिक प्राणी प्रजातियाँ[नस्लें] पैदा होती है। जहाँ के लोग यहाँ तक कहते थे कि "कोई नृपु होय हमें का हानि।" जब तक हमारे ऊपर देवताओं के राजा इंद्र[मानसून] की कृपा है,राजाओं का कर[टैक्स] हमें दरिद्र नहीं बना सकता। जिस समय यह लोकोक्ति बनी थी उस समय के लोगों ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि भारत भूमि पर एक समय ऐसी शासन-प्रशासन प्रणाली लागू हो जायेगी कि धन-धान्य पैदा करने वाला वर्ग ग़रीबी की रेखा से भी नीचे आ जायेगा क्योंकि उनको अपनी उपज की क़ीमत तक नहीं मिलेगी। यह सब तब होगा जब भारत में प्रजातंत्र होगा किन्तु प्रजा की नहीं चलेगी। लोकतंत्र होगा लेकिन लोगों की नहीं चलेगी। जहाँ एक राजा नहीं,अनेक राजा होंगे,सभी स्वायम्भू अधिनायक होंगे।
      ऐसा इसलिए हो रहा है कि आज शासन-अनुशासन नाम की कोई चीज़ नहीं है,सिर्फ़ प्रशासन है जो एक निश्चित अवधि के नौकर,दास,ग़ुलाम,वेतनभोगी कर्मचारी होते हैं। फिर भी ये अधिकारी कहलाते हैं क्योंकि भारत की राजकीय व्यवस्था में सारे अधिकार इन्हीं के पास हैं। ये ख़ुद अनुबंध में बँधे अनुबंध की फ़ाइलें चलाते हैं तो राष्ट्र चलता है, फ़ाइलें रूक जाती हैं तो राष्ट्र रुक जाता है। यहाँ समझने की बात यह है कि भारतीय संविधान में सभी अधिकार राष्ट्रपति के पास हैं और राष्ट्रपति के माध्यम से प्रशासनिक अधिकारियों के पास हैं। बाक़ी सब के पास केवल भ्रम है। स्वयं राष्ट्रपति संसद से बँधा है। इस प्रशासनिक व्यवस्था को लोकतांत्रिक व्यवस्था नाम दिया गया है।
  आज सभी राष्ट्रों के राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री तक भी एक तरह से वेतनभोगी प्रशासनिक कर्मचारी ही हैं। अतः दूरगामी परिणाम देने वाली,स्थाई समाधान वाली,सर्वकल्याणकारी योजनाओं में इनकी रुचि नहीं रहती। क्योंकि इनकी ख़ुद की सत्ता का कार्यकाल ही छोटा होता है। इससे भी महत्वपूर्ण कारण है कि विश्वके इन सभी वेतनभोगी अस्थायी अधिकारियों,नेताओं,नराधीशों,राष्ट्राध्यक्षों के ऊपर एक गुरु-वर्ग बैठा है। ये मुट्ठीभर हैं फिर भी स्थाई सत्ता इन पूँजीपति गुरुओं के हाथ में बनी रहती है। इनकी मर्ज़ी के बिना ये बड़ी-बड़ी हस्तियाँ कहीं भी अपने हाथ से हस्ताक्षर तक नहीं कर सकतीं जबकि इन पूंजीपति गुरुओं की मर्ज़ी हो तो हस्ताक्षर करने से मना नहीं कर सकतीं। फिर भी इन उच्चपदस्थ वर्ग से लेकर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों तक सभी स्वायंभू अधिनायक बने बैठे हैं।
         इससे भी अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह बन गया है कि सभी दलों के हाईकमान भी तानाशाह हो गए हैं। तानाशाह बनने की एक लोकतांत्रिक पद्दति विकसित हो गई है। यह पद्धति वैसे तो सभी संगठन, संस्थाएं,संघ,एनजीओ से लेकर धार्मिक-सांप्रदायिक-आध्यात्मिक वर्ग द्वारा भी उपयोग में ली जाती हैं किन्तु उनका दोष इसलिए नहीं माना जाये क्योंकि जैसा राजा वैसी प्रजा।
   आज जो कोई भी दस-बीस,सौ -दो सौ लोगों को भी इकट्ठा करने में सफल हो जाता है वह अपनी सफलता में इतना इतराने लग जाता है कि दुराग्रही हो जाता है। उसके आग्रहों को न माना जाये तो अपने गणों को साथ लेकर तांडव करने लग जाता है। संसद में यह तांडव आप लाइव देखते ही हैं और समय-समय पर सड़कों पर भी देखते हैं। इन लाइव कार्यक्रमों को वैसे तो आप नि:शुल्क देखते हैं लेकिन यह आंकलन भी साथ-साथ चलता चाहिए कि राष्ट्र  और जनगण इसकी कब-कब, कितनी-कितनी क़ीमत चुकाता रहता है। अब आपके सामने दो विकल्प हैं, एक है कि जैसा चल रहा है वैसा चलने दो। दूसरा है इस समस्या के समाधान हेतु कुछ किया जाये।
    एक देव जब गुरु होता है तो अधिक से अधिक दंड के रूप में डंडा चला सकता है या अनुशासन तोड़ने पर तप करवा के तपा सकता है। संरक्षक शारीरिक दंड दे सकता है। राक्षस होगा तो कुछ लोगों का ख़ून बहा सकता है। यह बहता हुआ ख़ून कम से कम दिखता तो है। जबकि एक अकेला यक्ष जब गुरु बन कर वित्त (पूंजी) के माध्यम से गवर्न करता है तो एक स्थान पर बैठा-बैठा पूरी दुनिया का ख़ून चूस लेता है जो कहीं भी बहता हुआ नहीं दिखता।
        इन तीन तरह के गुरुओं की तानाशाही से बचाने के लिए किये गए अनेक उपायों में से एक उपाय प्रजातंत्र है। लेकिन आज की विडम्बना यही है कि आज के गुरुओं ने तानाशाही की प्रजातांत्रिक पद्धति खोज निकाली है।
         धर्म के नाम पर दूसरे सम्प्रदाय को गालियाँ निकालो,भावुक अन्धानुयाइयों का झुण्ड इकट्ठा हो  जायेगा। जनसमर्थन की जनतांत्रिक पद्धति से धर्मगुरु बन कर चाहे जैसी तानाशाही की जा सकती है। अपने अनुयाइयों पर भी और अपने विरोधियों पर भी। जो उसका समर्थन नहीं करे उस पर भी वह भाषाई आक्रमण की तानाशाही करने के लिए अधिकृत हो जाता है। जाति के नाम पर,क्षेत्र के नाम पर,व्यापार के नाम पर,N.G.O.के नाम पर चाहे जिस संस्था,संगठन,यूनियन  इत्यादि के नाम पर जन को,लोगों को, प्रजा को इकठ्ठा कर लो, लो हो गया डेमोक्रेटिक सिस्टम। अब चूँकि इन संस्थाओं का एक मुखिया होता है तो वही सब का गुरु होता है। पूर्वाग्रह ग्रस्त गुरु का जो भी आग्रह-दुराग्रह होगा सब को मानना पड़ेगा। लो हो गई लोकतांत्रिक तानाशाही!
          सबसे रोचक तानाशाही आध्यात्मिक गुरुओं की होती है। अध्यात्म धार्मिक-वैज्ञानिक शब्द है।जिसको साहित्य की भाषा में स्वभाव,प्रवृत्ति और नीयत तीन शब्दों से व्यक्त किया जाता है। स्वाभाविक स्वभाव की स्वाभाविकता को बनाये रखना अध्यात्म कहा गया है। जैसी शरीर की प्रकृति होती है वैसी ही उसकी मनो-प्रवृति होती है। अतः उसी के अनुकूल वह वृत्ति (जॉब) का चुनाव करता है। जैसी उसकी नीयत होती है,नियति उसी तरफ़ उसे अवश करके धकेलती है। इसमें दूसरा(कोई) क्या कर सकता है ?  
    लेकिन देख कर हँसी तब आती है जब एक आध्यात्मिक गुरु ख़ुद अपने स्वभाव की स्वाभाविकता त्याग कर दर्प में रहता है और अभिनय करता सा लगता है। साथ ही साथ फ़रमान भी जारी करता है कि क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए। उसकी नीयत उसे चेलों को स्थाई ग्राहक बनाने की तरफ़ धकेलती है।उसने ख़ुद अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल वृति का चुनाव किया होता है। ऐसे उन गुरुओं की अस्वाभाविक बातों को न मानने पर,अस्वाभाविक तरीके से अभिवादन नहीं करने पर वे तानाशाही भाषा का उपयोग करने लग जाते हैं। लेकिन चूँकि वे अध्यात्म विषय[Psychology] के विशेषज्ञ तानाशाह होते हैं फिर भी इनके अनुयाइयों की बड़ी संख्या होती है। अतः इसे लोकतांत्रिक पद्धति कहा जा सकता है और इसी कारण लोकतंत्र में इनको इसका अधिकार है। यहाँ तक कि ये लोग शब्दों की निजी परिभाषा गढ़ लेने का अधिकार भी रखते हैं।
        इन सब प्रकार की तानाशाहियों का प्रभाव उनके अनुयाइयों की मानसिकता को ही बाँधता है। लेकिन बड़ी पार्टियों के हाइकमानों की तानाशाही से विद्रोह करके नया दल बनाने तथा जाति,क्षेत्र,सम्प्रदाय,वाद इत्यादि पर नये-नये दल कुकुरमुत्तों की तरह पैदा होकर जिस तरह का तानाशाही रवैया अपनाते हैं,जिस तरह अपने भत्ते बढ़ाने,चुनाव प्रक्रिया में सुधार नहीं करने,कृषि भूमि को शहरीकरण औद्योगीकरण की भेंट चढ़ाने जैसे अनेकानेक ऐसे मुद्दों और धन का दुरुपयोग जैसे मुद्दों पर पूरी की पूरी संसद एक मत होकर अवहेलना करती है। इस लोकतांत्रिक तानाशाही से मुक्त होना ज़रूरी है।
    यह तानाशाही श्रृंखला बहुत आगे तक जाती है,जो अंततः पूंजीपति गुरुओं पर जाकर रूकती है। अतः इस तानाशाही श्रृंखला को रोकना तभी संभव होगा जब इस दलीय राजनीति से मुक्ति मिलेगी। जब सांसदों पर हाईकमान नामक तानाशाह नहीं होंगे और वे अपने क्षेत्र की जनता के प्रति उत्तरदायी,जबाबदेह होंगे तभी नवभारत निर्माण सम्भव होगा।
     विशेष: अंतिम लक्ष्य नव भारत निर्माण योजना में मैंने अपने लिए भी स्वायम्भू अधिनायक नाम चुना है जबकि यहाँ इस शब्द को नकारात्मक आलोचना के लिए उपयोग में लिया है।
     अब आपको यह देखना है कि समाज में कौन-कौन ऐसे अधिनायक हैं जो अपने आप को [अहम् ब्रह्म को], वचन में बाँधकर, ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता मानने वाले दृढ निश्चयी हैं। जो अन्य पर शासन करने के लिए, अन्य को जीतने के स्वभाव के चलते, अधिनायक नहीं हैं बल्कि आत्म विजयी हैं अतः किसी भी प्रकार के लालच में आने वाले लोलुप नहीं हैं। ऐसे स्वायम्भू अधिनायकों को अपने समाज में खोजें।
     ऐसे स्वायम्भू अधिनायकों की, कम से कम,भारत में तो कमी नहीं है, लेकिन ऐसे लोग एकांत प्रिय होते हैं और आत्म-केन्द्रित रहते हैं अतः उनको खोजने का परिश्रम करना होगा। जय माँ भारती।