पृथ्वी का एक तात्पर्य यानी तत्वार्थ यह भी होता है की कमल की पंखुड़ियों की तरह इसके महाद्वीप हैं जो फैलते हैं। तो ऐसा लगता है जैसे समुद्र के बीच कमल खिल रहा है। इसी कमल पर ब्रह्म (जीव) की उत्पत्ति हुई है। जब पृथ्वी का जन्म हुआ था तब दोनों ध्रुओं पर बर्फ थी और एक ही भूमि थी जो कालांतर में द्वीपों और महाद्वीपों में बँट कर पृथक पृथक हो गयी।
पृथ्वी गाय का रूप धारण करके विष्णु के पास पहूँचती और कहती है कि; ये मेरे पुत्र (मनुष्य) मेरे स्तन पान पर निर्भर [ वनस्पति की उपज पर निर्भर] नहीं रहते हैं, बल्कि मेरा गर्भ [ भूगर्भ ] निकाल-निकाल कर खा रहे हैं। आप मेरी रक्षा करो ।
इस पर विष्णु कहते है; ऐसा है तो मैं इनको नष्ट कर देता हूँ ।
इस पर पृथ्वी कहती है; ‘‘नहीं ऐसा तो मत करना क्योंकि आखिर ये मेरे पुत्र हैं" ।
जिन्होने अपने बचपन में सेकड़ों और हजारों रूपयों का अभाव देखा था आज उनके पास अरबो-खरबों का अभाव है। जिसके पास सो करोड़ है वह एक हजार करोड़ के अभाव से ग्रस्त है और जिसके पास एक हजार करोड़ है उसका अभाव उसे दस हजार करोड़ का बनने की दिशा में धकेल रहा है ।
पृथ्वी के भोगोलिक और भौतिक असन्तुलन को तो प्रकृति पर विद्यमान सनातन धर्म चक्र स्वमेव सन्तुलित कर देगा लेकिन जिस दिन मानव ने मानसिक सन्तुलन खो दिया, उस दिन बेरोजगारों, आतंकियों, साम्प्रदायिक पागलों और निकम्मों का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा क्योंकि उनका तो पहले से ही बिगड़ा हुआ है, लेकिन आप लोग जो आर्थिक सत्ताओं, राजनैतिक सत्ताओं और साम्प्रदायिक सत्ताओं पर बैठे हैं! आपके ये ताश के महल जब धरासाही होंगे, उस समय आपकी स्थिति क्या होगी ? इस पर जरा धेर्य पूर्वक विचार कर लेवें और वैचारिक आन्दोलन को गम्भीरता से लेवें, ताकि आपकी सत्ताऐं भी अक्षुण बनी रहे और पृथ्वी पर मानव मात्र ही नहीं जीव मात्र फूले फले ।
आपको क्या चाहिये ?
मुद्रा, करेंसी, वित्त, सोना सभी कुछ मिलेगा अभी जितना है उससे अधिक मिलेगा, जो मिलेगा स्थाई मिलेगा।
बेरोजगारी क्या होती है ? और इन बेरोजगारों का क्या किया जाये ? ये सभी समस्याऐं समाप्त हो जायेंगी, बस सिर्फ इतना ही करना है कि धरती पर उपजने वाला सोना अधिक से अधिक उपजे, सोना उपजाने वालों की सम्पन्नता स्थाई हो ताकि उनकी क्रम क्षमता बनी रहे।
जब उनकी क्रय क्षमता बढ़ेगी और फिर बनी रहेगी तो आपके उद्योग और व्यापार भी खूब फलेंगे फूलेंगे । आपका भी हित होगा और धरतीपुत्रों,भूमिपुत्रों का भी हित होगा । देवों, रक्षसों एवं यक्षों का भी हित होगा और ब्राह्मणों ( शिक्षकों ) एवं क्षत्रियों ( कृषी उत्पादकों ) का भी हित होगा । वनों में रहने वाले प्राकृत जनों का भी हित होगा और एक सर्व-कल्याणकारी स्थिति बनेगी जबकि अभी तो सभी दृष्टिकोणों से अकल्याणकारी है । कोई स्थिति प्रिय है तो उचित नहीं है और इच्छित है तो हितकारी नहीं है।
ॐ तत सत