सम्माननीय पाठक !

नमस्ते !

{ नः मः अस्ते अर्थात [आपके बिना और आपके सामने भी ] मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। }

बात सारगर्भित भी है तो कुछ लम्बी-चौड़ी भी है अतःबात को संपादित करके कहने हेतू अभी 10 ब्लोग बनाए हैं.

"GISM" नामक इस ब्लॉग को केन्द्र में रखें और यहीं से पढ़ना शुरू करें।

देवर्षि नारद के तीन ब्लॉग में से

"सामाजिक पत्रकारिता" में जातीय व् साम्प्रदायिक संरचना को विस्तार से बताने पर लेखन केन्द्रित रहेगा।

"नैतिकता की राजनीति" में लेखन पौराणिक,प्राचीन तथ्यों एवं प्रकृति निर्मित संविधान,क़ुदरत के क़ानून,Nature Created Constitution,Laws of natural order of things पर केन्द्रित रहेगा।

"निर्दलीय राजनैतिक मंच" में लेखन वर्तमान की समसामयिक बातों पर केन्द्रित रहेगा।

इन तीनों ब्लॉग्स को आप "कला संकाय" [Faculty of arts] के विषयान्तर्गत पढ़ें।

"मुनि वेदव्यास" के चारों ब्लॉग को धर्म एवं विज्ञान के विषयान्तर्गत पढ़ें। धर्म को अपने आप के प्रति कर्तव्य एवं अधिकार के रूप में लें और विज्ञान को आयुर्विज्ञान के अंतर्गत लें।

इन चारों ब्लॉग्स को "दर्शन एवं विज्ञान संकाय" [Faculty of Philosophy and Sciences] विषयान्तर्गत पढ़ें।

"प्रणय विज्ञान" नामक "कार्तिकेय" के ब्लॉग को "वैवाहिक जीवन और नैसर्गिक आनंद" विषयान्तर्गत पढ़ें।

अंतिम चरण का ब्लॉग है "भव्य महा भारत निर्माण" ! इस ब्लॉग को "अर्थशास्त्र संकाय" [Faculty of Economics] विषयान्तर्गत पढ़ें। लेकिन चूँकि यह ब्लॉग "सांख्य और सांख्यिकी" [Principle Knowledge and Statistics] तक सीमित नहीं है बल्कि साँख्य का योग-प्रयोग-उपयोग [Experiment &-Applying to use] करना है अर्थात "व्यावहारिक धरातल [Practical Ground] पर नव महा भारत का निर्माण" करने हेतु पढ़ें।

इस तरह प्रथम चरण में हमें ज्ञान मार्ग से ध्यान मार्ग [Meditative Concentration via Knowledge path] से चलना है अतः सात्विक-बुद्धि,बोद्धिसत्व का उपयोग करके बुद्धि के देवता को काबू में करना है तब फिर फ़तह ही फ़तह है। फ़ारसी में कहा है 'हिम्मते मर्दां मददे ख़ुदा'। अतः प्रथम चरण में अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट करके,अपने आप में आत्मविश्वास बढ़ाने के कार्य से प्रारम्भ करें और पृथ्वी पर पुनः स्वर्ग बसाने के कार्य का श्री गणेश करें। अगले चरण स्वतः बढ़ते चले जायेंगे। बस नीयत होनी चाहिए नियति स्वतः लक्ष्य तक अवश करके धकेलती हुई पहुँचा देगी।

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य है जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

महाभारत निर्माण से पूर्व महाभारत युद्ध की भूमिका बन रही है।

जैसा कि इस पुरे कार्यक्रम में सोच,दृष्टिकोण,अवधारणा, नैतिकबल, तर्क,दर्शन इत्यादि जो कुछ भी है उसे प्रामाणिक बनाने के लिए श्रीमत भगवत गीता को केंद्र में रख रहा हूँ .यानी गीता का संकलन कर्ता वेदव्यास ही इस परियोजना और आन्दोलन का मास्टर माईंड है। अतः नारद ने तो अपनी प्राक्कथन की बात एक बार कह दी जो आप पत्रकारिता विभाग में पढ़ रहे हैं।अब गीता के प्रथम व् द्वितीय अध्याय और सातवें तथा तेरहवें अध्यायों में आप अपने इस शरीर रूप यंत्र का पूरा ज्ञान-विज्ञानं जानलें क्योंकि भगवान कह रहे हैं कि यह ज्ञान जिसने नहीं जाना उसका पूरा ज्ञान अज्ञान [ खोटा ज्ञान,Contrary knowledge ] है। अतः महाभारत के ऐतिहासिक युद्ध में गीता के कुछ श्लोकों की व्याख्या और वर्तमान की धटनाओं में समानता देखे। इसके लिए इन शीर्षकों पर क्लिक करें।


विषाद योग व्याख्या; श्लोक संख्या 21 से 23 तक

...अहम् ब्रह्मास्मि...*ब्राह्मण ...I am DIVINE BRAIN... *Teacher ( Gita Sec.I )पर.......मुनि वेदव्यास - 55 मिनट पहले
अर्जुन-उवाच सेनयो: उभयो: मध्ये रथं स्थापय मे अच्युत ।। 1/21 ।।अच्युत ! उभय पक्षी सेना के मध्य मेरे रथ को खड़ा करो ।यावत् एतान निरीक्षे अहम् योद्धुकामान अवस्थितान जब तक इन युद्ध की कामना से इकठ्ठे हुए योद्धाओं का निरिक्षण करूँ रथ खड़ा रखना कैः मया सह योद्धव्यम अस्मिन रणसमुद्यमे ।। 1/22 ।।किस किस के साथ मुझे युद्ध करना है, कोन कोन रण में सम उद्द्यत हैं योत्स्यमानान अवक्षे अहम् ये एते अत्र समागताः युद्ध को ही अधिकार मानने वालों को आमने सामने देखुं जो जो यहाँ एक साथ हैंधार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धे: युद्धे प्रियचिकीर्षवः ।। 1/23 ।। राष...अधिक »


यमुना एक्सप्रेसवे के आसपास फिर किसान आंदोलन
10.08.12




मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

प्राक्कथन 7.ब्रह्मचर्य आश्रम बनाम विद्या अध्यन वय [ आयु ] !

ब्रह्म परम्परा में ब्रह्म [Brain ] के विकास के लिए,आत्म-कल्याण हेतु आत्म-संयम योग पर योगारूढ़ होने के लिय, भारत में 25 वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने पर जोर दिया जाता रहा है,जबकि भारत के अधिकाँश क्षेत्रों में बालविवाह का प्रचलन भी है। इस्लाम का एक वर्ग खतना करवाता है जो ब्रह्मचर्य पालन की दिशा में अवरोध है। इस तरह इनमे विरोधाभाष दिखता है जो  इसके कुछ मनो-वैज्ञानिक, आर्थिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी कारण हैं। 

चूँकि गुण सविकार होते हैं अतः सिद्धांत [ साँख्य] सभी जगह आँख बंद करके लागु नहीं किये जा सकते उनका योग [ प्रयोग-उपयोग] सम्यक ज्ञान [ सम-सामयिक यथार्थ ] का अध्ययन करके किया जाता है। इसीलिए भारत में विज्ञान की तुलना में धर्म को प्रथम प्राथमिकता में रखा और विज्ञान के नियमों को मानवीय आचरण में स्थापित किया जाता रहा है। यदि सिद्धांत का उपयोग -प्रयोग करके उसके परिणामों का अध्ययन न किया जाये तो ये विरोधाभाष ही अंततः विषमता के कारण बन जाते हैं।

भारत में एक तरफ विवाह आयोजन को उत्सव के रूप में स्थापित किया गया है तो दूसरी तरफ ब्रह्मचर्य को सर्वोच्च स्थान दिया गया। ब्रह्मचर्य की आयु और विद्या अध्यन की आयु एक ही समय में आती है। ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध एकात्म परंपरा से है तो वैवाहिक सम्बन्ध अद्वेत और द्वेत परंपरा वर्ग में आजाते हैं। इस महत्वपूर्ण विषय को कार्तिकेय के ब्लॉग प्रणय विज्ञान की पोस्ट पढ़ें।   

सेनानीनाम अहम् स्कन्द: ! सेनिकों में मैं स्कन्द हूँ।

गीता अध्याय-10 श्लोक-24 / Gita Chapter-10 Verse-24 पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् *सेनानीनामहं स्कन्द:* सरसामस्मि सागर: ।।24।। *पुरोधसाम् =* पुरोहितों में; *मुख्यम् = *मुख्य अर्थात् देवताओं का पुरोहित; *माम् =* मुझे; *विद्धि =* जान; *पार्थ =* हे पार्थ; *बृहस्पतिम् = *बृहस्पति; *सेनानीनाम् =* सेनानियों में;* **अहम् =* मैं; *स्कन्द: = *स्कन्द ; *सरसाम् =* रस सहित में; *अस्मि =* मैं हूँ; *सागर: =* सागर पुरोहितों में मुखिया बृहस्पति मुझको जान । हे पार्थ ! मैं सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र हूँ ।।24।। यह उपर्युक्त अनुवाद किसी ने किया और उसी की प्रतिलिपि च... अधिक »



भगवान और भगवती को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाओ।

प्राकृत [ क्षेत्रीय ] भाषाओँ में सरल उच्चारण के साथ संस्कृत के शब्द विद्यमान हैं। जैसा कि मैं भव्य महा भारत संरचना में अपने जन्म स्थान छोटी काशी का जिक्र कर चूका हूँ जहाँ *श्रद्धा* के लिए *सरदा* शब्द का उपयोग होता है। इसी तरह वहां की भाषा में *प्रणय* शब्द के लिए *'परणीजणा'* शब्द का उपयोग होता है। आपने एक हिंदी फ़िल्मी गाना सुना होगा ! तुम प्रणय के देवता हो, मैं समय की भूल हूँ। तुम गगन के चंद्रमा हो , मैं धरा की धूल हूँ। आज-कल की अधिकाँश संतति, समय की भूल और धरा की धूल बन कर रह गयी है। ऐसा क्या आप एक ऐसे भारत की कल्पना कर सकते हैं ? जिसमे विवाह प्रणय के लिए किया जा... अधिक »



विवाह के नियम और ब्रह्म एवं वैदिक परंपरा का सांसकृतिक योग !

 जीव की चेतना के अध्ययन को एकात्म [ एक आत्म ], एकोब्रह्म [ एक ब्रह्म ] परम्परा के अंतर्गत रखा गया है। जिसे न सत न असत भी कहा गया है। ब्रह्म से लेटिन में Brain शब्द बना, लेकिन ज्योंही हम वैदिक-ज्ञान [विज्ञान] के अध्ययन में आते हैं, तो उसका प्रारंभ भौतिक देह और उसमे स्थित शरीर [ अणु-परमाणु ] के अध्ययन से होता है। वेद और वैदिक से बॉडी शब्द बना। बॉडी में आते ही *मैं*, अहम् ब्रह्मास्मि वाले *एक* के स्थान पर हम *दो* हो जाते हैं। एक नर देह दूसरा मादा देह । लेकिन चूँकि नर और मादा दो अलग अलग होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं अतः यह अद्वेत परम्परा के अंतर्गत आते हैं। चूँकि शरीर पदार्थ से बना ... अधिक »


सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

प्राक्कथन 6. हे पार्थ! अपनी माता पृथ्वी की रक्षा कर !



इस पृथ्वी का नाम पृथ्वी इसलिये है कि यह पदार्थ से बनी है.

पृथ्वी का एक तात्पर्य यानी तत्वार्थ यह भी होता है की कमल की पंखुड़ियों की तरह इसके महाद्वीप हैं जो फैलते हैं। तो ऐसा लगता है जैसे समुद्र के बीच कमल खिल रहा है। इसी कमल पर ब्रह्म (जीव) की उत्पत्ति हुई है। जब पृथ्वी का जन्म हुआ था तब दोनों ध्रुओं पर बर्फ थी और एक ही भूमि थी जो कालांतर में द्वीपों और महाद्वीपों में बँट कर पृथक पृथक हो गयी।

पृथ्वी के धरातल को धरती कहा गया है क्योंकि यह हमे धारण किये रहती है हमारे लिये पोष्टिक आहार पैदा करती है अतः यह हमारी धाय-मां भी है ।

यह देवी-देवता की श्रेणी में भी इसलिए आती है कि यह हमें जीने का आधार देती है और हमें ऐश्वर्यशाली जीवन के लिए "सकल पदारथ"  "सभी तरह के पदार्थ" देती है लेकिन 'करम हीन'  'कर्महीन' 'अकर्मण्य' नर को वे पदार्थ प्राप्त नहीं होते। 

भागवत महापुराणा में शब्दों का मानवीकरण करके इस पृथ्वी की पीड़ा व्यक्त की गई है। पृथ्वी जिसका एक नाम गाम भी है क्योंकि यह ऐसी चक्रीय गति से धूमती है कि पुनःपुनः एक-एक स्थान पर बार-बार आती है। गाय को भी इसी आचरण के कारण गाय कहा गया है। गाय,घोडा,हाथी ये ऐसे पशु हैं जो घूम कर पुनः उसी स्थान पर आते हैं।

पृथ्वी गाय का रूप धारण करके विष्णु के पास पहूँचती और कहती है कि; ये मेरे पुत्र (मनुष्य) मेरे  स्तन पान पर निर्भर [ वनस्पति की उपज पर निर्भर] नहीं रहते हैं, बल्कि मेरा गर्भ [ भूगर्भ ] निकाल-निकाल कर खा रहे हैं। आप मेरी रक्षा  करो ।


इस पर विष्णु कहते है; ऐसा है तो मैं इनको नष्ट कर देता हूँ ।


इस पर पृथ्वी कहती है; ‘‘नहीं ऐसा तो मत करना क्योंकि आखिर ये मेरे पुत्र हैं" ।


वर्तमान में पुनः हमारी यही स्थिति हो गई है और हम पृथ्वी के स्तन का दुग्ध कही जाने वाली वनस्पति की अवहेलना कर रहे है और खनन के माध्यम से इसका गर्भ निकाल कर उसका भोग कर रहे हैं । 

प्रकृति यानी विष्णु इसमें व्याप्त रहकर इसकी प्रत्येक गतिविधि का संचालनकर्ता है । इस संचालन प्रक्रिया के माध्यम से सन्तुलन बनते हैं । उसी सन्तुलन प्रक्रिया में भूकम्प आते हैं । सुनामी आती है, तुफान आते हैं और ज्वालामुखी फटती है । इन घटनाओं से भी एक सन्तुलन पैदा होता है । पृथ्वी पुत्र पार्थ होने के नाते हमारा कर्तव्य बनता है कि हम इस सन्तुलन में अपना सहयोग दें और पृथ्वी पर के रेगिस्तानों को हरा भरा करें ताकि जब कभी भी हमारा भौतिक निर्माण ध्वस्त हो जाये हम हमारे अस्तित्व को बचाने में सक्षम रहें । पृथ्वी के गर्म में छेद करने वाले खनन कार्यो से भी अधिक खतरनाक भूमि में किये जाने वाले परमाणु विस्फोटों से यदि पृथ्वी का सन्तुलन अंश  मात्र भी बिगड़ गया हो हमारा अस्तित्व समाप्त हो सकता है और पृथ्वी पुनः एक डायनासोर युग में जा सकती है।

पृथ्वी पुत्र पार्थ होने के नाते हमारा धर्म बनता है कि हम अपनी माता के स्वास्थ की रक्षा करें ना कि उसको अस्वस्थ करें। तो आईये हम एक ऐसी कार्ययोजना की शुरूआत करें जो हमारी अर्थव्यवस्था को मजबूत करे लेकिन उसका आर्थिक आधार हो प्राकृतिक उत्पादन ना कि इकतरफा औद्योगिककरण और शहरीकरण हो। इससे एक तरफ तो डिगरी-धारी साक्षर किन्तु अशिक्षित, खोटे ज्ञान वाले बेरोजगार युवाओं की अभावग्रस्त सेना खड़ी हो रही है जो कभी भी विद्रोह कर सकती है तो दूसरी तरफ अभाव ग्रस्त पुंजी-पतियों का वर्ग खड़ा हो रहा है जो भावना शुन्य और भयानक अभावों से त्रस्त हैं ।

जिन्होने अपने बचपन में सेकड़ों और हजारों रूपयों का अभाव देखा था आज उनके पास अरबो-खरबों का अभाव है। जिसके पास सो करोड़ है वह एक हजार करोड़ के अभाव से ग्रस्त है और जिसके पास एक हजार करोड़ है उसका अभाव उसे दस हजार करोड़ का बनने की दिशा में धकेल रहा है ।


एक तरफ तो सभी राष्ट्र परस्पर ऐसी प्रतिस्पर्धा में उलझ रहे हैं कि किसके राष्ट्र में कितने अरबपति और खरबपति हैं, तो दूसरी तरफ आपने शिक्षा का भी वाणिज्यिक-विस्तार कर दिया हैं जिससे पढ़े लिखे बेरोजगारों, निकम्मों, आतंकियों और असामाजिक युवाओं की सेना खड़ी कर रहे हैं।

पृथ्वी के भोगोलिक और भौतिक असन्तुलन को तो प्रकृति पर विद्यमान सनातन धर्म चक्र स्वमेव सन्तुलित कर देगा लेकिन जिस दिन मानव ने मानसिक सन्तुलन खो दिया, उस दिन बेरोजगारों, आतंकियों, साम्प्रदायिक पागलों और निकम्मों का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा क्योंकि उनका तो पहले से ही बिगड़ा हुआ है, लेकिन आप लोग जो आर्थिक सत्ताओं, राजनैतिक सत्ताओं और साम्प्रदायिक सत्ताओं पर बैठे हैं! आपके ये ताश के महल जब धरासाही होंगे, उस समय आपकी स्थिति क्या होगी ? इस पर जरा धेर्य पूर्वक विचार कर लेवें और वैचारिक आन्दोलन को गम्भीरता से लेवें, ताकि आपकी सत्ताऐं भी अक्षुण बनी रहे और पृथ्वी पर मानव मात्र ही नहीं जीव मात्र फूले फले ।


आपको क्या चाहिये ?

मुद्रा, करेंसी, वित्त, सोना सभी कुछ मिलेगा अभी जितना है उससे अधिक मिलेगा, जो मिलेगा स्थाई  मिलेगा।

बेरोजगारी क्या होती है ? और इन बेरोजगारों का क्या किया जाये ? ये सभी समस्याऐं समाप्त हो जायेंगी, बस सिर्फ इतना ही करना है कि धरती पर उपजने वाला सोना अधिक से अधिक उपजे, सोना उपजाने वालों की  सम्पन्नता स्थाई हो ताकि उनकी क्रम क्षमता बनी रहे।


जब उनकी क्रय क्षमता बढ़ेगी और फिर बनी रहेगी तो आपके उद्योग और व्यापार भी खूब फलेंगे फूलेंगे । आपका भी हित होगा और धरतीपुत्रों,भूमिपुत्रों का भी हित होगा । देवों, रक्षसों एवं यक्षों का भी हित होगा और ब्राह्मणों ( शिक्षकों ) एवं क्षत्रियों ( कृषी उत्पादकों ) का भी हित होगा । वनों में रहने वाले प्राकृत जनों का भी हित होगा और एक सर्व-कल्याणकारी स्थिति बनेगी जबकि अभी तो सभी दृष्टिकोणों से अकल्याणकारी है । कोई स्थिति प्रिय है तो उचित नहीं है और इच्छित है तो हितकारी नहीं है। 


ॐ तत सत 

प्राक्कथन 5; वैश्विक स्तर की विषमताऐं !

हे विश्व  के कर्णधारों ।

जब व्यक्तिगत स्तर की विषमता होती है तो व्यक्ति को अपने अन्दर शम को स्थापित करके शम्भु बनना पड़ता है ।

जब संस्थागत विषमताऐं होती है तो पूरे समूह को सम प्रदान करने के लिए सम्-प्रदाय (सम्प्रदाय) बना कर उसके लिए कुछ विवि-विधान, सम्-विधान (संविधान) बनाना पड़ता है । जिसे हम साम्प्रदायिक अथवा राष्ट्रीय धर्म कहते है। जिन का उदेस्य राजनैतिका,सामाजिक,आर्थिक तीन आधार सम करना होता है।

लेकिन जब हम विश्व स्तर की विषमताओं को सम से आप्त करना चाहें, समाप्त करना चाहें तो हमें धर्म के उस स्तर को समझना पड़ता है जो सम्प्रदायों एवं राष्ट्रों से ऊपर उठकर,समाज व्यवस्था से ऊपर उठ कर, मानव निर्मित सभी कानून कायदों से ऊपर उठ कर सम्पूर्ण पृथ्वी-ग्रह पर समान रूप से धारण किये जाने वाले धर्म को धारण करने सम्बन्धी है।


इस स्तर पर धर्म एवं विज्ञान एक दूसरे के पर्याय और पूरक हो जाते है अर्थात् उस धर्म को धारण करना होता है जो प्रकृति निर्मित है। विज्ञान के नियमों [प्रकृति निर्मित नियमों] से स्वतः ही भावों का परस्पर आदान प्रदान करके सनातन बना रहता है ।


सनातन उसे कहा गया है जो स्व-नियंत्रित,Self controlled,नान-डिस-कन्टीन्युअस,Nondiscontinuous अन-अवरूद्ध Unblock  होता है जिसकी निरन्तरता बाधित होने पर वह प्रकृति निर्मित धर्म से स्वतः निरन्तरता को प्राप्त कर लेता है । संस्कृत के इस सनातनधर्म शब्द को लेटिन में इकोलोजीसाईकिल  और हिन्दी में पारिस्थितिकी-चक्र कहा गया है। सभी धार्मिक-सम्प्रदायों या साम्प्रदायिक धर्मों का एक ही लक्ष्य बताया गया है, और वह लक्ष्य है "सनातन धर्म की रक्षा करना"।

मैं जहाँ तक समझता हूँ इस बिन्दु पर पूरे विश्व-समुदाय या मानव-मात्र को कोई ऐतराज नहीं होना चाहिये। कहने का तात्पर्य है कि इस बिन्दु पर हमें मानव निर्मित संस्थागत धर्मों से ऊपर उठकर एक समग्र दृष्टिकोण अपनाना चाहिये। समग्र दृष्टिकोण में दो तरह की संस्थाएँ विशेष महत्व रखती हैं ।

एक तरह की संस्थाओं के नाम है राष्ट्र और दूसरी तरह की संस्थाओं के नाम हैं धार्मिक सम्प्रदाय । इन दोनों संस्थाओं का उद्धेश्य आर्थिक-विषमताओं में घिरे मानव समाज को सम-स्थिति प्रदान करना रहा था। लेकिन मानव के ये दोनों ही स्वनिर्मित धर्म वर्तमान काल की सभी विषमताओं के मूल कारण बन गये है ।

अब यहाँ एक प्रश्न उपजता है कि जब इनका उद्धेश्य  सम-स्थापित [ संस्थापित] करना है, प्रजा (जीव प्रजातियों ) को विषमताओं से लड़ने के लिए संगठित करना है, तो फिर इन दो संस्थाओ के विकास के नाम पर हम विषमताएँ क्यों फैला रहे हैं ? इसका कारण है हम काम एवं अर्थ में डूब गये हैं और हमने विविध प्रकार की कॉमसियल संस्थाऐं (वाणिज्यिक प्रतिष्ठान) खड़े कर लिये हैं जो इन दोनों संस्थाओं पर हावी हो गये हैं।

अब यदि हम अपने वैचारिक स्तर या मानसिक स्तर या भावनात्मक स्तर या तर्क एवं दर्शन (लौजिक एवं फ़िलोसोफ़ी) इत्यादि के स्तर को एक ऊंचाई पर ले जायें और फिर इन तीनों को समभाव से देखें तब जाकर हम विश्व स्तर की विषमताओं को सम में आप्त (समाप्त) करके जीवनकाल को सुर में, हारमोनियस काल-खण्ड में बदल सकते हैं ।

अब चुंकि इतने बड़े-बड़े विशिष्ट पदों पर बैठे विषिष्ट लोगों के सामने एक साधारण व्यक्ति की क्या औकात हो सकती है जो आप विश्वस्तरीय लोगों को कोई रास्ता सुझा सके ।

लेकिन यह ठीक उसी तरह है जिस तरह एक पहाड़ी जंगल में विद्वानों एवं शूरवीरों की एक बहुत बड़ी टुकड़ी को उस क्षेत्र का निवासी, एक छोटा सा बच्चा सुगम मार्ग बता कर उनके श्रम को कम कर सकता है।


जिस तरह से एक साधारण ग्वाला (गौपालक कृष्ण) आप को एक प्रशासनिक डिजाइन बना कर दे सकता है।


एक साधारण लकड़हारा (कालीदास) नाटककार के रूप में साहित्य की एक विद्या/विधा का जनक होकर शिक्षा पद्धति में क्रान्ति ला सकता है।


इसी तरह मैं भी एक डिजाईन बता सकता हूँ। उस डिजाईन से आप एक वर्गीकृत समाज व्यवस्था को स्थापित कर सकते हैं। चुंकि समाज व्यवस्था का ढाँचा ही वर्गीकृत है अतः सभी वर्गों के हित की एक उचित व्यवस्था इस ढाँचे में होगी अतः तब इसमें कोई किसी का विरोधी नहीं होगा सभी अपने-अपने वर्ग में सुख से रहेंगे। समस्या तो तब आती है जब एक वर्ग दूसरे सभी वर्गों पर हावी होना चाहता है और सभी वर्गों के कर्म एवं धर्म क्षेत्र में अतिक्रमण करना चाहता है ।


सिर्फ एक बिन्दु ऐसा है जिसको लेकर मैं आशंकित हूँ कि कहीं ऐसा नहीं हो कि मैने तप के संयोग से सोचने का जो स्तर पाया है और फिर उस ऊंचाई के दृष्टिकोण से दुनिया को देखा है और उसी दृष्टिकोण (नजरिये) की वजह से मैं यह डिज़ाईन बना पाया हूँ वह कर्म निष्फल न चला जाये।

निष्फल जाने की शंका का कारण और कारक है, आप लोगों के अंहकार का स्तर अर्थात् यदि आपके अहंकार का स्तर यही रहा और आपने अपने इस पूर्व निर्णय को नहीं बदला कि ‘‘हम तो लड़ेगे ही लड़ेगे । क्योंकि हमारे गुणसुत्रों में चैरासी लाख पशु-योनियों के गुण हैं । अतः हम तो राष्ट्रीय, साम्प्रदायिक और वित्तीय वर्चस्व के लिए आपस में  पशुओं की तरह लड़ेंगे, तू एक साधारण तुच्छ प्राणी हमें मार्ग दिखने की हिम्मत कैसे कर पाया ? अब यदि आपके अहंकार का स्तर पशुओं के स्तर का है जो बिना भिड़े नहीं रह सकते । कभी मादा के लिए, कभी घास के मैदान पर कब्जा हटाकर अपना कब्जा करने के लिए, तो कभी कभी सिर्फ अपनी-अपनी मासपेशियों और सींगों की शक्ति का प्रदर्शन करने जैसे स्तर का ही यदि आपका अहंकार है तो मान कर चले लड़कर ख़ुद भी मरना और दूसरों को भी मारना, यह आपकी नियति है ।


ऊँ तत् सत्


प्राक्कथन 4; संस्थागत विषमताएँ !


 हे भारत राष्ट्र !

[ जिसकी अर्थव्यवस्था का आधार प्राकृतिक उत्पादन है और भारत नामक अग्नि से प्रकाश-संश्लेषण क्रिया के परिणाम से भरपूर वनस्पति पैदा होती है]  

हे भारतीय विद्यार्थियों एवं मतदाताओं !

सुख चाहे कितना ही व्यक्तिगत हो, सामाजिक प्राणी के लिए संस्थागत विषमताएँ दूर करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। आज सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्था राष्ट्र कहलाती है । मैं इस ब्लोग्स के माध्यम से एक राष्ट्रीय क्रान्तिकारी आन्दोलन शुरू करवाना चाहता हूँ । जब भी क्रान्ति शब्द का उपयोग होता है तो कुछ चित्र आपके मानस में बनते हैं । जैसे कि हो-हुल्लड़ होता है । भीड़ इकट्ठी हो जाती है । लोग सड़कों पर उतर कर सड़क छाप बनते है ।

सबसे बड़ी बात है कि आन्दोलन करने के लिए एक नेतृत्व होता है उनके पीछे-पीछे राग में राग मिलाते हुए चलने वालों की भीड़ होती है । परिणाम यह होता है कि नेतृत्व करने वाला यदि स्वयं धूर्त है तब तो वह सत्ता का सुःख भोगता है और नेतृत्व ईमानदार होता है तो अंततः सत्ता धूर्त लोग हथिया लेते हैं ।


इस तरह 1857 की क्रान्ति से लेकर शुरू हुई सभी क्रान्तियों का परिणाम मात्र सत्ता-हस्तान्तरण होकर रह गया है. जबकि इन सभी क्रान्तियों में स्वतन्त्रता का बैनर लगाया गया था। किन्तु मैं जो आन्दोलन चाह रहा हूँ यह इन सभी बिन्दुओं से भिन्न है ।


पहली बात तो यह कि मैं आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए ना तो स्वयं सड़क पर उतरने जा रहा हूँ और ना ही आप को प्रेरित कर रहा हूँ, बल्कि यह आन्दोलन मैं नहीं कर रहा हम सब मिलकर कर रहे हैं। मैं तो संयोजक,समन्वयक हूँ। स्पष्ट भाषा में यह कि मैं यह नहीं चाहता की तमोगुणी अन्धानुयाईयों की भीड़ मुझे समर्थन दे, बल्कि मैं यह चाहता हूँ, आप मेरे मन्तव्य को समझ कर उस पर चिन्तन मनन करें और फिर स्व-विवेक से निर्णय करें। 

"सम्यक ज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है" के सिद्धांत पर चलकर काल-स्थान-परिवेश से बनी परिस्थिति का यथार्थ दृष्टिकोण से आंकलन करें और स्वयं ही अपने आप का नेतृत्व करें । जब आप अपने आप का नेतृत्व करने लग जायेंगे तब आप अपने क्षेत्र के उस वर्ग के हित में सोच सकेंगे जो वर्ग हमारी अर्थव्यवस्था का, हमारे जीवन के अस्तित्व का आधारभूत वर्ग है अर्थात् प्राकृतिक उत्पादन से जुड़ा बहुसंख्यक ग्रामीण एवं वनवासी वर्ग। यह वर्ग अपने जॉब में पारंगत है अर्थात शिक्षित है, सिद्धहस्त है लेकिन उसे निरक्षर कह कर आप उसे अपमानित करते है।

इसके समानान्तर आज जातीय संगठन समाप्त हो गए हैं यानी ये संगठन समाज के परंपरागत आरक्षित रोजगार के समर्थक नहीं रहे बल्कि किसी राजनैतिक दल के समर्थक और अन्य समाजों के साथ झगड़ा करने के समर्थक बन कर रह गए हैं। अतः जिस भारत में 'कोई नृपु होय हमें का हानि' की कहावत चलती थी, उसके पीछें जिस सामाजिक अर्थतंत्र की मजबुती थी वह तो अस्त-व्यस्त हो गया और आज पारिवारिक,सामाजिक [सांप्रदायिक। और प्रशासनिक तीनो स्तर की संस्थाएं असामाजिक तत्व बन कर रह गयी है। 

इसका कारण सिर्फ अववस्था है। न तो भ्रष्टाचार ही कोई मुददा है और न ही भारतीयों का नैतिक-पतन ही हुआ है।

इसका एकमात्र उपाय या तरीका व्यवस्थित तरीके से नया महाभारत [ वर्गीकृत संयुक्त भारत ] बसाया जाये।

प्राक्कथन 3.व्यक्तिगत विषमताऐं !


हे भारत!  [ जिसकी जठराग्नि में भारती नामक अग्नि पौष्टिका आहार की आहुति मांगती है उसका नाम भारत है।]

जीव जब अव्यक्त से व्यक्त में प्रवेष करता है तो स्वतन्त्र रूप से अकेला ही एक ईकाई बन कर व्यक्त होता है और अव्यक्त में जाने के समय भी अकेला ही जाता है । इस बीच का जो कालखण्ड है वह एक व्यक्ति का एक ‘‘जीवन‘‘ कहलाता है । उस जीवन में प्रत्येक जीव यही चाहता है कि वह सुखी रहे ।
सुःख एवं दुःख को महसूस करने की संवेदनशीलता जितनी हम मानवों में होती है उतनी पशुओं में नहीं होती । जबकि पशुओं में दुःख एवं सुख के प्रति सहनशीलता अपेक्षाकृत अधिक होती है या इस तथ्य को इन शब्दों में भी कह सकते हैं कि मानव में दुःख सुःख को लेकर दुर्बलता अधिक है जबकि पशुओं में प्रतिरोधक क्षमता अपेक्षाकृत अधिक होती है ।

संवेदनशीलता के कारण ही हम मौसम का, सुस्वादु भोजन का, आपसी व्यवहार का आनन्द लेते हैं लेकिन इसके समानान्तर हमारे शरीर में सहनशीलता,रोग प्रतिरोधक क्षमता नहीं हो तो आनन्द लेने के स्थान पर या आनंद लेने के बाद हम अस्वस्थ हो जाते हैं ।

ठण्डी-ठण्डी हवा का आनन्द लेने पर जु़काम हो जाता है, सुस्वादु  भोजन करने पर शुगर, ब्लडप्रेशर, दस्त लगना,गैस बनना इत्यादि बीमारियाँ हो जाती है । परस्पर सम्बन्धों में लड़ाई-झगड़ा, मन मुटाव, असन्तुष्टि इत्यादि विषमताऐं तब आती है जब हम भावनात्मक बिन्दु पर संवेदनशील तो अधिक होते हैं लेकिन सहनशीलता या भावों को अभिव्यक्त करने के बिन्दु पर हमारी प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है।

व्यक्तिगत स्तर पर सबसे बड़ी समस्या यह है कि आज की जेनरेशन में भावनात्मक संवेदनशीलता भी निरन्तर कमजोर होती जा रही है और सहनशीलता अथवा प्रतिरोधक क्षमता भी कम से कमतर होती जा रही है । जबकि मानव का पहला धर्म होता है वह सन्ततियों को, आने वाली पीढ़ियों के माध्यम से अपने आप का निरन्तर इस बिन्दु पर विकास करे कि उसमें सुःख को महसूस करने की संवेदनशीलता बढ़े ना कि दुर्बलता । इसी संवेदनशीलता के समानुपाती सहनशीलता और प्रतिरोधक क्षमता को भी विकसित करे ताकि दुःख में भी सहज रह सकें । सन्तति के माध्यम से विकास से तात्पर्य है ताकि वर्तमान जीवनकाल के बाद भी हमारा भावी जीवनकाल भी सुखी रह कर बीते।

संवेदनषीलता दो प्रकार की होती है । एक मानसिक दूसरी शारीरिक । 
मानसिक संवेदनषीलता भावनात्मक सम्बन्धों को अनेक आयाम देती है । ये आयाम धन आवेशित भी होते हैं और ऋण आवेशित भी।  इन धार्मिक-वैज्ञानिक शब्दों के स्थान पर साहित्यिक शब्द काम में लें तो कहेंगे कि सकारात्मक और नकारात्मक नामक द्विपक्षीय असंख्य आयाम होते हैं,जो हमारे अन्दर की भावनाओं को आवेशित करते हैं ।

संवेदनशीलता भी दो प्रकार की होती है -
1. मानसिक संवेदनशीलता
2. शारीरिक संवेदनशीलता 
इन दोनों प्रकार की संवेदनषीलताओं के विविध आयाम होते हैं, जो सभी द्विपक्षीय होते हैं । 
1. धन-आवेशित (सकारात्मक)
2. ऋण-आवेशित (नकारात्मक) 
मानसिक संवेदनशीलता को जितना अधिक बढ़ायेगे आप में सत्य के सकारात्मक नकारात्मक दोनों पक्षों को जानने की उतनी ही सामर्थ बढ़ेगी । किन्तु इस के समानुपाती आपको अपनी सहनशीलता भी बढ़ानी पड़ेगी । 
शारीरिक संवेदनशीलता को जितना अधिक बढ़ायेंगे आप को अपने शरीर में पैदा होने वाली समसामयिक बिमारियों को महसूस करने की क्षमता पैदा होगी और किस आहार के कारण ये व्याधियाँ पैदा हुई और किस आहार से उनका शमन हुआ यह भी महसूस होता है । किन्तु इस क्षमता के समानुपाती आपके शरीर की रोग प्रतिरोधक प्रणाली की क्षमता भी बढ़ानी होगी।

इस तरह एक ही शब्द संवेदनशीलता के दो प्रतिपक्षी शब्द हो जाते है । 
1. सहनशीलता ( सहन करने की सामर्थ्य )
2. प्रतिरोधक क्षमता ( रोग को रोकने की क्षमता )

इसी तरह यह भी समझें कि यंत्र दो प्रकार के होते है । 
1. दैविक यंत्र
2. भौतिक यंत्र

प्राणियों के शरीर को दैविक यंत्र कहा गया है और निर्जीव मशीनों को भौतिक यंत्र कहा गया है ।

अब जबकि भौतिक यंत्र तो निरन्तर अधिक से अधिक गुणवत्ता वाले विकसित किये जा रहे हैं लेकिन इन यंत्रों का सुख भोगने पर होने वाली अनुभूति का स्तर, शरीर रूपी दैविक-यंत्र में कमजोर है तो फिर इन भौतिक यत्रों का विकास सुख नहीं बल्कि दुःख नामक विषमता पैदा करता है।
यदि ऐसा ही चलता रहा तो भौतिक यत्रों के विकास और शरीर के विनाश को आप अपना-अपना व्यक्तिगत दुर्भाग्य मानें।

ऊँ तत् सत् ।

प्राक्कथन 2 ;विषमताओं को सम में आप्त (समाप्त) करो.


प्रिय विद्यार्थियों ! मैं इस विद्युत मिडिया के माध्यम से पूरी दुनिया से सम्पर्क करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ। पूरी दुनिया से सम्पर्क करने का यह प्रयास सफल होगा या नहीं, इस विषय में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता । संदेह के दो कारण हैं । 

शंका का एक कारण तो यह है कि पूरी दुनिया की जनसंख्या के अनुपात में इण्टर्नेट का उपयोग करने और उनमे फिर पढ़ने वालों की संख्या कितनी सी है, यह अनुमान लगाया जा सकता है। 

दूसरा बिन्दू यह है कि इतनी सारी भाषाओं में इतनी सारी वेबसाईट्स हैं उनमें हिन्दी के ब्लोग्स पढ़ने वाले कितने होंगे ? हिन्दी में भी भरपूर वेबसाइट्स है, भीड़ में तूंती की आवाज कौन सुनेगा। ऐसी स्थिति में पूरी दुनिया में बैठे भारतीयों से तथा पूरी दुनिया के प्रबुद्ध लोगों से सम्पर्क करने कि बात सोचना शायद एक अतिशियोक्ति सी लगेगी। अतः सन्देह होना स्वाभाविक है।


दूसरी तरफ सकारात्मक भाव में भावित हुआ मैं यह भी सोचता हूँ कि विषय इतना महत्वपूर्ण है कि इस वेबसाईट को प्रारम्भ में जो भी पढ़ेगा निःसन्देह वह आगे से आगे प्रेरित करेगा । भारत की सभी क्षेत्रीय भाषाओं के साथ अंग्रेज़ी में भी और अन्य देशों की भाषाओं में भी अनुवाद करके इसे बेवसाईट स्तर पर दुनिया में पहुँचाना सम्भव है । तत्पश्चात् प्रिण्ट मीडिया और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से कम से कम भारत में तो यह तथ्यात्मक बात उस वर्ग तक पहुँचनी सम्भव है, जिस प्राकृतिक उत्पादक वर्ग के हित में मैं यह प्रयास कर रहा हूँ।

विषय का एक आयाम यह भी है कि आज हमने भौतिक सुख के इतने सारे साधनों का विकास कर लिया है फिर भी हम इन साधनों का उतना उपयोग नहीं कर पा रहे हैं जितना उपयोग करने का हमारा स्वाभाविक अधिकार बनता है। इस इतने बड़े सत्य के पीछे छिपा तथ्य सिर्फ इतना ही है कि अर्थ की व्यवस्था का जो तंत्र (सिस्टम) है उसमें छोटी सी त्रुटि है उस त्रुटि (एरर) को यदि हम दूर कर दें या सुधार दें तो हम इस पृथ्वी पर छः सात अरब नहीं बल्कि साठ अरब की जनसंख्या भी हो जाये तब भी हम सभी सुखी रह सकते हैं । जबकि वर्तमान की समस्यायें अनगिनत हैं जिनकी सूची काफी लम्बी है जिन्हें सभी जानते हैं । इन सभी प्रकार की विषमताओं का समाधान करना चाहें तो इन्हें वर्गीकृत करना पडे़गा।

इस तथ्य को इस तरह भी अभिव्यक्त किया जा सकता है कि ; 'भ्रष्टाचार की, उचित-अनुचित की और पाप तथा पुणय और न्याय व् अन्याय की अवर्गीकृत अव्यवस्था में सामूहिक सुनिश्चित परिभाषा नहीं होती।' 'प्रतेक गुण विकार सहित होता है क्योंकि एक विशेष काल-स्थान-पात्र के लिए गुण और विकार की विशेष परिभाषा होती है। अतः अगर हम एक सुन्दर और स्वर्ग समान जीवन शैली स्थापित करना चाहते हैं तो इसको सिर्फ एक 'व्यवस्था" शब्द पर ही केन्द्रित वाक्य में अभिव्यक्त कर सकते हैं :-
अव्यवस्था के परिणाम स्वरूप हमने भारत को भी नरक बना लिया है। भारत को पुनः स्वर्ग बनाने के लिए हमें सिर्फ एक सूत्री कार्यक्रम चलाना है और वह होगा "अव्यवस्थित भारत को एक साथ व्यवस्थित नहीं किया जा सकता अतः भारत के चारों कोनो से समसामयिक यथार्थ दृष्टिकोण वाले एक नए आधुनिक भारत का निर्माण करना होगा जहाँ वर्गीकृत व्यवस्था हो। उस व्यवस्था में विषमता नहीं बल्कि परस्पर समन्वय हो और सभी सुखी रहें। "

विषमताऐं तीन स्तर पर आंकी जाये तो
(1) पहला स्तर है व्यक्तिगत
 (2) दूसरा स्तर है संस्थागत । संस्थागत स्तर में परिवार से लेकर राष्ट्र नामक संस्था के स्तर तक की सभी समस्यायें एक श्रेणी में आती है ।
(3) तीसरे स्तर की समस्याऐं मानवीय स्तर या वैश्विक स्तर या पृथ्वी ग्रह के जीव जगत के स्तर तक की सभी समस्याऐं एक ही श्रेणी की विषमताऐं  है ।

क्रमशः