सम्माननीय पाठक !

नमस्ते !

{ नः मः अस्ते अर्थात [आपके बिना और आपके सामने भी ] मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। }

बात सारगर्भित भी है तो कुछ लम्बी-चौड़ी भी है अतःबात को संपादित करके कहने हेतू अभी 10 ब्लोग बनाए हैं.

"GISM" नामक इस ब्लॉग को केन्द्र में रखें और यहीं से पढ़ना शुरू करें।

देवर्षि नारद के तीन ब्लॉग में से

"सामाजिक पत्रकारिता" में जातीय व् साम्प्रदायिक संरचना को विस्तार से बताने पर लेखन केन्द्रित रहेगा।

"नैतिकता की राजनीति" में लेखन पौराणिक,प्राचीन तथ्यों एवं प्रकृति निर्मित संविधान,क़ुदरत के क़ानून,Nature Created Constitution,Laws of natural order of things पर केन्द्रित रहेगा।

"निर्दलीय राजनैतिक मंच" में लेखन वर्तमान की समसामयिक बातों पर केन्द्रित रहेगा।

इन तीनों ब्लॉग्स को आप "कला संकाय" [Faculty of arts] के विषयान्तर्गत पढ़ें।

"मुनि वेदव्यास" के चारों ब्लॉग को धर्म एवं विज्ञान के विषयान्तर्गत पढ़ें। धर्म को अपने आप के प्रति कर्तव्य एवं अधिकार के रूप में लें और विज्ञान को आयुर्विज्ञान के अंतर्गत लें।

इन चारों ब्लॉग्स को "दर्शन एवं विज्ञान संकाय" [Faculty of Philosophy and Sciences] विषयान्तर्गत पढ़ें।

"प्रणय विज्ञान" नामक "कार्तिकेय" के ब्लॉग को "वैवाहिक जीवन और नैसर्गिक आनंद" विषयान्तर्गत पढ़ें।

अंतिम चरण का ब्लॉग है "भव्य महा भारत निर्माण" ! इस ब्लॉग को "अर्थशास्त्र संकाय" [Faculty of Economics] विषयान्तर्गत पढ़ें। लेकिन चूँकि यह ब्लॉग "सांख्य और सांख्यिकी" [Principle Knowledge and Statistics] तक सीमित नहीं है बल्कि साँख्य का योग-प्रयोग-उपयोग [Experiment &-Applying to use] करना है अर्थात "व्यावहारिक धरातल [Practical Ground] पर नव महा भारत का निर्माण" करने हेतु पढ़ें।

इस तरह प्रथम चरण में हमें ज्ञान मार्ग से ध्यान मार्ग [Meditative Concentration via Knowledge path] से चलना है अतः सात्विक-बुद्धि,बोद्धिसत्व का उपयोग करके बुद्धि के देवता को काबू में करना है तब फिर फ़तह ही फ़तह है। फ़ारसी में कहा है 'हिम्मते मर्दां मददे ख़ुदा'। अतः प्रथम चरण में अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट करके,अपने आप में आत्मविश्वास बढ़ाने के कार्य से प्रारम्भ करें और पृथ्वी पर पुनः स्वर्ग बसाने के कार्य का श्री गणेश करें। अगले चरण स्वतः बढ़ते चले जायेंगे। बस नीयत होनी चाहिए नियति स्वतः लक्ष्य तक अवश करके धकेलती हुई पहुँचा देगी।

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य है जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

प्राक्कथन 6. हे पार्थ! अपनी माता पृथ्वी की रक्षा कर !



इस पृथ्वी का नाम पृथ्वी इसलिये है कि यह पदार्थ से बनी है.

पृथ्वी का एक तात्पर्य यानी तत्वार्थ यह भी होता है की कमल की पंखुड़ियों की तरह इसके महाद्वीप हैं जो फैलते हैं। तो ऐसा लगता है जैसे समुद्र के बीच कमल खिल रहा है। इसी कमल पर ब्रह्म (जीव) की उत्पत्ति हुई है। जब पृथ्वी का जन्म हुआ था तब दोनों ध्रुओं पर बर्फ थी और एक ही भूमि थी जो कालांतर में द्वीपों और महाद्वीपों में बँट कर पृथक पृथक हो गयी।

पृथ्वी के धरातल को धरती कहा गया है क्योंकि यह हमे धारण किये रहती है हमारे लिये पोष्टिक आहार पैदा करती है अतः यह हमारी धाय-मां भी है ।

यह देवी-देवता की श्रेणी में भी इसलिए आती है कि यह हमें जीने का आधार देती है और हमें ऐश्वर्यशाली जीवन के लिए "सकल पदारथ"  "सभी तरह के पदार्थ" देती है लेकिन 'करम हीन'  'कर्महीन' 'अकर्मण्य' नर को वे पदार्थ प्राप्त नहीं होते। 

भागवत महापुराणा में शब्दों का मानवीकरण करके इस पृथ्वी की पीड़ा व्यक्त की गई है। पृथ्वी जिसका एक नाम गाम भी है क्योंकि यह ऐसी चक्रीय गति से धूमती है कि पुनःपुनः एक-एक स्थान पर बार-बार आती है। गाय को भी इसी आचरण के कारण गाय कहा गया है। गाय,घोडा,हाथी ये ऐसे पशु हैं जो घूम कर पुनः उसी स्थान पर आते हैं।

पृथ्वी गाय का रूप धारण करके विष्णु के पास पहूँचती और कहती है कि; ये मेरे पुत्र (मनुष्य) मेरे  स्तन पान पर निर्भर [ वनस्पति की उपज पर निर्भर] नहीं रहते हैं, बल्कि मेरा गर्भ [ भूगर्भ ] निकाल-निकाल कर खा रहे हैं। आप मेरी रक्षा  करो ।


इस पर विष्णु कहते है; ऐसा है तो मैं इनको नष्ट कर देता हूँ ।


इस पर पृथ्वी कहती है; ‘‘नहीं ऐसा तो मत करना क्योंकि आखिर ये मेरे पुत्र हैं" ।


वर्तमान में पुनः हमारी यही स्थिति हो गई है और हम पृथ्वी के स्तन का दुग्ध कही जाने वाली वनस्पति की अवहेलना कर रहे है और खनन के माध्यम से इसका गर्भ निकाल कर उसका भोग कर रहे हैं । 

प्रकृति यानी विष्णु इसमें व्याप्त रहकर इसकी प्रत्येक गतिविधि का संचालनकर्ता है । इस संचालन प्रक्रिया के माध्यम से सन्तुलन बनते हैं । उसी सन्तुलन प्रक्रिया में भूकम्प आते हैं । सुनामी आती है, तुफान आते हैं और ज्वालामुखी फटती है । इन घटनाओं से भी एक सन्तुलन पैदा होता है । पृथ्वी पुत्र पार्थ होने के नाते हमारा कर्तव्य बनता है कि हम इस सन्तुलन में अपना सहयोग दें और पृथ्वी पर के रेगिस्तानों को हरा भरा करें ताकि जब कभी भी हमारा भौतिक निर्माण ध्वस्त हो जाये हम हमारे अस्तित्व को बचाने में सक्षम रहें । पृथ्वी के गर्म में छेद करने वाले खनन कार्यो से भी अधिक खतरनाक भूमि में किये जाने वाले परमाणु विस्फोटों से यदि पृथ्वी का सन्तुलन अंश  मात्र भी बिगड़ गया हो हमारा अस्तित्व समाप्त हो सकता है और पृथ्वी पुनः एक डायनासोर युग में जा सकती है।

पृथ्वी पुत्र पार्थ होने के नाते हमारा धर्म बनता है कि हम अपनी माता के स्वास्थ की रक्षा करें ना कि उसको अस्वस्थ करें। तो आईये हम एक ऐसी कार्ययोजना की शुरूआत करें जो हमारी अर्थव्यवस्था को मजबूत करे लेकिन उसका आर्थिक आधार हो प्राकृतिक उत्पादन ना कि इकतरफा औद्योगिककरण और शहरीकरण हो। इससे एक तरफ तो डिगरी-धारी साक्षर किन्तु अशिक्षित, खोटे ज्ञान वाले बेरोजगार युवाओं की अभावग्रस्त सेना खड़ी हो रही है जो कभी भी विद्रोह कर सकती है तो दूसरी तरफ अभाव ग्रस्त पुंजी-पतियों का वर्ग खड़ा हो रहा है जो भावना शुन्य और भयानक अभावों से त्रस्त हैं ।

जिन्होने अपने बचपन में सेकड़ों और हजारों रूपयों का अभाव देखा था आज उनके पास अरबो-खरबों का अभाव है। जिसके पास सो करोड़ है वह एक हजार करोड़ के अभाव से ग्रस्त है और जिसके पास एक हजार करोड़ है उसका अभाव उसे दस हजार करोड़ का बनने की दिशा में धकेल रहा है ।


एक तरफ तो सभी राष्ट्र परस्पर ऐसी प्रतिस्पर्धा में उलझ रहे हैं कि किसके राष्ट्र में कितने अरबपति और खरबपति हैं, तो दूसरी तरफ आपने शिक्षा का भी वाणिज्यिक-विस्तार कर दिया हैं जिससे पढ़े लिखे बेरोजगारों, निकम्मों, आतंकियों और असामाजिक युवाओं की सेना खड़ी कर रहे हैं।

पृथ्वी के भोगोलिक और भौतिक असन्तुलन को तो प्रकृति पर विद्यमान सनातन धर्म चक्र स्वमेव सन्तुलित कर देगा लेकिन जिस दिन मानव ने मानसिक सन्तुलन खो दिया, उस दिन बेरोजगारों, आतंकियों, साम्प्रदायिक पागलों और निकम्मों का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा क्योंकि उनका तो पहले से ही बिगड़ा हुआ है, लेकिन आप लोग जो आर्थिक सत्ताओं, राजनैतिक सत्ताओं और साम्प्रदायिक सत्ताओं पर बैठे हैं! आपके ये ताश के महल जब धरासाही होंगे, उस समय आपकी स्थिति क्या होगी ? इस पर जरा धेर्य पूर्वक विचार कर लेवें और वैचारिक आन्दोलन को गम्भीरता से लेवें, ताकि आपकी सत्ताऐं भी अक्षुण बनी रहे और पृथ्वी पर मानव मात्र ही नहीं जीव मात्र फूले फले ।


आपको क्या चाहिये ?

मुद्रा, करेंसी, वित्त, सोना सभी कुछ मिलेगा अभी जितना है उससे अधिक मिलेगा, जो मिलेगा स्थाई  मिलेगा।

बेरोजगारी क्या होती है ? और इन बेरोजगारों का क्या किया जाये ? ये सभी समस्याऐं समाप्त हो जायेंगी, बस सिर्फ इतना ही करना है कि धरती पर उपजने वाला सोना अधिक से अधिक उपजे, सोना उपजाने वालों की  सम्पन्नता स्थाई हो ताकि उनकी क्रम क्षमता बनी रहे।


जब उनकी क्रय क्षमता बढ़ेगी और फिर बनी रहेगी तो आपके उद्योग और व्यापार भी खूब फलेंगे फूलेंगे । आपका भी हित होगा और धरतीपुत्रों,भूमिपुत्रों का भी हित होगा । देवों, रक्षसों एवं यक्षों का भी हित होगा और ब्राह्मणों ( शिक्षकों ) एवं क्षत्रियों ( कृषी उत्पादकों ) का भी हित होगा । वनों में रहने वाले प्राकृत जनों का भी हित होगा और एक सर्व-कल्याणकारी स्थिति बनेगी जबकि अभी तो सभी दृष्टिकोणों से अकल्याणकारी है । कोई स्थिति प्रिय है तो उचित नहीं है और इच्छित है तो हितकारी नहीं है। 


ॐ तत सत 

प्राक्कथन 5; वैश्विक स्तर की विषमताऐं !

हे विश्व  के कर्णधारों ।

जब व्यक्तिगत स्तर की विषमता होती है तो व्यक्ति को अपने अन्दर शम को स्थापित करके शम्भु बनना पड़ता है ।

जब संस्थागत विषमताऐं होती है तो पूरे समूह को सम प्रदान करने के लिए सम्-प्रदाय (सम्प्रदाय) बना कर उसके लिए कुछ विवि-विधान, सम्-विधान (संविधान) बनाना पड़ता है । जिसे हम साम्प्रदायिक अथवा राष्ट्रीय धर्म कहते है। जिन का उदेस्य राजनैतिका,सामाजिक,आर्थिक तीन आधार सम करना होता है।

लेकिन जब हम विश्व स्तर की विषमताओं को सम से आप्त करना चाहें, समाप्त करना चाहें तो हमें धर्म के उस स्तर को समझना पड़ता है जो सम्प्रदायों एवं राष्ट्रों से ऊपर उठकर,समाज व्यवस्था से ऊपर उठ कर, मानव निर्मित सभी कानून कायदों से ऊपर उठ कर सम्पूर्ण पृथ्वी-ग्रह पर समान रूप से धारण किये जाने वाले धर्म को धारण करने सम्बन्धी है।


इस स्तर पर धर्म एवं विज्ञान एक दूसरे के पर्याय और पूरक हो जाते है अर्थात् उस धर्म को धारण करना होता है जो प्रकृति निर्मित है। विज्ञान के नियमों [प्रकृति निर्मित नियमों] से स्वतः ही भावों का परस्पर आदान प्रदान करके सनातन बना रहता है ।


सनातन उसे कहा गया है जो स्व-नियंत्रित,Self controlled,नान-डिस-कन्टीन्युअस,Nondiscontinuous अन-अवरूद्ध Unblock  होता है जिसकी निरन्तरता बाधित होने पर वह प्रकृति निर्मित धर्म से स्वतः निरन्तरता को प्राप्त कर लेता है । संस्कृत के इस सनातनधर्म शब्द को लेटिन में इकोलोजीसाईकिल  और हिन्दी में पारिस्थितिकी-चक्र कहा गया है। सभी धार्मिक-सम्प्रदायों या साम्प्रदायिक धर्मों का एक ही लक्ष्य बताया गया है, और वह लक्ष्य है "सनातन धर्म की रक्षा करना"।

मैं जहाँ तक समझता हूँ इस बिन्दु पर पूरे विश्व-समुदाय या मानव-मात्र को कोई ऐतराज नहीं होना चाहिये। कहने का तात्पर्य है कि इस बिन्दु पर हमें मानव निर्मित संस्थागत धर्मों से ऊपर उठकर एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना चाहिये। समग्र दृष्टिकोण में दो तरह की संस्थाएँ विशेष महत्व रखती हैं ।

एक तरह की संस्थाओं के नाम है राष्ट्र और दूसरी तरह की संस्थाओं के नाम हैं धार्मिक सम्प्रदाय । इन दोनों संस्थाओं का उद्धेश्य आर्थिक-विषमताओं में घिरे मानव समाज को सम-स्थिति प्रदान करना रहा था। लेकिन मानव के ये दोनों ही स्वनिर्मित धर्म वर्तमान काल की सभी विषमताओं के मूल कारण बन गये है ।

अब यहाँ एक प्रश्न उपजता है कि जब इनका उद्धेश्य  सम-स्थापित [ संस्थापित] करना है, प्रजा (जीव प्रजातियों ) को विषमताओं से लड़ने के लिए संगठित करना है, तो फिर इन दो संस्थाओ के विकास के नाम पर हम विषमताएँ क्यों फैला रहे हैं ? इसका कारण है हम काम एवं अर्थ में डूब गये हैं और हमने विविध प्रकार की कॉमसियल संस्थाऐं (वाणिज्यिक प्रतिष्ठान) खड़े कर लिये हैं जो इन दोनों संस्थाओं पर हावी हो गये हैं।

अब यदि हम अपने वैचारिक स्तर या मानसिक स्तर या भावनात्मक स्तर या तर्क एवं दर्शन (लौजिक एवं फ़िलोसोफ़ी) इत्यादि के स्तर को एक ऊंचाई पर ले जायें और फिर इन तीनों को समभाव से देखें तब जाकर हम विश्व स्तर की विषमताओं को सम में आप्त (समाप्त) करके जीवनकाल को सुर में, हारमोनियस काल-खण्ड में बदल सकते हैं ।

अब चुंकि इतने बड़े-बड़े विशिष्ट पदों पर बैठे विषिष्ट लोगों के सामने एक साधारण व्यक्ति की क्या औकात हो सकती है जो आप विश्वस्तरीय लोगों को कोई रास्ता सुझा सके ।

लेकिन यह ठीक उसी तरह है जिस तरह एक पहाड़ी जंगल में विद्वानों एवं शूरवीरों की एक बहुत बड़ी टुकड़ी को उस क्षेत्र का निवासी, एक छोटा सा बच्चा सुगम मार्ग बता कर उनके श्रम को कम कर सकता है।


जिस तरह से एक साधारण ग्वाला (गौपालक कृष्ण) आप को एक प्रशासनिक डिजाइन बना कर दे सकता है।


एक साधारण लकड़हारा (कालीदास) नाटककार के रूप में साहित्य की एक विद्या/विधा का जनक होकर शिक्षा पद्धति में क्रान्ति ला सकता है।


इसी तरह मैं भी एक डिजाईन बता सकता हूँ। उस डिजाईन से आप एक वर्गीकृत समाज व्यवस्था को स्थापित कर सकते हैं। चुंकि समाज व्यवस्था का ढाँचा ही वर्गीकृत है अतः सभी वर्गों के हित की एक उचित व्यवस्था इस ढाँचे में होगी अतः तब इसमें कोई किसी का विरोधी नहीं होगा सभी अपने-अपने वर्ग में सुख से रहेंगे। समस्या तो तब आती है जब एक वर्ग दूसरे सभी वर्गों पर हावी होना चाहता है और सभी वर्गों के कर्म एवं धर्म क्षेत्र में अतिक्रमण करना चाहता है ।


सिर्फ एक बिन्दु ऐसा है जिसको लेकर मैं आशंकित हूँ कि कहीं ऐसा नहीं हो कि मैने तप के संयोग से सोचने का जो स्तर पाया है और फिर उस ऊंचाई के दृष्टिकोण से दुनिया को देखा है और उसी दृष्टिकोण (नजरिये) की वजह से मैं यह डिज़ाईन बना पाया हूँ वह कर्म निष्फल न चला जाये।

निष्फल जाने की शंका का कारण और कारक है, आप लोगों के अंहकार का स्तर अर्थात् यदि आपके अहंकार का स्तर यही रहा और आपने अपने इस पूर्व निर्णय को नहीं बदला कि ‘‘हम तो लड़ेगे ही लड़ेगे । क्योंकि हमारे गुणसुत्रों में चैरासी लाख पशु-योनियों के गुण हैं । अतः हम तो राष्ट्रीय, साम्प्रदायिक और वित्तीय वर्चस्व के लिए आपस में  पशुओं की तरह लड़ेंगे, तू एक साधारण तुच्छ प्राणी हमें मार्ग दिखने की हिम्मत कैसे कर पाया ? अब यदि आपके अहंकार का स्तर पशुओं के स्तर का है जो बिना भिड़े नहीं रह सकते । कभी मादा के लिए, कभी घास के मैदान पर कब्जा हटाकर अपना कब्जा करने के लिए, तो कभी कभी सिर्फ अपनी-अपनी मासपेशियों और सींगों की शक्ति का प्रदर्शन करने जैसे स्तर का ही यदि आपका अहंकार है तो मान कर चले लड़कर ख़ुद भी मरना और दूसरों को भी मारना, यह आपकी नियति है ।


ऊँ तत् सत्


प्राक्कथन 4; संस्थागत विषमताएँ !


 हे भारत राष्ट्र !

[ जिसकी अर्थव्यवस्था का आधार प्राकृतिक उत्पादन है और भारत नामक अग्नि से प्रकाश-संश्लेषण क्रिया के परिणाम से भरपूर वनस्पति पैदा होती है]  

हे भारतीय विद्यार्थियों एवं मतदाताओं !

सुख चाहे कितना ही व्यक्तिगत हो, सामाजिक प्राणी के लिए संस्थागत विषमताएँ दूर करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। आज सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्था राष्ट्र कहलाती है । मैं इस ब्लोग्स के माध्यम से एक राष्ट्रीय क्रान्तिकारी आन्दोलन शुरू करवाना चाहता हूँ । जब भी क्रान्ति शब्द का उपयोग होता है तो कुछ चित्र आपके मानस में बनते हैं । जैसे कि हो-हुल्लड़ होता है । भीड़ इकट्ठी हो जाती है । लोग सड़कों पर उतर कर सड़क छाप बनते है ।

सबसे बड़ी बात है कि आन्दोलन करने के लिए एक नेतृत्व होता है उनके पीछे-पीछे राग में राग मिलाते हुए चलने वालों की भीड़ होती है । परिणाम यह होता है कि नेतृत्व करने वाला यदि स्वयं धूर्त है तब तो वह सत्ता का सुःख भोगता है और नेतृत्व ईमानदार होता है तो अंततः सत्ता धूर्त लोग हथिया लेते हैं ।


इस तरह 1857 की क्रान्ति से लेकर शुरू हुई सभी क्रान्तियों का परिणाम मात्र सत्ता-हस्तान्तरण होकर रह गया है. जबकि इन सभी क्रान्तियों में स्वतन्त्रता का बैनर लगाया गया था। किन्तु मैं जो आन्दोलन चाह रहा हूँ यह इन सभी बिन्दुओं से भिन्न है ।


पहली बात तो यह कि मैं आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए ना तो स्वयं सड़क पर उतरने जा रहा हूँ और ना ही आप को प्रेरित कर रहा हूँ, बल्कि यह आन्दोलन मैं नहीं कर रहा हम सब मिलकर कर रहे हैं। मैं तो संयोजक,समन्वयक हूँ। स्पष्ट भाषा में यह कि मैं यह नहीं चाहता की तमोगुणी अन्धानुयाईयों की भीड़ मुझे समर्थन दे, बल्कि मैं यह चाहता हूँ, आप मेरे मन्तव्य को समझ कर उस पर चिन्तन मनन करें और फिर स्व-विवेक से निर्णय करें। 

"सम्यक ज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है" के सिद्धांत पर चलकर काल-स्थान-परिवेश से बनी परिस्थिति का यथार्थ दृष्टिकोण से आंकलन करें और स्वयं ही अपने आप का नेतृत्व करें । जब आप अपने आप का नेतृत्व करने लग जायेंगे तब आप अपने क्षेत्र के उस वर्ग के हित में सोच सकेंगे जो वर्ग हमारी अर्थव्यवस्था का, हमारे जीवन के अस्तित्व का आधारभूत वर्ग है अर्थात् प्राकृतिक उत्पादन से जुड़ा बहुसंख्यक ग्रामीण एवं वनवासी वर्ग। यह वर्ग अपने जॉब में पारंगत है अर्थात शिक्षित है, सिद्धहस्त है लेकिन उसे निरक्षर कह कर आप उसे अपमानित करते है।

इसके समानान्तर आज जातीय संगठन समाप्त हो गए हैं यानी ये संगठन समाज के परंपरागत आरक्षित रोजगार के समर्थक नहीं रहे बल्कि किसी राजनैतिक दल के समर्थक और अन्य समाजों के साथ झगड़ा करने के समर्थक बन कर रह गए हैं। अतः जिस भारत में 'कोई नृपु होय हमें का हानि' की कहावत चलती थी, उसके पीछें जिस सामाजिक अर्थतंत्र की मजबुती थी वह तो अस्त-व्यस्त हो गया और आज पारिवारिक,सामाजिक [सांप्रदायिक। और प्रशासनिक तीनो स्तर की संस्थाएं असामाजिक तत्व बन कर रह गयी है। 

इसका कारण सिर्फ अववस्था है। न तो भ्रष्टाचार ही कोई मुददा है और न ही भारतीयों का नैतिक-पतन ही हुआ है।

इसका एकमात्र उपाय या तरीका व्यवस्थित तरीके से नया महाभारत [ वर्गीकृत संयुक्त भारत ] बसाया जाये।

प्राक्कथन 3.व्यक्तिगत विषमताऐं !


हे भारत!  [ जिसकी जठराग्नि में भारती नामक अग्नि पौष्टिका आहार की आहुति मांगती है उसका नाम भारत है।]

जीव जब अव्यक्त से व्यक्त में प्रवेष करता है तो स्वतन्त्र रूप से अकेला ही एक ईकाई बन कर व्यक्त होता है और अव्यक्त में जाने के समय भी अकेला ही जाता है । इस बीच का जो कालखण्ड है वह एक व्यक्ति का एक ‘‘जीवन‘‘ कहलाता है । उस जीवन में प्रत्येक जीव यही चाहता है कि वह सुखी रहे ।
सुःख एवं दुःख को महसूस करने की संवेदनशीलता जितनी हम मानवों में होती है उतनी पशुओं में नहीं होती । जबकि पशुओं में दुःख एवं सुख के प्रति सहनशीलता अपेक्षाकृत अधिक होती है या इस तथ्य को इन शब्दों में भी कह सकते हैं कि मानव में दुःख सुःख को लेकर दुर्बलता अधिक है जबकि पशुओं में प्रतिरोधक क्षमता अपेक्षाकृत अधिक होती है ।

संवेदनशीलता के कारण ही हम मौसम का, सुस्वादु भोजन का, आपसी व्यवहार का आनन्द लेते हैं लेकिन इसके समानान्तर हमारे शरीर में सहनशीलता,रोग प्रतिरोधक क्षमता नहीं हो तो आनन्द लेने के स्थान पर या आनंद लेने के बाद हम अस्वस्थ हो जाते हैं ।

ठण्डी-ठण्डी हवा का आनन्द लेने पर जु़काम हो जाता है, सुस्वादु  भोजन करने पर शुगर, ब्लडप्रेशर, दस्त लगना,गैस बनना इत्यादि बीमारियाँ हो जाती है । परस्पर सम्बन्धों में लड़ाई-झगड़ा, मन मुटाव, असन्तुष्टि इत्यादि विषमताऐं तब आती है जब हम भावनात्मक बिन्दु पर संवेदनशील तो अधिक होते हैं लेकिन सहनशीलता या भावों को अभिव्यक्त करने के बिन्दु पर हमारी प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।

व्यक्तिगत स्तर पर सबसे बड़ी समस्या यह है कि आज की जेनरेशन में भावनात्मक संवेदनशीलता भी निरन्तर कमजोर होती जा रही है और सहनशीलता अथवा प्रतिरोधक क्षमता भी कम से कमतर होती जा रही है । जबकि मानव का पहला धर्म होता है वह सन्ततियों को, आने वाली पीढ़ियों के माध्यम से अपने आप का निरन्तर इस बिन्दु पर विकास करे कि उसमें सुःख को महसूस करने की संवेदनशीलता बढ़े ना कि दुर्बलता । इसी संवेदनशीलता के समानुपाती सहनशीलता और प्रतिरोधक क्षमता को भी विकसित करे ताकि दुःख में भी सहज रह सकें । सन्तति के माध्यम से विकास से तात्पर्य है ताकि वर्तमान जीवनकाल के बाद भी हमारा भावी जीवनकाल भी सुखी रह कर बीते।

संवेदनषीलता दो प्रकार की होती है । एक मानसिक दूसरी शारीरिक । 
मानसिक संवेदनषीलता भावनात्मक सम्बन्धों को अनेक आयाम देती है । ये आयाम धन आवेशित भी होते हैं और ऋण आवेशित भी।  इन धार्मिक-वैज्ञानिक शब्दों के स्थान पर साहित्यिक शब्द काम में लें तो कहेंगे कि सकारात्मक और नकारात्मक नामक द्विपक्षीय असंख्य आयाम होते हैं,जो हमारे अन्दर की भावनाओं को आवेशित करते हैं ।

संवेदनशीलता भी दो प्रकार की होती है -
1. मानसिक संवेदनशीलता
2. शारीरिक संवेदनशीलता 
इन दोनों प्रकार की संवेदनषीलताओं के विविध आयाम होते हैं, जो सभी द्विपक्षीय होते हैं । 
1. धन-आवेशित (सकारात्मक)
2. ऋण-आवेशित (नकारात्मक) 
मानसिक संवेदनशीलता को जितना अधिक बढ़ायेगे आप में सत्य के सकारात्मक नकारात्मक दोनों पक्षों को जानने की उतनी ही सामर्थ बढ़ेगी । किन्तु इस के समानुपाती आपको अपनी सहनशीलता भी बढ़ानी पड़ेगी । 
शारीरिक संवेदनशीलता को जितना अधिक बढ़ायेंगे आप को अपने शरीर में पैदा होने वाली समसामयिक बिमारियों को महसूस करने की क्षमता पैदा होगी और किस आहार के कारण ये व्याधियाँ पैदा हुई और किस आहार से उनका शमन हुआ यह भी महसूस होता है । किन्तु इस क्षमता के समानुपाती आपके शरीर की रोग प्रतिरोधक प्रणाली की क्षमता भी बढ़ानी होगी।

इस तरह एक ही शब्द संवेदनशीलता के दो प्रतिपक्षी शब्द हो जाते है । 
1. सहनशीलता ( सहन करने की सामर्थ्य )
2. प्रतिरोधक क्षमता ( रोग को रोकने की क्षमता )

इसी तरह यह भी समझें कि यंत्र दो प्रकार के होते है । 
1. दैविक यंत्र
2. भौतिक यंत्र

प्राणियों के शरीर को दैविक यंत्र कहा गया है और निर्जीव मशीनों को भौतिक यंत्र कहा गया है ।

अब जबकि भौतिक यंत्र तो निरन्तर अधिक से अधिक गुणवत्ता वाले विकसित किये जा रहे हैं लेकिन इन यंत्रों का सुख भोगने पर होने वाली अनुभूति का स्तर, शरीर रूपी दैविक-यंत्र में कमजोर है तो फिर इन भौतिक यत्रों का विकास सुख नहीं बल्कि दुःख नामक विषमता पैदा करता है।
यदि ऐसा ही चलता रहा तो भौतिक यत्रों के विकास और शरीर के विनाश को आप अपना-अपना व्यक्तिगत दुर्भाग्य मानें।

ऊँ तत् सत् ।

प्राक्कथन 2 ;विषमताओं को सम में आप्त (समाप्त) करो.


प्रिय विद्यार्थियों ! मैं इस विद्युत मिडिया के माध्यम से पूरी दुनिया से सम्पर्क करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ। पूरी दुनिया से सम्पर्क करने का यह प्रयास सफल होगा या नहीं, इस विषय में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता । संदेह के दो कारण हैं । 

शंका का एक कारण तो यह है कि पूरी दुनिया की जनसंख्या के अनुपात में इण्टर्नेट का उपयोग करने और उनमे फिर पढ़ने वालों की संख्या कितनी सी है, यह अनुमान लगाया जा सकता है। 

दूसरा बिन्दू यह है कि इतनी सारी भाषाओं में इतनी सारी वेबसाईट्स हैं उनमें हिन्दी के ब्लोग्स पढ़ने वाले कितने होंगे ? हिन्दी में भी भरपूर वेबसाइट्स है, भीड़ में तूंती की आवाज कौन सुनेगा। ऐसी स्थिति में पूरी दुनिया में बैठे भारतीयों से तथा पूरी दुनिया के प्रबुद्ध लोगों से सम्पर्क करने कि बात सोचना शायद एक अतिशियोक्ति सी लगेगी। अतः सन्देह होना स्वाभाविक है।


दूसरी तरफ सकारात्मक भाव में भावित हुआ मैं यह भी सोचता हूँ कि विषय इतना महत्वपूर्ण है कि इस वेबसाईट को प्रारम्भ में जो भी पढ़ेगा निःसन्देह वह आगे से आगे प्रेरित करेगा । भारत की सभी क्षेत्रीय भाषाओं के साथ अंग्रेज़ी में भी और अन्य देशों की भाषाओं में भी अनुवाद करके इसे बेवसाईट स्तर पर दुनिया में पहुँचाना सम्भव है । तत्पश्चात् प्रिण्ट मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से कम से कम भारत में तो यह तथ्यात्मक बात उस वर्ग तक पहुँचनी सम्भव है, जिस प्राकृतिक उत्पादक वर्ग के हित में मैं यह प्रयास कर रहा हूँ।

विषय का एक आयाम यह भी है कि आज हमने भौतिक सुख के इतने सारे साधनों का विकास कर लिया है फिर भी हम इन साधनों का उतना उपयोग नहीं कर पा रहे हैं जितना उपयोग करने का हमारा स्वाभाविक अधिकार बनता है। इस इतने बड़े सत्य के पीछे छिपा तथ्य सिर्फ इतना ही है कि अर्थ की व्यवस्था का जो तंत्र (सिस्टम) है उसमें छोटी सी त्रुटि है उस त्रुटि (एरर) को यदि हम दूर कर दें या सुधार दें तो हम इस पृथ्वी पर छः सात अरब नहीं बल्कि साठ अरब की जनसंख्या भी हो जाये तब भी हम सभी सुखी रह सकते हैं । जबकि वर्तमान की समस्यायें अनगिनत हैं जिनकी सूची काफी लम्बी है जिन्हें सभी जानते हैं । इन सभी प्रकार की विषमताओं का समाधान करना चाहें तो इन्हें वर्गीकृत करना पडे़गा।

इस तथ्य को इस तरह भी अभिव्यक्त किया जा सकता है कि ; 'भ्रष्टाचार की, उचित-अनुचित की और पाप तथा पुणय और न्याय व् अन्याय की अवर्गीकृत अव्यवस्था में सामूहिक सुनिश्चित परिभाषा नहीं होती।' 'प्रतेक गुण विकार सहित होता है क्योंकि एक विशेष काल-स्थान-पात्र के लिए गुण और विकार की विशेष परिभाषा होती है। अतः अगर हम एक सुन्दर और स्वर्ग समान जीवन शैली स्थापित करना चाहते हैं तो इसको सिर्फ एक 'व्यवस्था" शब्द पर ही केन्द्रित वाक्य में अभिव्यक्त कर सकते हैं :-
अव्यवस्था के परिणाम स्वरूप हमने भारत को भी नरक बना लिया है। भारत को पुनः स्वर्ग बनाने के लिए हमें सिर्फ एक सूत्री कार्यक्रम चलाना है और वह होगा "अव्यवस्थित भारत को एक साथ व्यवस्थित नहीं किया जा सकता अतः भारत के चारों कोनो से समसामयिक यथार्थ दृष्टिकोण वाले एक नए आधुनिक भारत का निर्माण करना होगा जहाँ वर्गीकृत व्यवस्था हो। उस व्यवस्था में विषमता नहीं बल्कि परस्पर समन्वय हो और सभी सुखी रहें। "

विषमताऐं तीन स्तर पर आंकी जाये तो
(1) पहला स्तर है व्यक्तिगत
 (2) दूसरा स्तर है संस्थागत । संस्थागत स्तर में परिवार से लेकर राष्ट्र नामक संस्था के स्तर तक की सभी समस्यायें एक श्रेणी में आती है ।
(3) तीसरे स्तर की समस्याऐं मानवीय स्तर या वैश्विक स्तर या पृथ्वी ग्रह के जीव जगत के स्तर तक की सभी समस्याऐं एक ही श्रेणी की विषमताऐं  है ।

क्रमशः 

प्राक्कथन 1;विकास चहुंमुखी हो । इक तरफा विकास से होने वाले विनाश को रोको।



वर्तमान के हालात जितने ख़राब हैं उतने आप को महसूस नहीं हो रहे हैं। जबकि आप भ्रष्टाचार के जिन बिन्दुओं को महत्वपूर्ण मान रहे हैं, वे इतने तुच्छ हैं कि इन बिन्दुओं को अनावश्यक तूल देना कहूँ तो भी मुझे संकोच नहीं होगा। 

इस सन्देश के माध्यम से मैं यह स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ कि निकट भविष्य कितना भयावह होने जा रहा है। यदि समय पर चेतन नहीं हुए तो यह विकसित सभ्यता भी उसी तरह नष्ट हो जायेगी जैसा होता  है। 

वर्तमान की यह विकसित सभ्यता नष्ट ना हो जाये एकमात्र  यही आपकी चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिये। आपकी चिन्ता और साथ में चिन्तन का विषय यह भी होना चाहिये कि आपकी पीढ़ियाँ नारकीय जीवन जीने को मजबूर हो जायेंगी। जबकि यदि हम परस्पर एक दुसरे पर तुच्छ स्वार्थों को लेकर आरोप-प्रत्यारोप लगाने वाली वृति [ धन्धे ] को त्याग कर समन्वय की नीति वाली प्रवृति अपनालें तो न सिर्फ यह भौतिक विकास स्थायी रह सकता है बल्कि जीवन के सनातन लक्ष सुख [ सचिदानन्दघन ] की स्थिति सभी को सुलभ हो ऐसा प्रबन्धन कर सकते हैं।

और सच्चाई सच्चाई होती है, मानने न मानने पर वास्तविकता प्रभावित नहीं होती, सच्चाई यह है कि हमारा स्थाई निवास यह धरती ही है। अव्यक्त में तो हम सिर्फ उन्हीं भावों में भावित रहते हैं जो भाव इस कलेवर Cadre, Cover को छोड़ने के समय रहते हैं, जबकि उन भावों की अभिव्यक्ति तो पुनः व्यक्ति बन कर व्यक्त जगत में आते हैं तभी कर पाते हैं।


जबकि आप का तो भ्रष्टाचार मिटाने का बिन्दु ही उलटा है । आप की कल्पना है कि भ्रष्टाचार मिटाने से विकास की गति तेज़ होगी लेकिन यह आपका अज्ञान (ग़लत जानकारी) है क्योंकि आप तो विनाश  की गति तेज करने का काम करेंगे जिसे विकास नाम दे दिया गया है । 

कल्पनाषील नैत्रित्व यानी अपना नैत्रित्व स्वयं करें । 

मैंने अनेक बार समसामयिक लेखों में, उनके लेखकों द्वारा यह आशावादी विचार पढ़े कि वर्तमान भारत तभी बच सकता है जब कोई कल्पनशील नेतृत्वकर्ता प्रशासन की बागडोर सँभाले। जो अतिवादी शब्द  का उपयोग करते हैं वे अवतार की प्रतीक्षा में बैठे हैं।
   
भगवान ने आपकी सुनली ! मैं इस चैप्टर के माध्यम से आपके मानसिक नेत्रों के सामने एक ढाँचा बनाकर दे रहा हूँ, जो पूरी तरह सन्तुलित है अतः यह सभी वर्गो को प्रिय भी लगेगा और उचित भी होगा । सभी की अपेक्षाएँ पूरी करने वाला और सभी दृष्टिकोण से हितकारी होगा अर्थात सर्व-कल्याणकारी होगा।

यह ढाँचा राष्ट्र निर्माण के दोनों पहलुओं को समान रूप से सन्तुलित करेगा। एक पहलू है चरित्र निर्माण एवं दूसरा पहलू है आर्थिक समृद्धि। बिना चरित्र निर्माण के आर्थिक समृद्धि उल्टा नुकसान पहुचाती है।

भारत को कितना ही लूटा जाये भारत की अर्थव्यवस्था पर ऐसा कुछ भी असर नहीं पड़ता है जिसे हम बर्दास्त नहीं कर सकें। बशर्ते सिर्फ ऐसी व्यवस्था पद्धति बना दी जाए कि जो वर्ग भूमि पर सोना उगाते हैं उन्हें ना लूटा जाये। भलेही पेड़ पर पैसा [मुद्रा ] नहीं लगाती है लेकिन फल तो पेड़ पर ही लगते हैं और धन-धान्य प्राकृतिक उत्पादन का ही पर्याय होता है।

मैं नैतृत्व करने के लिए सड़क पर नहीं आने वाला और ना ही आपको सड़क पर आने के लिये कहने वाला हूँ। मैं तो वैसा मार्ग बताने वाला हूँ जिसमे आपके नेत्र खुले रहें और किसी के अन्धानुयायी,अंधभक्त नहीं बन कर अपना नेतृत्व स्वयं कर सकें। किसी भी प्रकार के वाद में बन्ध कर वाद-विवाद में नहीं उलझ कर सर्व-सम्मति से निर्णय पर पहूंच सकें।
ऊँ तत् सत् 
    

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

सभी विद्यार्थियों से आग्रह ! Insistence To All The Students !

विज्ञान के विद्यार्थी बंधुओं को विज्ञान के एक विद्यार्थी का नमस्कार, 
 प्रिय विद्यार्थी बंधुओं नमस्कार,

  • मानव मस्तिष्क की एक विशेषता होती है कि वह न सिर्फ एक जीवन में जीवनपर्यंत सीखता रहता है बल्कि जीवन-दर-जीवन ब्रेन का क्रमिक विकास भी होता रहता है। इस प्रक्रिया को आत्म-कल्याण की प्रक्रिया और इस विषय में किये जाने वाले प्रयास को आत्म-कल्याण हेतु किया जाने वाला कार्य कहा जाता है।  
  • आपने एक समस्या से खुद भी सामना किया होगा और दूसरों से भी सुना होगा कि "याद नहीं रहता"! अतः यह भी जान लें कि इस आत्म-कल्याण की परम्परा को स्मृति परम्परा भी कहा जाता है और धर्म-परम्परा भी इसी को कहा गया है। 
  • अनेक बार आप कहते हैं कि मुझे इसका ज्ञान तो था लेकिन समय पर यह बात मेरे ध्यान में ही नहीं आयी, अनेक बार आप कहते हैं कि मैंने उस बात की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। इस तरह यह स्मृति ध्यान-परम्परा के नाम से भी जानी जाती है।
  • आपने संस्कार शब्द भी सुना होगा। संस्कार एक तरह की प्रोसेस/प्रक्रिया है, इसको अवचेतन मन की स्मृति भी कहा जाता है अर्थात एक ऐसी स्मृति जो समय पर अनजाने में भी ज्ञान को ध्यान मे ले आती है। यदि किसी जानकारी का समय पर ध्यान नहीं आये तो ऐसे ज्ञान की उपयोगिता ही समाप्त हो जाती है। इसलिए संस्कार का महत्त्व है।
  • आप पुनर्जीवन की प्रक्रिया और मोक्ष के बारे में भी सुनते आये है। पुनर्जन्म के प्रति आपकी शंका इसलिए है कि जिस तरह प्रातः उठते ही आपको पिछले दिनों की स्मृति ताज़ा हो जाती है उस तरह पिछले जीवन की स्मृति ताज़ा नहीं हो पाती। 
  • अब आप इस बिंदु पर थोडा चिन्तन करें कि जब आपको दो-चार दिनों पूर्व की या कुछ महीनों या कुछ वर्षों पूर्व की स्मृति ही नहीं रहती है तो पूर्व जीवन की स्मृति कहाँ से रहेगी। 
  • आप भारत की जातीय परम्परा में ब्राह्मण को सबसे कुलीन जाति के रूप में भी जानते हैं...क्यों ! जबकि ब्राह्मण का अर्थ होता है जो ब्रह्म में रमण करता है। क्या ब्रह्म में रमण करने के लिए यानी अध्ययन के बाद विषय पर चिंतन-मनन करने के लिए किसी विशेष परिवार में पैदा होना पड़ता है ! हम सभी जीवन-पर्यंत कुछ न कुछ सीखते रहते हैं अतः विद्यार्थी भी हैं और चूँकि हमारे पास ब्रेन भी है और ब्रह्म में रमण भी करते हैं अतः हमें सबसे पहले तो अपने आप को ब्राह्मण मान कर चलना चाहिए और इस दिशा में आगे से आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए।
  • इस क्षेत्र में असंख्य विषय है अतः असंख्य दिशाएँ भी है इसी परिप्रेक्ष में ब्रह्मा के चारों दिशाओं में मुख दिखाये गये हैं।
  • आपको यदि स्मृति को मजबूत करना है तो इसका तरीका है आप किसी एक ही विषय में बँध कर उसे रटने का व्यर्थ या निरर्थक या अथक प्रयास करने के स्थान पर सभी विषयों का समान्तर Parallel और simultaneous समकालिक अध्ययन करें और एक-दूसरे विषय को ठीक उसी तरह गूँथ लें जिस तरह पहले धागा और बाद में उसी धागे से मछली पकड़ने का जाल गूँथा जाता है, तब आपकी स्मृति ज्ञान को ध्यान में बदल देगी। ठीक वैसे ही जैसे मछुआरा जाल को एक सिरे से थाम कर सैंकड़ों मछलियाँ पकड़ लेता है।चूँकि स्मृति का सम्बन्ध रूचि से होता है अतः यदि आपको पढ़ा हुआ याद नहीं रहता तो इसका अर्थ है उस विषय में रूचि नहीं है। रूचि पैदा करने के लिए एक ही तरीका है उस विषय से जुड़े सभी विषयों का अध्ययन एक साथ करें simultaneouslly करें किसी न किसी एक विषय में तो रूचि जागृत हो ही जायेगी तो सभी विषय याद रह जायेंगे।
  • स्मृति परम्परा के सामानांतर श्रुति परम्परा है अर्थात जो आपके पूर्ववर्तियों ने जाना है,खोजा है, Research, शोध, अनुसंधान, investigation किया है उसको सुनना या लिखा हुआ हो तो पढ़ना।ये दोनों परम्पराएँ उभयपक्षी Bipartite हैं अतः एक दुसरे की पूरक हैं।
  • इस तरह स्मृति व् संस्कार वाली ब्रह्म-परम्परा और श्रुति व् वैज्ञानिक खोज वाली वेद-परम्परा दोनों मिलकर अद्वेत हो जाती है।
  • आप यदि जीवविज्ञान और आयुर्विज्ञान के विद्यार्थी हैं अथवा रह चुके हैं अथवा इस विषय के जॉब से जुड़े हैं अथवा इस विषय में रूचि रखते हैं तो आप इन ब्लॉग्स पर विजिट करें तथा इस पोस्ट की  कॉपी करें और अपने परिचितों को भी भेजें। वेदव्यास के ब्लॉग्स का अध्ययन करने के बाद जीवजगत और आयुर्विज्ञान के साथ-साथ जीवन-काल और जीवन के बाद पुनः जीवन की प्रक्रिया के एक-एक बिंदु को आप सुस्पष्ट समझने में समर्थ हो जायेंगे।    


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 विभिन्न सरकारी सेवाओं में जाने के इच्छुक विद्यार्थियों से ! To the Students considering a career in various government services !

       प्रिय विद्यार्थी बंधुओं,        नमस्कार !

  • आप यदि इसलिए पढ़ रहे हैं कि आपको सरकारी सेवा में लिया जाये तो निःसन्देह आप सरकारी सेवाओं में आरक्षण के समर्थन या विरोध में कुछ न कुछ विचार अवश्य करते होंगे।
  • भारत में जब बर्तानियाँ सरकार ने सरकारी सेवाओं के लिए भारतीयों को आमन्त्रित किया तब किसी ने भी उसमें रूचि नहीं ली। कारण यह था कि सभी लोग अपने अपने जातिगत जॉब में लगे थे, जो उनके लिए पीढ़ी दर पीढ़ी स्थाई-तौर पर आरक्षित रोज़गार था, कोई भी बेरोज़गार नहीं था।
  • जब विशेष झाँसा दिया गया तब उनका तर्क था कि अगर हम नौकरी में आ जायेंगे तो दो समस्याएँ पैदा होंगी। एक यह कि हमारी अगली पीढ़ी क्या करेगी ! दूसरी यह कि बुढ़ापे में हमारा क्या होगा !
  • तब उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद दो लाभ देने की बात कही, 1. घर के किसी भी एक सदस्य को उसी विभाग में नौकरी देना 2. सेवानिवृत्ति वेतन Retirement Pension देना।
  • कुछ समय बाद जब एक तरफ बेरोज़गारी फैली और दूसरी तरफ सेवाकर्मियों का पश्चिमी पहनावा दिखा, तब सरकारी सेवा आकर्षित करने लगी। 
  • वे तो व्यापारी थे अतः उनकी गणना अलग तरीके की थी लेकिन जब सत्ता हस्तान्तरण हुआ और भारत के राजनीतिज्ञों के पास सत्ता आई तो न सिर्फ भाषा बल्कि गणना भी बदल गयी।
  • एक समय था जब हर घर में गाय थी और सोने-चाँदी के आभुषण थे लेकिन जब राजनीति में नव बौद्धिक वर्ग आया तो वह ग़रीबी को भी भारतीयों की ज़िम्मेदारी मानने लगा और बेरोज़गारी से त्रस्त वर्गों को दलित,पिछडा हुआ इत्यादि कह कर स्वयं को मसीहा साबित करने लगा और इस तरह समस्या को दिशाहीनता में उलझा दिया।
  • अब आप सभी जो जो आरक्षण के समर्थक और विरोधी है उनको यह समझना चाहिए कि आप किसी न किसी जाति से सम्बन्ध रखते हैं और हर जाति का एक परम्परागत जॉब है जिसमें वह निपुण, दक्ष और पारंगत है।
  • हर रोज़गार दो भागों में विभाजित है। एक है निजी Self-employed स्वरोज़गार, दूसरा है उसी विषय के सरकारी विभाग में सेवाकर्मी।
  • निजी रोज़गार में भी गृह-उद्योग से लेकर भारी औद्योगिक इकाईयों के मालिक से लेकर श्रमिक तक, या प्राकृतिक उत्पादन में कृषि-श्रमिक से लेकर भूस्वामी तक विभिन्न स्तर होते हैं।
  • इसी तरह उतने के उतने सरकारी विभाग हैं जिनमे भी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर सचिव तक विभिन्न स्तर हैं।
  • इसी तरह उन विभागीय मंत्रालयों में राजनेता मंत्री होते हैं।
  • अब आप एक ऐसी व्यवस्था की कल्पना करें कि या तो आप वैवाहिक संबंधों तक में जाति के बंधन से मुक्त हो जाते हैं या फिर एक ऐसी आरक्षण प्रणाली बनायी जाए कि जो जिस विषय-विशेष की जाति से सम्बन्ध रखता है या रखना चाहता है रख सकता है यानी जाति-परिवर्तन कर सकता है लेकिन वह चाहे तो स्वतन्त्र स्वरोजगार में हो या उसी विषय विशेष के सरकारी विभाग में जाना चाहे या फिर राजनीति में जाना चाहे उसके लिए वह विषय-विशेष आरक्षित होगा।
  • न तो नयी पीढ़ी को शिक्षा,संस्कार के लिए और फिर रोज़गार के लिए विभिन्न विषयों भटकने की आवश्यकता होगी और न ही जीवन भर के अनुभव को लेकर सेवानिवृत होने का दु:ख होगा। अपने लिए काम करना चाहें तो स्वरोजगार में और समाज के लिए करना चाहें तो सरकारी सेवा में।
  • इस तरह भ्रष्टाचार का अर्थ होगा अपनी ही जात-बिरादरी से धोखा।
  • शुद्ध आचार-विचार का अर्थ होगा अपने विभाग,मंत्रालय और जाति-बिरादरी को सुरक्षित, संरक्षित और समृद्ध करने में अपनी योग्यता का उपयोग करना क्योंकि तब अपनी अगली सन्तति की समृद्धि का दायित्व भी तो जुड़ जायेगा।
  • इस तरह यदि आप सामाजिक कार्यों में रूचि रखते हैं तो इन ब्लॉग्स पर नियमित विज़िट करें और इस पोस्ट की कॉपी करके आगे से आगे मेल करें।

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राजनीति के सक्रिय विद्यार्थी [कार्यकर्त्ता] बंधुओं । Students who remain active in politics.


  • भारत को उत्सवों एवं त्यौहारों का देश का देश कहा जाता है। वैवाहिक आयोजन भी त्यौहार की तरह उत्साह से मनाया जाता है। ये सभी आयोजन मेल-मिलाप के ऐसे आयोजन होते हैं जिनमे मेरे जैसा एकांत प्रिय आत्म-केंद्रित व्यक्ति भी मिलनसार बनने के लिए मजबूर हो जाता है। भारतीयों के इस स्वभाव के कारण भारत हथाई-प्रधान देश भी है,जिस कारण यहाँ तुरन्त मोबाईल क्रान्ति हो गयी।
  • जब चुनाव होते हैं तो अधिकाँश लोग उत्साह से सक्रिय हो जाते हैं अतः यह आयोजन भी त्यौहार की तरह ही है और इसी कारण राजनैतिक दलों को सक्रिय कार्यकर्ता भी सुगमता से मिल जाते हैं। 
  • आप किसी दल विशेष के स्थायी कार्यकर्ता हैं तो आप धैर्य से सोचें कि आपके कुछ क्षुद्र स्वार्थों के कारण आपके क्षेत्र और पूरे देश को कितना बड़ा नुकसान हो रहा है। आप को अपने दल की पड़ी रहती है और आज भी विश्वगुरु बनने की योग्यता रखने वाला जीवन्त और युवा भारत कृशकाय सा पड़ा है जो तब कुछ-कुछ हिलता डुलता सा नजर आता है जब कोई मूर्खतापूर्ण साम्प्रदायिक वैमनस्य पैदा हो जाता है।
  • दुनिया के अन्य सभी राष्ट्रों में शासन-प्रशासन को हर समय कमर कसे हुए रहना पड़ता है वर्ना आर्थिक,सामाजिक,साम्प्रदायिक और नस्लीय समस्याओं के कारण सर्व-साधारण में तरह-तरह के विद्रोह उभर जाते हैं लेकिन भारत में जब इनकी आँच आती है तो उलटा होता है, यहाँ तो सर्व-साधारण की समझ व सहनशीलता के कारण ही ये मूर्खतापूर्ण आवेश स्वतः ठन्डे पड़ते है जबकि राजनैतिक दल तो इस तरह की आँच का उपयोग अपनी-अपनी रोटियाँ सेकने में करने लग जाते हैं। ऐसी स्थिति में आप विद्यार्थी ही इस समय महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं और एक जनतांत्रिक क्रान्ति ला सकते हैं।
  • माना कि आपको अपना पूरा ध्यान पढाई में देना चाहिए लेकिन पढाई का अंततः उदेश्य क्या होता है! ब्रेन का विकास करके खुद भी सुन्दर जीवन जीना और समाज का बौद्धिक नेतृत्व भी करना। लेकिन आप ब्रेन को विकसित करने से उलट रटन्त-विद्या अपना रहे हैं और नौकर, सेवक, दास, वेतन-भोगी बंधुआ मजदूर, तनखैया बनने की आकांक्षा पालते हो।
  • आप यदि मानवीय धर्म[मानवीय दायित्व और अधिकार] को धारण करके जीवन की सच्चाई को जानकर शान्ति और आनन्द से रहना चाहते हैं और अपने अन्दर के सृष्टम[system] को संचालित करने वाले भाव के सहारे अपना विकास करके दुनिया का हित करने वाला रोजगार चाहते हो तो आपको चाहिए आप प्रथम स्तर पर राजनैतिक धर्म को समझें, Political Liability निभाएं और इन्टरनेट के माध्यम से रचनात्मक कार्य करें और इस सन्देश को आगे से मेल करें और प्रथमतः भारत में निर्दलीय राजनैतिक प्रणाली को पुनः प्रतिष्ठित करें।
  • जब वैमनस्य फैलाने वाले इन्टरनेट के माध्यम से विध्वंसकारी कार्य करवा सकते हैं तो आप उसकी जवाबी कार्यवाही में रचनात्मक कार्य क्यों नहीं करवा सकते। इस निर्दलीय राजनैतिक प्रणाली में उन  स्थापित राजनेताओं का अहित नहीं होगा जो राष्ट्र के, देश व समाज के हित में कुछ रचनात्मक कार्य करने के लिए राजनीति में आये हैं बल्कि वे अधिक अधिकार के साथ काम कर सकेंगे अतः यह स्थापित व्यवस्था और स्थापित नेताओं के प्रति विद्रोह नहीं बल्कि उनको मजबूती देने हेतु है ताकि वे पूंजी,पूंजीपतियों और असामाजिक तत्वों के वर्चस्व से मुक्त होकर समाज के हित में कुछ रचनात्मक कार्य कर सकें।
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  • इसे जो भी पढ़ रहे हैं उन्हें यह जानना चाहिए कि भारत में अन्य राष्ट्रों की तुलना में सब कुछ ठीक-ठाक  चल रहा है और चलता रहेगा। लेकिन यदि सभी भारतीय इस ठीक-ठाक चल रही स्थिति को ठोक-बजाकर बहुत अच्छी, सर्वोत्तम, The best बनाना चाहते हैं तो मैं एक अध्ययनशील विद्यार्थी की श्रद्धा के साथ न सिर्फ एक मार्ग बता रहा हूँ बल्कि लक्ष्य तक पहुँचा भी दूँगा। लेकिन इस विषय में दो अड़चनें आ सकती हैं।
  • एक तो यह कि क्या राष्ट्र के प्रथम नागरिक महामहिम राष्ट्रपति से लेकर विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, पत्रकारिता, उद्योग-व्यापार,राजनीति और सभी सरकारी गैर-सरकारी संस्थाओं से सम्बन्ध रखने वालों से लेकर, आप खुद भी, व्यक्तिगत स्तर पर एक दूसरे को कोसना बन्द करके किसी सार्वभौमिक सत्य, Universal truth पर आधारित व्यवस्था पर क्या एकमत हो पायेंगे !
  • दूसरी अड़चन यह आयेगी कि यदि सार्वभौमिक सत्य बताने वाला एक साधारण व्यक्ति हो, तो सर्वसम्मति बनाने के लिए एक अतिसाधारण कहे जानेवाले व्यक्ति को इतना महत्त्व दे पायेंगे, कि उसकी कही बात को प्रचार-प्रसार करके उस पर वार्ताओं का दौर चला सकेंगे ! शायद नहीं ! फिर भी मेरा धर्म यह बनता है कि मैं प्रयास करूँ।
  • अपनी बात सम्पादित करके कहने के लिए मैंने अभी कुल 10 ब्लोग्स की यह श्रृंखला बनाई है। इन ब्लॉग्स के माध्यम से मैं एक एक बिंदु को स्पष्ट करते हुए पूरी बात सुस्पष्ट करने का प्रयास करूँगा।
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  2. ब्रह्मपुत्र घाटी और पूर्वांचल का क्षेत्र विश्व का एक मात्र मातृसत्तात्मक संस्कृति का बचा हुआ क्षेत्र है और जब कभी भी किसी बड़ी दुर्घटना के अंत में पृथ्वी पर वनस्पति,प्राणी और मानव नस्लें विलुप्ति की कगार पर आ जाती हैं तब यही एकमात्र स्थान बचता है जहाँ सभी नस्लों,प्रजातियों,स्पीशीज़ के बीज सुरक्षित रहते हैं। अतः यहाँ किसी भी नस्ल को असुरक्षित करना और पुरुष प्रधान व्यवस्था को नारी प्रधान व्यवस्था पर हावी होने देना दोनों ही भयानक अमानवीय कृत्य कहलायेंगे। आप जो भी इस कमेन्ट को पढ़ रहे हैं उनसे निवेदन है कि कृपया वे इस ब्लॉग श्रृंखला के address को पूर्वोत्तर राज्यों के विद्यार्थियों तक पहुचाएँ। 
  3. भारत के सामने हमेशा से दुविधापूर्ण स्थिति रही है| एक समय था जब सिख समुदाय भारत की नाक और माथे का टीका हुआ करता था, एक भिड़रावाले के कारण आज पूरे सिख समुदाय को बड़ी क़ीमत चुकाने के बाद भी वह स्थान पुनः नहीं मिल सका जो कभी हुआ करता था| जबकि वो तो हिंदुओं की ही एक शाखा है! यदि इसी तरह चलता रहा तो मानकर चलें कि मुट्ठी भर कुछ लोगों के कारण पूरे भारत मे गुजरात जैसी स्थिति बन जाएगी| जिस तरह भिंडरावाले के सामानान्तर राजनेता का भी हाथ था उसी तरह इन मुस्लिम कट्टरपंथियों के समानांतर भी राजनीति का हाथ रहता है अतः राजनीति को सुधारना भी आवश्यक हो जाता है। समन्वय और सहनशीलता के आचरण से पहचाने जाने वाले भारत मे यह सब दुर्भाग्यपूर्ण है अतः एक ऐसी राजनैतिक क्रांति की आवश्यकता है जो भारत की राजनीति को दलदल मुक्त करे। तब हम जनप्रतिनिधियों से यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वे सांप्रदायिक वैमनस्य मिटाने के लिए ईमानदारी से प्रयास कर सकेंगे। 
  4. एक स्थान पर पढ़ने में आया कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर के एक मुस्लिम नेता ने यह आशंका जताई है कि "यूरोप से नाजी आन्दोलन की तरह का एक Movement चलेगा, अबकी बार उसका ध्येय मुस्लिमों का सफाया होगा"। इसी तरह सामरिक विषय के विशेषज्ञों का आँकलन है कि अबकी बार विश्वयुद्ध हुआ तो मुस्लिम राष्ट्रों और अमेरिकी नेतृत्व के बीच होगा। ये आँकलन विषय-विशेषज्ञों का है जिसकी सम्भावना बनती है लेकिन सहज बुद्धि का कहना है कि दोनों ही स्थिति में यदि सुरक्षित रहेंगे तो सिर्फ भारतीय मुस्लिम, अतः मुस्लिम-विद्यार्थियों से भी में विशेष तौर पर अनुरोध करता हूँ कि वे निर्दलीय आन्दोलन में जुट जाएँ। तब न सिर्फ आप और अधिक सुरक्षित हो जायेंगे बल्कि इस तरह के विकृत आन्दोलन की संभावना ही समाप्त हो जाएगी।
  5. अंततः यह कहना है कि जानकारी के संग्रह के लिए आप कितना पैसा और समय खर्च करते हैं! यहाँ मैं अपना खर्च करके आपको एक ही स्थान पर बिना कुछ शेष रखे सभी विषयों कि जानकारी निःशुल्क उपलब्ध करा रहा हूँ। अतः आपसे इतनी अपेक्षा तो कर ही सकता हूँ कि आप इस संदेश को Email के माध्यम से आगे-से-आगे भेजेंगे ताकि सभी विद्यार्थियों को यह जानकारी उपलब्ध हो सके।
  6. विशेषकर लड़कियों से कहना है कि भारत की मूल परम्परागत जीवन-शैली और मान्यताओं में नारी का स्थान सर्वोच्च रहा है। यहाँ पूर्वोत्तर भारत विश्व का एकमात्र नारी सत्तात्मक समाज है और मानव सभ्यता का पुनरुद्धार भी बारम्बार यहीं से होता आया है। भारत में ब्रह्म-परम्परा की परिवार-व्यवस्था रही है जिसमे नर-नारी को परस्पर पूरक और अद्वेत माना है। परिवार में समान अधिकार दिए गए हैं। पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था तो मुस्लिम और पश्चिमी समाज के संपर्क में आने के बाद लगे संग-दोष का परिणाम है। हमें भारत में अपनी मूल परम्परागत पारिवारिक-सामाजिक व्यवस्था बनानी है।
  7. चूँकि ब्रह्म-यज्ञ में कर्म का रूप सोचना[अध्ययन-चिन्तन-मनन] ही होता है, अतः आपको सिर्फ इतना ही करना है कि इस लेखन को सभी के अध्ययन हेतु प्रचारित प्रसारित करें और एक सामूहिक अवधारणा/Concept विकसित कर लें तो आप बिना संवाद के ही समसामयिक विषयों पर सभी में एक-समान दृष्टिकोण View angle को विकसित पायेंगे इसी को योगियों [योग्य व्यक्तियों] का मध्यम मार्ग कहा जाता है। 
  8. अतः अन्ततः मैं लड़कियों से अपेक्षा करता हूँ कि वे इस ब्लॉग श्रृंखला से पूरे भारत की और विशेषकर पूर्वोत्तर भारत की महिलाओं का परिचय कराएँगी।      

          धन्यवाद! 
        आपका शुभेच्छु! 
        बृज मोहन वशिष्ठ। 

         ॐ तत सत !