सम्माननीय पाठक !

नमस्ते !

{ नः मः अस्ते अर्थात [आपके बिना और आपके सामने भी ] मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। }

बात सारगर्भित भी है तो कुछ लम्बी-चौड़ी भी है अतःबात को संपादित करके कहने हेतू अभी 10 ब्लोग बनाए हैं.

"GISM" नामक इस ब्लॉग को केन्द्र में रखें और यहीं से पढ़ना शुरू करें।

देवर्षि नारद के तीन ब्लॉग में से

"सामाजिक पत्रकारिता" में जातीय व् साम्प्रदायिक संरचना को विस्तार से बताने पर लेखन केन्द्रित रहेगा।

"नैतिकता की राजनीति" में लेखन पौराणिक,प्राचीन तथ्यों एवं प्रकृति निर्मित संविधान,क़ुदरत के क़ानून,Nature Created Constitution,Laws of natural order of things पर केन्द्रित रहेगा।

"निर्दलीय राजनैतिक मंच" में लेखन वर्तमान की समसामयिक बातों पर केन्द्रित रहेगा।

इन तीनों ब्लॉग्स को आप "कला संकाय" [Faculty of arts] के विषयान्तर्गत पढ़ें।

"मुनि वेदव्यास" के चारों ब्लॉग को धर्म एवं विज्ञान के विषयान्तर्गत पढ़ें। धर्म को अपने आप के प्रति कर्तव्य एवं अधिकार के रूप में लें और विज्ञान को आयुर्विज्ञान के अंतर्गत लें।

इन चारों ब्लॉग्स को "दर्शन एवं विज्ञान संकाय" [Faculty of Philosophy and Sciences] विषयान्तर्गत पढ़ें।

"प्रणय विज्ञान" नामक "कार्तिकेय" के ब्लॉग को "वैवाहिक जीवन और नैसर्गिक आनंद" विषयान्तर्गत पढ़ें।

अंतिम चरण का ब्लॉग है "भव्य महा भारत निर्माण" ! इस ब्लॉग को "अर्थशास्त्र संकाय" [Faculty of Economics] विषयान्तर्गत पढ़ें। लेकिन चूँकि यह ब्लॉग "सांख्य और सांख्यिकी" [Principle Knowledge and Statistics] तक सीमित नहीं है बल्कि साँख्य का योग-प्रयोग-उपयोग [Experiment &-Applying to use] करना है अर्थात "व्यावहारिक धरातल [Practical Ground] पर नव महा भारत का निर्माण" करने हेतु पढ़ें।

इस तरह प्रथम चरण में हमें ज्ञान मार्ग से ध्यान मार्ग [Meditative Concentration via Knowledge path] से चलना है अतः सात्विक-बुद्धि,बोद्धिसत्व का उपयोग करके बुद्धि के देवता को काबू में करना है तब फिर फ़तह ही फ़तह है। फ़ारसी में कहा है 'हिम्मते मर्दां मददे ख़ुदा'। अतः प्रथम चरण में अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट करके,अपने आप में आत्मविश्वास बढ़ाने के कार्य से प्रारम्भ करें और पृथ्वी पर पुनः स्वर्ग बसाने के कार्य का श्री गणेश करें। अगले चरण स्वतः बढ़ते चले जायेंगे। बस नीयत होनी चाहिए नियति स्वतः लक्ष्य तक अवश करके धकेलती हुई पहुँचा देगी।

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य है जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

रविवार, 26 अगस्त 2012

The second larger question ! दूसरा यक्ष प्रश्न !


अन्तर्राष्ट्रीय विद्यार्थियों के साथ-साथ उच्च बौद्धिक स्तर के अन्तर्राष्ट्रीय पत्रकारों से मैं बृजमोहन वशिष्ठ कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। 

जिस तरह प्रत्येक तत्व की गुणधर्मिता/characteristic of Elements  में गुण और विकार दोनों होते हैं उसी तरह इन्सान के अन्दर एक शैतान भी होता है। ये दोनों परस्पर पूरक [mutually complementary] होते हैं। 

जो देवी सम्पदायुक्त समाज-मनोवैज्ञानिक हैं उनमें जो विशिष्टतम एवं सर्वोच्च स्थान रखने वाला प्रतिभावान विद्यार्थी होता है वह आगे जा कर अध्यापक, लेखक या पत्रकार के रूप में प्रकृति प्रदत्त विभूति Nature granted Iconic Greatness बनता है यानी स्वाभाविक रूप में विभूति होता है। 

जो आसुरी सम्पदायुक्त होता है वह लेखक, अध्यापक पत्रकार बन कर भी असामाजिक Unscrupulous anti greatness होता है।

अतः आप अपनी महत्ता को समझें। आप विद्यार्थी ही एक मात्र ऐसे वर्ग के लोग हैं जो सामाजिक पत्रकार बन कर इन्टरनेट के माध्यम से जनसम्पर्क या परस्पर संपर्क करके एक सर्वकल्याणकारी व्यवस्था बनाने अथवा बनवा पाने हेतु वातावरण बना सकने में समर्थ हैं।

यक्ष की वेशभूषा Dress-code पहने धर्मराज[न्यायाधीश] ने पाण्डवों से जो चार प्रश्न किये थे उनमें एक प्रश्न, देवासुर दोनों प्रकार के आचरण को रेखांकित करने वाला, यह भी था। 

प्रश्न :- '"मनुष्य की उन्नति का मार्ग क्या होता है और पतन का निमित्त क्या होता है?"  

उत्तर :- "उन्नति का मार्ग धर्म और पतन का निमित्त अभाव होता है।

धर्म = गुण- दायित्व बोध, कर्तव्य बोध, Sense of Liability, duty, Obligation, Responsibility, Properties, Virtues, Qualities, Attribute, Formation, रचना धर्मिता, सृजनशीलता Creation इत्यादि।
अभाव = भाव के विपरीत, मनोविकार, तृष्णा, लालसा,अतृप्ति, Absence, Craving , Longing, Discontentment, Disorder, Deformation, Discreation, Destruction, Devastation  इत्यादि। 

वर्तमान समय में जो दुःख एवं क्लेश tribulation का वातावरण बना हुआ है, उसके पीछे यही जो एक छोटा सा कारण है, वह है - 'आपसी समझ में भाव-अभाव को लेकर त्रुटि'। आप इसी त्रुटि[Error] को दूर करने के लिए यह रचनात्मक काम कर सकते हैं। जब हम सकारात्मक सृजनशीलता के भाव[धर्म] के स्थान पर अपने अन्दर योग्यता,आत्मविश्वास इत्यादि का भाव नहीं होने पर अभाव से ग्रसित हो जाते हैं और परस्पर एक दूसरे को नीचा दिखाने की चेष्टा में रहते हैं तब मानव के उस धर्म को भूल जाते हैं जो परस्पर मान-सम्मान देने का होता है, बल्कि परस्पर अपमान करने में लग जाते हैं। 

आपके प्रति श्रद्धा और विश्वास जनित आस्था, Mental ability and confidence generated positivity, positive thinking  रखते हुए एक विश्वास trust के साथ ब्लॉग श्रृंखला के माध्यम से आपके समक्ष उतर रहा हूँ और आप सभी महानुभावों से प्रणाम करते हुए अपेक्षा करता हूँ कि आप मानवीय क्लेश tribulation को दूर करने में मुझे नैतिक समर्थन देंगे। 

इसी के साथ-साथ उन सभी अभावग्रस्त दुष्टों को भी प्रणाम करता हूँ, जो पत्रकार बन कर बिकने के लिए इस व्यवसाय में आये हैं और किसी भी मानसिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक दबाव में आकर मेरा विरोध कर सकते हैं या प्रथम चरण में मेरी अवहेलना कर सकते हैं, मुझे Neglect कर सकते हैं। 

इसी के साथ-साथ में उन तामसी प्रवृति के अभावग्रस्त लोगों को भी प्रणाम करता हूँ जिन्होंने अज्ञान से अपने ज्ञान को आवृत कर रखा है, परिणामस्वरूप वे अन्धानुयायी बन कर पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर ही सोचते-विचारते और बोलते-कहते रहते हैं और इस तरह अभाव को पैदा करने वाले इस इकतरफा भौतिक विकास के कट्टर समर्थक हैं। जो अपनी अयोग्यता को बेशर्मी से प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि "अगर चारों तरफ शान्ति हो गई तो हमें कौन पूछेगा"!

मैं उन लोगों को भी नमस्कार करता हूँ जो सिर्फ साक्षरता की रट लगाये रहते हैं, अतः उन ग्रामीणों को अशिक्षित कहते हैं जो कर्म-योगी, पृथ्वी-पुत्र, भूमि-पुत्र किसी भी कृषि वैज्ञानिक और पशु चिकित्सक से अधिक शिक्षित होते हैं।

हो सकता है अर्जुन की तरह कार्पण्य-दोष आने के कारण इस विषम स्थिति में भी आपको राजनीति और अन्य सामाजिक गतिविधियों से परहेज हो! लेकिन यदि ऐसा है तो निःसंदेह ज्ञान-विज्ञान में अवश्य रूचि होगी तब आप देवर्षि नारद के न सही वेदव्यास के ब्लॉग अवश्य पढ़ें और आगे से आगे पढ़ने के लिए प्रेरित करें। यदि इतने अधिक अभावग्रस्त हैं कि येन-केन-प्रकारेण सिर्फ पैसे कमाने की कामना से ही काम करने के कमीनेपन के अलावा दुनिया में कुछ नहीं सूझता तब भी शैतान के आचरण से मुक्ति के लिए किये जा रहे इस प्रयास को नैतिक समर्थन देने का प्रयास तो कर ही सकते हैं। अब यदि आप अभाव में आकर इतने कंजूस हो गये हैं की समर्थन करने की नैतिकता ही खो बैठे हैं तब तो आपके अन्दर का भगवान भी आपका भला करने में असमर्थ हैं।

मैं बृज मोहन वशिष्ठ एक स्वतन्त्र पत्रकार-विद्यार्थी की हैसियत से और मानसिक रूप से अपने आप को युवा वर्ग में रखते हुए इस विद्युत्-मीडिया{इंटरनेट] को मध्यस्थ बना कर भारतीय विद्यार्थियों को कुछ कहना चाहता हूँ। तथा जो किसी भी उचित जानकारी को, पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर, जानने को इच्छुक रहते उनको भी कुछ कहना चाहता हूँ।

यहाँ दो प्रश्न स्वाभाविक रूप से पैदा होते हैं -
1. मैं मीडिया के माध्यम से ही क्यों कहना चाहता हूँ  ?
2. मैं मानसिक रूप में युवा और नवयुवाओं को ही क्यों कहना चाहता हूँ ?

वह इसलिए क्योंकि मैं एक क्रान्तिकारी आन्दोलन की शुरूआत करना चाहता हूँ ।

मैं एक ऐसे क्रमबद्ध कार्यक्रम को शुरू करना चाहता हूँ जो आनन्द में दोलन करते हुए चलेगा। अर्थात् जिस क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए यह कार्यक्रम चलेगा, उस परिवर्तन के क्रम में प्रारम्भ से लेकर लक्ष्य की प्राप्ति के क्रमिक कार्यक्रम के बाद होने वाले अन्त तक; कहीं भी तनाव, शोर-शराबा और विरोध-विद्रोह कुछ भी नहीं होगा।

इस आन्दोलन के दो पार्ट/पक्ष हैं, जो एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों पक्षों में भावों का परस्पर आदान-प्रदान होगा और हम एक अभावग्रस्त अव्यवस्था से मुक्त होकर, एक ऐसी व्यवस्था को प्रतिष्ठित करने के लक्ष्य को लेकर चलेंगे जहाँ हम भावों से भावित रह कर धर्म को धारण कर सकें।

इस जीव-जगत का उद्धविकास भावों के परस्पर संयोग, परस्पर आदान-प्रदान से ही तो हुआ है, होता आया है, हो रहा है और होता रहता है।

इस तरह ज्ञान परम्परा कहती है कि जहाँ भाव हैं वहाँ उसकी प्रतिपक्षी सच्चाई अभाव भी विद्यमान रहता है।

जीव-जगत में दो तरह के अभाव होते हैं। एक भूख, दूसरा भय।

जब तक जीव भय और भूख नामक अभावों से मुक्त नहीं होता वह भाव में भावित रहकर अपने भावों की वृद्धि नहीं कर सकता, भावों को विस्तार नहीं दे सकता। क्योंकि अभावग्रस्त व्यक्ति का कोई भी कार्य महत्व value आधारित नहीं होकर लागत, कीमत, cost आधारित हो जाता है।

भोजन से भूख नामक अभाव से मुक्ति मिलती है तब व्यक्ति के भावों में वृद्धि होती है। इसी प्रकार भजन [सुरीले संगीत] से भय नामक अभाव से मुक्ति मिलती है। या कहूँ कि खाना खाने से भूख भागती है और गाना-गाने से डर भागता है। जहाँ भोजन और भजन से तात्पर्य सुर में रहना है और सुर(हारमोनी) में तभी रहा जाता है जब ज्ञान हो।

ज्ञान एवं भोग एक दूसरे के पूरक होते हैं अतः इस क्रान्तिकारी आन्दोलन के दोनों कार्यक्रम एक साथ simultaneous,समकालिक चलेंगे।

एक कार्यक्रम जो कि मीडिया के माध्यम से चलेगा, यह कार्यक्रम वैचारिक क्रान्ति का आन्दोलन होगा, जो भावनाओं की सर्वोच्च ऊँचाई से प्रारम्भ होकर विचारों के आदान-प्रदान से चर्चाओं एवं संगोष्ठियों के माध्यम से ब्रह्म में रमण करते-करते धरातल पर आकर मूर्त रूप लेगा।

दूसरा कार्यक्रम धरातल से ही शुरू होगा जो इस सूख रही धरा को पुनः 'शस्य श्यामला वसुंधरा' बनायेगा। इसको एक आधारभूत वाक्य में कहें तो यह कि एक ऐसे किफायती आर्थिक तंत्र  Economical Setup, System, Arrangement, Method, Rule, Regime  को स्थापित किया जायेगा जो  Ecology  के विज्ञान पर आधारित यानी पारिस्थितिकी चक्र Eco-Cycle Management से प्राकृतिक उत्पादन की अर्थव्यवस्था की स्थापना के रूप में होगा। Ecologically & Economically both पारिस्थितिकी और आर्थिक दोनों रूप से साथ- साथ, simultaneously होगा।

वैचारिक आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में आप यह समझें कि यह तीन बिन्दुओं को समानान्तर लेकर चलेगा जिसका लक्ष्य होगा, चौथे बिन्दु की रचना करना। वे तीन बिन्दु होंगे...

(1) भूतकाल अर्थात् इतिहास का सबक़ लेने के रूप में अवलोकन करना। इसके लिए विशेष तौर पर देवर्षि नारद के ब्लोग्स सामाजिक पत्रकारिता और नैतिक राज बनाम राजनीति पढ़ें।

(2) वर्तमान का, पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर, अवलोकन करना ताकि समस्याओं के कारणों को खोजा जा सके और उनका समाधान निकाला जा सके। इसके लिए निर्दलीय राजनैतिक मंच पर विज़िट करते रहें।

(3) वर्तमान में हम जिसे शिक्षा कहते हैं उसी गतिविधि को धर्म कहा गया है। जिन्हें हम धार्मिक-सम्प्रदाय कहते हैं उसका तात्पर्य था "समुदाय विशेष को जॉब एवं आचरण विषयान्तर्गत दी जाने वाली शिक्षा।"
जिसे हम Eco-Cycle Ecology कहते हैं इसी को भगवान की बनाई हुई Economics कहते हैं, इसी को सनातन धर्म कहते हैं। इस सत्य को बता कर अगले क्रम में सनातन धर्म या धार्मिक-सम्प्रदाय बनाये गये। इन सभी सम्प्रदायों का एक ही लक्ष्य बनाया गया वह लक्ष्य है "सनातन-धर्म[ Eco-Cycle, Ecology]की रक्षा करना"। इस विषय में मुनि वेदव्यास के ब्लोग्स पर विज़िट करते रहें।

इन तीनों बिन्दुओं को सम-अन्तर से उठाकर उन का अवलोकन और विश्लेषण कुछ इस तरह से करना ताकि एक सुन्दर भविष्य के रूप में... 

"एक ऐसी व्यवस्था स्थापित की जा सके जो सर्व-कल्याणकारी हो।"

कल्याणकारी उस स्थिति को कहा गया है जो ‘श्रेष्ठ‘ भी हो और ‘ईष्ट‘ भी हो। ‘श्रेष्ठ‘ स्थिति वह होती है जो ‘प्रिय‘ तो हो, उसके साथ-साथ ‘उचित‘ भी हो। ‘ईष्ट‘ कामनाऐं वे ‘इच्छाऐं‘ कही गई हैं जो 'हितकारी' भी हों यानी जिन इच्छाओं के पूरा होने से अहित नहीं हो। इस तरह जो स्थिति प्रिय-उचित-इच्छित-हितकारी चारों शर्ते पूरी करती है वह कल्याणकारी स्थिति कही गई है।

समस्या तब पैदा होती है जब किसी एक वर्ग को प्रिय लगने वाली स्थिति अनुचित तरीके से प्राप्त की गई हो और किसी एक वर्ग की इच्छा पूरी करने के एवज में दूसरे किसी एक वर्ग का अहित हो। आज तो यह स्थिति हो गई कि वर्ग विशेष की प्रिय-इच्छाऐं उसी वर्ग के लिए अनुचित और अहितकारी होती हैं।

इस तरह एक तरफ तो चारों शर्तें पूरी होने पर स्थिति कल्याणकारी कही जायेगी तो दूसरी तरफ अलग-अलग जॉब्स, जातियों, मान्यताओं, शैक्षणिक-स्तरों, आर्थिक-स्तरों, राजनैतिक स्तरों में बँटा समाज जिसमें एक वर्ग को जो स्थिति प्रिय एवं उचित लगती है दूसरे वर्ग को वही स्थिति अप्रिय और अनुचित लगती है। किसी एक वर्ग को जो मान्यताऐं अच्छी और हितकारी लगती हैं वे ही मान्यतायें किसी अन्य बौद्धिक वर्ग को खराब और अहित करने वाली बुरी मान्यताऐं लगती हैं।

इस तरह सर्वकल्याणकारी स्थिति को प्रतिष्ठापूर्वक प्रतिष्ठित करने के लिये जिस सर्वकल्याणकारी समाज व्यवस्था की रचना करनी है वह एक जटिल प्रक्रिया है। अतः सर्वप्रथम आवश्यकता है एक ऐसे वैचारिक क्रान्ति के आन्दोलन की जो गाँव-गाँव, गली-गली, चौपालों-चौराहों पर चर्चा और विचारों के आदान-प्रदान के रूप में चले। क्योंकि ऐसी व्यवस्था को स्वीकार किया जाये, थोपी नहीं जानी चाहिए। अतः सभी को अवगत कराने का काम तभी संभव होगा जब विद्यार्थी मीडिया बन कर स्वयं मिडिया की भूमिका निभाये।

टीवी चैनलों, समाचार पत्र-पत्रिकाओं और हथाई प्रधान भारत के प्रबुद्ध नागरिकों के माध्यम से ये विचार उन ग्रामीणों और वनवासियों तक भी जाने चाहिये जो या तो निरक्षर हैं या फिर रोज़ी-रोटी की व्यवस्था में कोल्हू के बैल बने हैं। अतः वे हथाई के स्थान पर हाथापाई करते हैं लेकिन मीडिया का उन लोगों से विशेष सरोकार नहीं है जबकि जनसंख्या में वे सर्वाधिक हैं। परियोजना भी उन्हीं को केन्द्र में रखकर बनाई गई है। अतः यह काम विद्यार्थी ही कर सकते हैं।

मीडिया की परम्परा नारद से शुरू होती है। देवर्षि नारद अर्थात् देवी सम्पदा युक्त समाज वैज्ञानिक। नारद ब्रह्मा के अर्थात् विधि-विधाता[संविधान निर्माण करके राष्ट्र के जनगण के भाग्य विधाता विधायिका] के मानस पुत्र कहे जाते हैं।

नारद विष्णु के अर्थात् संचालक [ न्याय-अन्याय का विष्लेषण करने वाली न्यायपालिका ] के भक्त हैं और उसी का नाम रटते रहते हैं। 

नारद शिव के अर्थात् अपने अच्छे-बुरे गणों के कामों पर ध्यान रखने वाले ध्यान में सम-अधि को प्राप्त किये रहने वाले शिव-स्वरूप राष्ट्रपति के और शिव-गणों [ कार्यपालिका के कर्मचारियों ] के सेवक हैं।

  ‘ब्रह्मा‘ के मानस-पुत्र होने के नाते नारद प्रजा के हित में विधायिका को संविधान में संशोधन करके विधि-विधान में परिवर्तन करवाने के लिए कार्य करता है।

 ‘विष्णु‘ का भक्त होने के नाते वह देवों व असुरों की कारगुजारियों की सूचना देता है ताकि प्रजा को न्याय मिले और बुरे को उसके कर्मों का दण्ड।

 ‘महेश‘ के सेवक होने के नाते वे सेवा कर्म करते हैं और प्रजा के घर-घर जाकर समाचार पहुँचाते हैं और प्रजा की समस्या शिवगणों तक[कार्यपालिका तक] पहुँचाते हैं ।

 इस तरह नारद को चौथा स्तम्भ कहा गया है।

नारद को ज्ञान का देवता इसलिए कहा गया है कि मीडिया का धर्म है दोनों पक्षों के विचारों को निष्पक्ष प्रकाशित करना और साथ ही साथ तथ्यपरक कार्य की विरोधाभासी, द्विपक्षीय सम्भावनाओं को उजागर करना।

  एक तरफ तो नारद को भगवान ने अपनी विभूति बताया है और कहा है कि देवर्षियों में मैं नारद हूँ।
 दूसरी तरफ नारद का द्विपक्षीय ज्ञान जब अज्ञान से आवृत हो जाता है तो वह दोगला कहा जाता है और विद्वान बनने की कोशिश में वह विदूषक बन जाता है।

ज्ञान के देवता के रूप में नारद एक विख्यात नाम है जो ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों को अपने ज्ञान का लोहा मनवाता है और कल्याणकारी कार्य करने के लिए विवश कर देता है तो दूसरी तरफ दोगलेपन और विदूषक के रूप में नारद इतना कुख्यात नाम है कि दो पक्षों को भिड़ा कर अपने कमीनेपन पर इतराता है। 

भारत की स्वतन्त्र पत्रकारिता के कारण भारतीय मीडिया का एक पक्ष प्रतिष्ठित भी है तो एक वर्ग ऐसा भी है जो बिकने के लिए तैयार बैठा रहता है और अपनी TRP बढ़ाने के लिए समाचारों को भी इस तरीके से पढ़ता है कि वह विदूषक [जोकर] लगता है।

कितना ही अच्छा काम करने वाला हो यदि जाना-पहचाना नाम नहीं है तो मीडिया उसकी तरफ से आँखे मूँदे रहता है जबकि जाना-पहचाना नाम यदि निम्नतम स्तर की मानसिकता वाला काम भी कर रहा हो तब भी उसे अपना मुख्य समाचार बना कर उसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बना देता है।

मीडिया यदि ज्ञान का सहारा लेकर प्रजा का हित करना चाहे तो वह विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका तीनों को मजबूर कर सकता है कि वे अनुशासित होकर कार्य करें। लेकिन यह तभी सम्भव होता है जब देवी सम्पदा युक्त देवों में जो ऋषि[वैज्ञानिक] होते हैं अर्थात् जो उच्च बौद्धिक स्तर के समाज वैज्ञानिक हैं उनमें से निकला हुआ व्यक्ति मीडियाकर्मी बनता है तब वह भगवान की विभूति नारद कहा जाता है ।

लेकिन जब सत्ता आसुरी सम्पदा युक्त असुरों के हाथ में होती है तो वे प्रजा की हारमोनी डिस्टर्ब करने का काम करते हैं क्योंकि उनकी ख़ु़द की हारमोनी अपना सुर गँवा चुकी होती है। अतः इस परियोजना को प्रचारित-प्रसारित करने का काम विद्यार्थियों को कुछ इस तरह करना चाहिए कि व्यावसायिक मिडिया इस विषय में मजबूर हो जाये। 

आज धार्मिक, राजनैतिक एवं आर्थिक तीनों सत्ताएँ जिन-जिन लोगों के पास हैं उन सभी को हर पल यह डर सताता है कि कहीं उनकी सत्ता छिन न जाये। डरते हैं कि कहीं उन लोगों को हमारे मन्तव्यों का पता न चल जाये जिन लोगों का हम लोग भावनात्मक एवं आर्थिक दोहन कर रहे हैं।

आज का मीडिया भी इस आसुरी प्रवृति का समर्थक हो गया है अतः उन्हीं समाचारों को महत्व देता है जो विषमताओं को बढ़ाने या पैदा करने वाली घटनाऐं होती हैं। नारद जब देवों के बीच होता है तो उसके समाचारों में जगह-जगह हो रहे रचनात्मक कर्यों का ज़िक होता है। इस तरह वह प्रतिस्पर्धा कराके रचनात्मक कार्यों का विस्तार कराता है लेकिन वही नारद जब असुरों के बीच होता है तो उसके समाचार के बिन्दु होते हैं कहाँ-कहाँ कितना-कितना घोटाला, हिंसा, दुर्घटनाऐं, भ्रष्टाचार और अवमाननाऐं हुईं।

आज जब वित्तीय सत्ता ने आर्थिक, राजनैतिक एवं धार्मिक तीनों सत्ताओं पर अतिक्रमण कर रखा है तो मीडिया-संचालक और मीडिया कर्मी दोनों ही उसी को महत्व देते हैं जो बिक सकता है। बिकने वाला चाहे व्यक्ति हो, समाचार हो या फिर दुराचार हो।

ऐसी स्थिति में मैं सर्वप्रथम मीडिया संचालकों एवं मीडिया कर्मियों से यह पूछना या कहना चाहता हूँ कि क्या आप मेरे जैसे अनजान व्यक्ति को महत्व Value दे सकते हैं जो भारत में एक ऐसी व्यवस्था का ढाँचा बनाने का प्रयास करना चाहता है जो सर्व कल्याणकारी हो, जो सभी को प्रिय लगे, सभी उसे उचित मानें, सभी की इच्छित कामनाऐं यानी कमाने का माध्यम हितकारी हो!

शायद नहीं ! अतः अब एकमात्र विकल्प है आप विद्यार्थी समाज जिनका पूरा जीवन बाकी है जबकि आप अभी एक अभावपूर्ण स्थिति में जी रहे हैं क्योंकि आपमें अभी ये भाव नहीं हैं कि आपको कुछ रचनात्मक करना है बल्कि आप एक गणितीय आंकलन लेकर चल रहे हैं कि क्या जॉब पकड़ा जाये की पैसा मिले। इस चक्कर में आप जीवन का अर्थ ही भूल बैठे हैं।

चुंकि इस आन्दोलन के प्रथम चरण की शुरूआत सभी वर्गों के लिए कल्याणकारी परिवेश यानी अनुकूल परिस्थिति का निर्माण करने के हेतु वैचारिक स्तर पर चर्चाऐं करवाने से होगी अतः मीडिया को काम एवं टी.आर.पी. की कमी नहीं रहेगी। क्योंकि इस विचार विमर्श में सभी लोगों को शामिल किया जाना आवश्यक है चाहे वे वनों में रहने वाले भूखमरी के शिकार लोग हों या उनका भला करने के नाम पर आतंकवाद एवं विद्रोह का रास्ता अपना चुके नक्सली लोग हों। चाहे धर्म के नाम पर भावनात्मक और आर्थिक शोषण करने वाले साम्प्रदायिक धर्मों के गुरू हों या फिर धर्म की रक्षा के नाम पर आतंक और विद्रोह का रास्ता अपना चुके लोग हों।

राजनैतिक स्थिरता के नाम पर अप्रिय लोगों से भी पाँच साल तक का अनुबंध करने वाले दल-दल हों या फिर कार्यपालिका के कर्मचारी हों, जो अपने आप को कर्तव्यपालक के स्थान पर अधिकारी कहलवाना पसन्द करते हैं।

आर्थिक विकास के नाम पर अपनी वित्तीय सत्ता का विस्तार देने वाले वित्तेश[पूंजीपति] हों या अपनी रोज़ी-रोटी के जुगाड़ में लगे बेरोज़गार युवक हों।

अनेक वर्गों में विभाजित भारतीयों के प्रत्येक वर्ग को कल्याणकारी परिस्थिति और परिवेश देने वाली सुव्यवस्था बनाना बहुत ही सरल है बशर्ते मीडिया अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इसमें भाग ले। इस काम के लिए विद्यार्थी वर्ग ही मीडिया को मजबूर अथवा आवेशित कर सकता है।

प्रारम्भ में तो यह वैल्यु आधारित मानसिकता से प्रारम्भ करना होगा । तत्पश्चात् यह स्वतः ही आपके निवेश और वेतन की कॉस्ट निकालने वाला कार्यक्रम बन जायेगा।

लेकिन यदि मीडिया ने सहयोग नहीं दिया तो इस आन्दोलन को गर्भ में ही मरा हुआ समझना चाहिये। अब मैंने यदि इसे सही सलामत पैदा भी कर दिया तब भी यह विस्तार नहीं ले सकता। क्योंकि यदि मैं कितना ही ज़ोर लगा लूँ, प्रत्येक वर्ग को विचार-विमर्श की सुविधा उपलब्ध नहीं करा सकता।

अब विद्यार्थियों से यह कहना चाहता हूँ कि आप को अपना न सिर्फ कैरियर बनाना है बल्कि आपके सामने एक लम्बा भविष्य पड़ा है जबकि वस्तुस्थिति यह है कि आगामी निकट भविष्य में जो स्थिति पैदा होने जा रही है वह इतनी विषम एवं प्रतिकूल हो रही है कि आपके सामने दो ही मार्ग बचेंगे या तो विद्रोह करके प्रतिकूलता बढ़ाना या फिर पलायन का मार्ग अपना कर आत्म हत्याऐं कर लेना।
 कहावत है "ख़ुद मरे बिना स्वर्ग नहीं"।

अतः विद्यार्थियों को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि यदि आप खुद मानसिक रूप से एक सम्पूर्ण परिवर्तन के लिए तैयार नहीं होंगे तो जिनकी ज़िन्दगी बीत चुकी है उनसे इतनी बड़ी अपेक्षा करना आपका भोलापन होगा।

 भारत को "यंगिस्तान" कहा जा रहा है। एक समय था जब मैंने देखा कि मुझ से पहली पीढ़ी के लोग पन्द्रह-सोलह वर्ष की आयु में ही अपना कैरियर प्रारम्भ कर देते थे।

हमारी पीढ़ी में यह आयु बीस-बाईस वर्ष हुई और आज यह आयु तीस-पैंतीस तक पहुँच गई है। तीस वर्ष तक तो आप पढ़ने और परीक्षाऐं देने से ही मुक्त नहीं होते और जब काम मिलता है तो एक तरफ तो आप काम की खोज करते-करते थक चुके होते हैं, दूसरी तरफ आपके पास जो समय बचता है उसमें आपका ध्यान सिर्फ वित्तीय स्थिति को मजबूत करने की तरफ़ रहता है । इन दो पाटों के बीच आपका जीवन अर्थहीन हो जाता है। आपके जीवन का अर्थ ही बदल जाता है।

इसमें सबसे बड़ी एक समस्या आती है कि  जिस समय को अभ्यास या कर्म के अभ्यास की आयु कहा जाता है, जीवन का वह पूरा समय तो सैद्धान्तिक ज्ञान की पढ़ाई में तथा रटने वाली स्मृति की परीक्षाओं  में ही निकल जाता है। सिद्धान्तों को जानना जितना महत्वपूर्ण होता है उससे कई गुना अधिक महत्वपूर्ण होता है उनके आधार पर कार्य करने का अभ्यास करना।

अभ्यास करने के महत्व को बतलाने वाला वाक्य है "करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान" 
अर्थात् सिर्फ अभ्यास करते रहने से भी कार्य विशेष में काम आने वाले सिद्धान्त[थ्योरी अथवा प्रिंसिपल्स] की जानकारी स्वतः हो जाती है लेकिन सिर्फ थ्योरी अथवा प्रिंसिपल को बहुत गहराई और ऊँचाई से भी जानने वाला पढ़ा लिखा "डिग्रीधारी" जब तक कार्य को अपने हाथ से नहीं करेगा उस कार्य में निपुण, पारंगत या अभ्यस्त नहीं हो सकता।

हाथ से कार्य करके सीखने की उमंग किशोरावस्था एवं नवयुवावस्था की वयःसंधि में परवान पर होती है। अतः आज की यह शिक्षा-परीक्षा पद्धति, पढ़ने वाले का तो अहित करती है जबकि लाभ उसी वर्ग के लोगों को होता है जो इस धंधे से पैसा कमा रहे हैं। जैसे कि पुस्तकें लिखना, छापना, प्रकाशित करना, नौकरी का लालच देकर शिक्षण संस्थानों का संचालन करना इत्यादि अनेक काम जो सिर्फ कमाने के उद्देश्य से किये जाते हैं, उन्हीं कामों में लगे लोगों को लाभ होता है।

यह स्थिति देखकर मैं तो इतना आश्चर्यचकित हूँ कि यह चल क्या रहा है ? बच्चा किसी विषय में कमज़ोर होता है तो इसका अर्थ है उस विषय में उसकी रूचि नहीं है लेकिन अभिभावकों से लेकर शिक्षक तक, उस बच्चे पर तरह-तरह के दबाव डालते हैं कि वह उस अरूचिकर विषय को अन्य विषयों की तुलना में अधिक पढ़े।

दूसरी तरफ यह स्थिति भी होती है कि किसी विषय में बच्चे की रूचि है अतः उस विषय के सांख्य का ज्ञान उसकी स्मृति में रहता है और वह उस विषय-विशेष की पाठ्य पुस्तक तुरन्त पढ़ कर याद कर लेता है । यहाँ तक कि पूरा पाठ्यक्रम एक दो माह में पूरा करने की सामर्थ्य  रखता है। उस पाठ्यक्रम को वर्षपर्यन्त पढ़ने पर उसे मजबूर किया जाता है।

अब यदि ऐसा छात्र अपने रूचिकर विषय-विशेष में अगले क्रम की बात पर जिज्ञासा करता है तब भी उसे डाँट दिया जाता है कि यह अगली कक्षाओं में पढ़ाया जायेगा अभी तुम्हें सिर्फ यहीं तक पढ़ना है।

इस तरह एक परिश्रमी छात्र जब अपने आप को उस स्थिति के अनुकूल बना लेता है तो उस पर अगले क्रम का दबाव बढ़ा दिया जाता है कि तुम्हें अपना कैरियर बनाने के लिए इस फलाँ-फलाँ विषय को पढ़ना है और प्रतिस्पर्धा में सर्वोच्च अंक लाने हैं ताकि तुम्हें ऊँचे वेतनमान की नौकरी मिले।

छात्र उसमें भी अपने आप को ढाल लेता है तब भी उसे दो अलग-अलग प्रकार के दुर्व्यवहार सहने पड़ते हैं।
एक तरफ उसका मालिक उसे ऊँचा वेतन देने के नाम पर उसे निरन्तर काम में चक्करघिन्नी बना कर कोल्हू का बैल बना देता है दूसरी तरफ उस पर दबाव डालकर पढ़ने, तत्पश्चात् नौकरी करने को प्रेरित करने वाले उसके अभिभावक उससे शिकायत करते हुए कहते हैं कि क्या हमने तुम्हें इसी दिन के लिए पढ़ा-लिखा कर बड़ा किया था कि तुम बुढ़ापे में हमारी सेवा नहीं करोगे और हमें छोड़कर चले जाओगे।

मैं किशोरों एवं नवयुवाओं से पूछना चाहता हूँ कि क्या आप इस स्थिति से संतुष्ट हैं कि पहले तो एक ग्राहक बन कर ख़र्चा करो। फिर सिर्फ़ पैसा कमाने के लालच में अपनी अभिरूचि की अवहेलना करके भी दिन रात पढ़कर एक डिग्री प्राप्त करो। अभिरूचि की अवहेलना के बाद अपनी आत्मा[काम करने के बाद की आत्म संतुष्टि,Job satisfaction] की अवहेलना करके अपने आप को किसी कर्म विशेष में बाँधा हुआ रखो। क्या सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए ! क्या यह सोचकर कि पैसा कमाने के बाद उस पैसे से सुख ख़रीद लेंगे !

सुख की अवहेलना करके पैसा कमाना और फिर उस पैसे से सुख खरीदने की मूर्खतापूर्ण जटिल प्रक्रिया से यदि आप सन्तुष्ट हैं तो यह इसका एक पक्ष है कि मरता क्या न करता।

लेकिन इस शिक्षा-परीक्षा पद्धति, राजनैतिक व्यवस्था पद्धति तथा आर्थिककरण की पद्धति को आप मरता क्या न करता के मनोविज्ञान से स्वीकार कर रहे हैं तो यह आपकी समझदारी भी कही जायेगी। क्योंकि जीवन को किसी न किसी प्रकार से पार तो पटकना ही है। दूसरी तरफ आप इसको प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर रहे हैं तो निःसन्देह उसका कारण है आप उस पद-प्रतिष्ठा पर पहुँच जाने को आतुर हैं जिसे सत्ता कहा जाता है।

बौद्धिक-सत्ता[धार्मिक सत्ता], राजनैतिक सत्ता एवं आर्थिक सत्ता नाम से विभाजित किसी न किसी एक या दो या तीनों सत्ताओं को प्राप्त कर लेते हैं लेकिन तब ये सत्ता द्विआयामी दुराचार[भ्रष्टाचार] का कारण बनती है।

एक तरफ तो व्यक्ति अपने निजी सुख से वंचित रह जाता है जो स्वयं के अन्दर सक्रिय भगवान के प्रति दुराचार होता है। दूसरी तरफ सत्ता को प्राप्त करने के बाद अनेक लोगों की जेंब काट कर आर्थिक दोहन करता है। अनेक लोगों को मूर्ख या अनुयायी बना कर उनका भावनात्मक दोहन करता है। अनेक लोगों के श्रम का शोषण करके, आर्थिक शोषण करता है। यह सामाजिक दुराचार है।

फिर भी मैं यह मान लेता हूँ कि यह सब कुछ चल रहा है तो निःसन्देह इसका कारण एक ही है कि आप सभी इस जीवन पद्धति को न सिर्फ समर्थन दे रहे हैं बल्कि अपना भी रहे हैं । क्यों ?
क्योंकि इसका कोई विकल्प आपकी समझ में नहीं आ रहा है । क्योंकि यदि आपके सामने दूसरा कोई विकल्प होता तो आप विद्रोह करके भी उस विकल्प को अपनाते।

मैं आपके सामने विकल्प के रूप में एक ऐसी शैक्षणिक, राजनैतिक एवं आर्थिक प्रशासन-पद्धति की रूप रेखा बताने जा रहा हूँ जो वित्तीय भ्रष्टाचार जैसे तुच्छ एवं प्रासंगिक समस्याओं के निराकरण के लिए तो स्थाई समाधान होगा ही, इससे भी बड़े-बड़े अनेक प्रकार के भ्रष्टाचार एवं दुराचार के विषयों का भी स्थाई समाधान होगा। भ्रष्टाचार जैसे इन नकारात्मक तथ्यों अर्थात् अभाव जनित व्यवहार से मुक्त एक ऐसी भाव-प्रधान पद्धति को अपनाने का प्रस्ताव मैं प्रस्तावना में रख रहा हूँ जिस पद्धति में कोई भी व्यक्ति या जाति-समूह बेरोज़गार नहीं रहेगा। यहाँ तक कि प्रत्येक बालक एवं किशोर को उसी विषय में ज्ञान प्राप्त करने और उसी विषय की विद्याओं में अभ्यास द्वारा पारंगत करने की पद्धति अपनाई जायेगी जो विषय उसे रोचक लगता हो, जिस विषय में वह रच-बस जाना चाहता हो। 

यह पद्धति सनातन पद्धति है जो हमेशा रही है और हमेशा रहेगी लेकिन वर्तमान में हमने इस पद्धति को छिन्न-भिन्न कर दिया है जिसे पुनः व्यवस्थित करने के लिए हमें एक वर्गीकृत व्यवस्था बनानी पड़ेगी। यह व्यवस्था विकल्प के रूप में आपके गले के नीचे तभी उतरेगी जब आप कुछ विशेष महत्वपूर्ण तथ्यों को जाने और इस पर रोचक अन्दाज़ से रूचि लेकर चर्चा करें न कि भगवान, ईश्वर इत्यादि शब्दों को लेकर और सरकार तथा साम्प्रदायिक गुरुओं को लेकर पूर्वाग्रहों एवं भय एवं आशका के बीच चर्चा हो।

अभी जो व्यवस्था पद्धतियाँ हैं, उनकी स्थिति आपके सामने है। लेकिन आपने इनके ख़तरनाक और भयावह परिणामों की तरफ से मुंह फेर रखा है। खु़द एक वित्तीय स्थिति को प्राप्त करने के इच्छुक होते हुए भी वित्तीय आदान प्रदान को भ्रष्टाचार कह कर, आपने एक कम महत्व रखने वाले मुद्दे को तो महत्वपूर्ण बना दिया है, लेकिन जो सच्चाई निकट भविष्य में आपके सामने आकर खड़ी होने वाली है, उस सच्चाई को शतुरमुर्ग की तरह आँखों से ओझल करने का प्रयास कर रहे हैं।

(1) आज राजनैतिक सत्ता की स्थिति यह है कि हमने राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा के नाम पर बड़े-बड़े विस्फोटक बना रखे हैं। राष्ट्र के हित के नाम पर दूसरे राष्ट्रों पर वार करने के मौक़े तलाशने वाले राष्ट्रों ने राष्ट्रीय नैतिकता के मापदण्ड बना रखे हैं। नित-नए विध्वंसक यंत्र बना रहे हैं। ऐसी स्थिति में हम कभी भी राष्ट्र के नाम पर युद्ध का आह्वान कर सकते हैं। भारत ऐसा ना करना चाहे तब भी विश्व युद्ध में भाग लेना पड़ेगा।

(2) दूसरा बिन्दु है धर्म और सम्प्रदाय। जिसे आज हम शिक्षा-व्यवस्था कहते हैं, उसी को कभी धार्मिक-व्यवस्था नाम दिया गया था। धर्म मानव की सेवा के तीन आधारों पर आधारित होता है। एक है आचरण को सुधारने की शिक्षा का विषय, जो आचार्यों द्वारा सम्भाला जाता है। दूसरा बिन्दु है शारीरिक स्वास्थ्य और आहार सम्बन्धी शिक्षा के विषय जो पुरोहितों[यज्ञ शालाओं यानी पाक शालाओं में पौष्टिक भोजन बनाने की जानकारी के शिक्षकों] द्वारा, वैद्यों[चिकित्सकों, डाक्टरों] द्वारा सम्भाला जाता है, तीसरा बिन्दु है संगठित अर्थव्यवस्था। यानी एक समान जॉब में लगे जातीय संगठन की सामुहिक अर्थव्यवस्था ये तीनों साम्प्रदायिक धर्मगुरूओं द्वारा संचालित होती थी। उस शिक्षा व्यवस्था की स्थिति आज ऐसी हो गई है कि हम जाति, धर्म, सम्प्रदाय इत्यादि नामों को माध्यम बना कर कभी भी एक दूसरे से झगड़ा ठान सकते हैं।

(3) तीसरा बिन्दु है पैसा। ग़रीब-अमीर समुदाय में बँटे हुए हम कभी भी मारा-पीटी, लूट-खसोट शुरू कर सकते हैं। भ्रष्टाचार का मूल बिन्दु भी आजकल वित्तीय लेन-देन और वित्तीय स्थितियाँ हैं। सभी वर्ग अपने वर्ग में होने वाले भ्रष्टाचार के आचरण को साधारण आचरण और अन्य के आचरण को भ्रष्टाचार कह रहे हैं । इस बिन्दु पर भी हम लड़ने के लिये तैयार बैठे हैं।

(4) जिस तरह राष्ट्र की सुरक्षा पद्धति के नाम पर हम विश्व युद्ध करने को तैयार बैठे है उसी तरह राजनैतिक व्यवस्था पद्धति के नाम पर हम अपने अनुयायियों सहित कभी भी आमने-सामने हो जाते हैं। संसद में भी और सड़कों पर भी।

ऐसी स्थिति में क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि हमें सम्भावित भयानक विश्व युद्ध और गृह युद्ध से बचने के लिए किसी एक अनजान व्यक्ति द्वारा दिये गये विकल्पों और प्रस्तावों पर सोच भी लेना चाहिये ?
चलो मैं यह भी मान लेता हूँ कि आप बहुत समझदार हैं और आप यह भी मान कर चल रहे हैं कि सत्ताओं पर प्रतिष्ठित वर्ग परिपक्व हैं अतः इन युद्धों के प्रति आशंकित या चिन्तित नहीं होना चाहिये।

अब यदि ऐसी स्थिति ऐसे ही चलती रही और राष्ट्रवाद, सांम्प्रदायिक आतंकवाद और पूँजीवाद के वादियों की बुद्धि में चरबी चढ़ती रही तो 2020 के बाद कभी भी आपके सामने एक ऐसी भयावह स्थिति आने की सम्भावना बनती है जिससे बचकर भागने का कोई मार्ग भी नहीं होगा और सामना करने की सामर्थ्य भी नहीं होगी ।

वह स्थिति होगी आहार की कमी के चलते कुपोषण का शिकार होकर संक्रामक बीमारियों से ग्रसित होकर पीड़ादायक मृत्यु का वरण करना।

विगत ढाई-तीन हज़ार वर्ष के ज्ञात इतिहास में तीन बार उस भारत में आहार की कमी आ गई थी, जिस भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है। वही स्थिति वापस आने वाली है। यदि हमने विकास की इसी दिशा को इकतरफा बनाये रखा तो इसी तरह आहार उत्पादन से जुड़ा ग्रामीण वर्ग निरन्तर ग़रीब से ग़रीब होता जायेगा। इसी तरह उनकी ज़मीनें छीन-छीन कर औद्योगिक विकास एवं शहरी विकास किया जाता रहेगा और इसी तरह ग्रामीण कृषक शहरों की तरफ पलायन करते रहेंगे और इसी तरह शहर के प्रदूषित वातावरण में रहना गरिमा और गाँव में रहना पिछड़ापन माना जाता रहेगा तो उस स्थिति को कोई नहीं रोक सकता।

"एक भ्रम यदि प्रिय होता है तो वह हज़ार सच्चाईयों पर भी भारी पड़ता है।"

आपको यह भ्रम यदि प्रिय है कि मानव निर्मित निर्माण पर आधारित अर्थव्यवस्था की यह वाणिज्यिक पद्धति ही विकास मार्ग है तो आप को यह सच्चाई मात्र एक पुस्तकीय वाक्य-रचना लगेगी कि ‘‘किसी भी प्रकार की मानवीय अर्थ-व्यवस्था का मूलाधार, भगवान की बनाई वह ईकॉनोमिक्स होती है जिसे ईकॉलोजी कहा जाता है ।‘‘

पश्चिमी राष्ट्रों में जहाँ प्राकृतिक-उत्पादन नहीं होता, वहाँ पर निर्माण को उत्पादन नाम देकर वाणिज्य को  अर्थव्यवस्थाओं पर हावी करना निःसन्देह उनकी ‘धूर्तता‘ कही जाएगी लेकिन जिस भारत पर देवताओं के राजा इन्द्र यानी मानसून की कृपा गर्मी के मौसम में रहती है और एक एक इंच पर स्वतः सिंचाई होती है और विश्व की सर्वाधिक प्राणी और वनस्पति प्रजातियाँ जहां पाई जाती हैं वहाँ ईकॉलोजी आधारित ईकॉनोमिक्स की अवहेलना करना तो ‘मूर्खता‘ ही कही जायेगी।

यदि यह मूखर्ता बनी रही तो निकट भविष्य में एक नारकीय स्थिति का सामना करना सुनिश्चित है जबकि मैं जो विकल्प दे रहा हूँ उसमें एक तरफ तो एक निश्चित भौगोलिक सीमा में भारतराष्ट्र के वैभवशाली औद्योगिक-नगर मानव-निर्मित स्वर्ग होंगे तो दूसरी तरफ़ भारतदेश ग्रामीण क्षेत्र और भारतवर्ष के वन-क्षेत्र के नैसर्गिक-स्वर्ग में इतना प्राकृतिक उत्पादन किया जा सकेगा है कि भारत विश्व की छः अरब जनसंख्या को और भविष्य में होने वाले जनसंख्या के विस्तार को भी आहार की आपूर्ति कर सकेगा।

अब यह आप विद्यार्थियों,मीडिया और नवयुवाओं पर निर्भर है कि इस क्रांतिकारी आन्दोलन का बीजारोपण करने के लिए आगे आते है या नहीं आते हैं। मैने मानव योनी में प्राप्त जीवन का धर्म समझ कर अपना धर्म निभाया है। अब आप पर निर्भर है कि आपमें कितना दायित्व-बोध है जो अपना कर्तव्य समझ कर धर्म के भाव से भावित होकर इस आन्दोलन में सक्रिय होते हैं या फिर अभावग्रस्त हुए एक अपरिचित को महत्त्वहीन समझने की मानसिकता में बँधे रहते हैं।

मैने स्वयं ही स्वेच्छा से यह एक ब्लॉग श्रृंखला बनाई और स्वविवेक से एक स्वतन्त्र भारतीय और पृथ्वी पुत्र की हैसियत से आपके सामने उपस्थित होकर अपना पक्ष रख रहा हूँ।

मेरा यह पक्ष ना तो पक्षपातपूर्ण है और ना ही किसी को प्रतिपक्षी/विपक्षी बनाकर रखा जा रहा है।
अब देखना यह है कि मीडिया वर्ग और साक्षर किशोर एवं युवा वर्ग मेरे साथ पक्षपात करता है अथवा मेरी वैचारिक अवधारणाओं को अपने-अपने पक्ष में समझ कर मेरा पक्षकार बनता है। अब देखना यह है कि एक अनजान चेहरा समझ कर तथा अनेक प्रतिष्ठित पत्रकारों, समाचार पत्र-पत्रिकाओं, सम्पादकों तथा समसामयिक विषयों के लेखकों से मेरी तुलना करने जैसा पक्षपात करता है अथवा मेरा पक्ष लेकर मेरी अवधारणा का समर्थन करके प्रथमतः एक वैचारिक आन्दोलन को हवा देता है।

पत्रकारिता और राजनीति ना तो मेरा शौक है और ना ही मेरा व्यवसाय बल्कि यह समय की माँग है। अतः मैं एकांत प्रिय और अध्ययन चिंतन-मनन का शौक़ीन अवश हुआ यह सब पम्पाळ कर रहा हूँ, उद्देश्य है :- सनातनधर्म (Ecosystem) ख़तरे में है अतः उसकी रक्षा एवं विस्तार हेतु एक क्रान्तिकारी आन्दोलन का आह्वान करना।

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

17. उत्तिष्ठ पार्थ !


आज भारत एक राजनैतिक संकट में फंस गया है और फंसते ही जा रहा है। ऐसा क्यों हो गया है और क्यों हो रहा है ?

एक तरफ तो दलीय राजनीति के कारण अनेकानेक दल बन गए और राजनीति,संसद,विधानसभाएं दल-दल का रूप ले चुके हैं तो दूसरी तरफ सभी दलों के हाईकमान छिछोरे तानाशाह बन गए हैं। भयानक उठा पटक चल रही है। यदि यही स्थिति बनी रही तो भारत को निकट भविष्य में आर्थिक,सामाजिक,सामरिक संकटों की चपेट में आने से बचाना मुश्किल हो जाएगा। अब आपका मतदाता धर्म यह बनता है कि आप  विद्यार्थी आन्दोलन के माध्यम से राष्ट्र को इस संकट से मुक्त कराएं।

आपको इस आन्दोलन में विशेष कुछ नहीं करना है। बस इतना ही करना है कि एक ऐसा वातावरण बनाना है जिसमें तीन काम हों।

    1.निर्दलीय राजनीति में आने के लिए ईमानदार,समझदार और आत्मविश्वास से भरपूर नवयुवा आगे आयें।
    2.मतदाता सिर्फ निर्दलीय और अपने-अपने क्षेत्र के स्थायी निवासी को ही चुनें।
    3.एक ही चुनाव क्षेत्र से जो-जो व्यक्ति आगे आयेंगे उनमें से चुनाव में तो एक ही व्यक्ति खड़ा होगा पायेगा लेकिन चुनाव के पहले और बाद में हमेशा सभी मिलकर अपने ज़िले और तहसील के विकास के लिए एकजुट होकर काम करें।
    यह काम आप बिना किसी विषमता में फँसे, दैनिक कार्यों में लगे हुए कर सकते हैं। 

यहाँ मैं उत्तिष्ठ भारत नहीं पार्थ का आह्वान कर रहा हूँ,अर्थात सभी पृथ्वीपुत्रों का अतः उन सभी विद्यार्थियों से भी कहना है जो विश्वभर में फैले हैं। भारत यदि बर्बाद हो चुका होगा,भले ही भारतीयों के कारण ही हो,तब भी वैश्विक स्तर पर सभी का नुकसान होगा। क्योंकि तब विश्वभर में आर्थिक संकट के कारण के परिणाम स्वरूप होने वाले गृहयुद्धों और तीसरे और इस कल्प के अन्तिम विश्वयुद्ध की त्रासदी से विश्व को सुरक्षित बचाने वाला कोई भी नहीं होगा। क्योंकि विश्वभर में भारत ही एक मात्र ऐसा राष्ट्र है जो देश के देशी लोगों की सेना द्वारा सामरिक रूप से सुरक्षित है। अन्य सभी राष्ट्रों के सैनिक मात्र नौकरी के लिए सेना में भर्ती होते हैं जबकि श्रीराम,बलराम और परशुराम का भारत सामरिक रूप से सुरक्षित होकर ग्रामीणों वाले गणराज्य और वर्षावनों वाले भारतवर्ष की अर्थव्यवस्था के कंधे पर सुरक्षित बैठा इतरा रहा है। 



इस इतराने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अभी अभी भारत के प्रधानमंत्री जब यूरोप व् अमेरिका की खस्ता हालत में भारत को नुक्सान पहुँचाकर भी उनको आर्थिक मंदी से उबारने का समझोता करके,या आश्वासन दे कर  मीटिंग से बाहर निकलते हैं पत्रकारों से मिलते है तो अपनी बेशर्म हार को भी जीत मानते हैं और विक्ट्री के संकेत वाले आकार में दो अंगुलियाँ चौड़ी करके जीत का संकेत देते हैं और संसद में कभी भी नहीं मुस्कुराने वाले  अपने अमेरिकी आकाओं को खुश करके, राफाँ चौड़ी करके मुस्कुराते हैं। क्योंकि भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जिसकी भूमि धन उपजाति है अतः हम समझोते के अनुसार अपनी मुद्रा का अवमुल्यन करके,महँगाई बढाकर भी अमेरिका और यूरोप को एक ऐसे आर्थिक संकट से निकालने का भरोसा दिला देते हैं जो आर्थिकसंकट कभी भी दूर नहीं हो सकता। क्योंकि उनका अर्थशास्त्र निर्माण पर चलता है उत्पादन पर नहीं। अतः इसे इतराना ही कहा जायेगा।


वैश्विक आन्दोलन बनाकर विश्व का समर्थन मांगने के दो कारण है एक तो यह की भारतीय विद्यार्थी भी इतने अधिक हीन भावना से ग्रसित हैं कि विश्व जनमानस का दबाव पड़ेगा तो वे आत्मविश्वास में आयेंगे। दूसरा कारण है यह पूरी परियोजना उत्पादन के अर्थशास्त्र पर है और यह हमेशा ध्यान में रहे कि निर्माण के लिए कच्चामाल प्राकृतिक उत्पादन ही होता है, अतः भारत विश्व को ऐसा उत्पादन निर्यात करेगा, जो आहार की आवश्यकता की पूर्ति भी करेगा तो औद्योगिक इकाईयों के लिए कच्चामाल भी उपलब्ध कराएगा और चूँकि भारत जनसख्या [उपभोक्ता संख्या] के मामले में भी विश्व का ऐसा सबसे बड़ा देश बनेगा जिस के ग्रामीणों की क्रयक्षमता भरपूर होगी अतः औद्योगिक इकाईयों में निर्मित सामग्री का भरपूर आयात करेगा अतः भव्य महाभारत निर्माण का यह आन्दोलन वैश्विक हित में होगा।   



जो वर्तमान का विद्यार्थी होता है वह निसन्देह भविष्य का ब्राह्मण यानी Brain of society होता है, लेकिन वर्तमान की व्यवस्था में आप भविष्य के शुद्र [नोकर] अथवा दास [वेतनभोगी बंधवाँ मजदूर] अथवा किसी यक्ष के अनुबंध में बंधकर यानी किसी व्यापारिक मालिक के लिए दिनरात काम करते रहने वाले भूतगण इत्यादि ही तो बनने जा रहे हैं। जबकि भारत ही धन उपजाने वाला एकमात्र ऐसा देश है जो एक ऐसी व्यवस्था बनाने में सक्षम है जिस व्यवस्था में सभी साधारण एवं विशिष्ट,व्यक्ति हों अथवा समुदाय,स्व का तन्त्र बनाकर स्वतन्त्र और स्व के अधीन रह कर,स्वाधीन होकर, आत्म-संतुष्टि,कार्य-संतुष्टि और कल्याणकारी कार्यों को करने वाले ब्राह्मण बन कर सुख से रह सकते हैं। 


ऐसी स्थिति में क्या? आपको यह नहीं सोचना चाहिए कि,भारत को विदेशी प्रशासन से स्वतन्त्र कराने वालों ने जो संघर्ष  किया उस संघर्ष की तुलना में आपका यह संघर्ष तो कुछ भी नहीं है कि आपको आपस में मिलकर अपने क्षेत्र का स्वतन्त्र,निर्दलीय,दलदल से मुक्त रहने वाला,सही मायने में, जनप्रतिनिधि चुनना है।


लेकिन इसके समानान्तर एक दूसरी सच्चाई भी है कि परस्पर भाईचारे के साथ सृजनात्मक कार्य करने के लिए धेर्य + उत्साह + समन्वय त्रिआयामी गुण चाहिए जबकि मात्र विरोध करने के लिए तो, मात्र आवेश से ही काम चल जाता है अतः डगर सरल होते हुए भी कठिन दिखाई देती है और नजदीक होते हुए भी दूर दिखाई देती है।


अतः यदि आप विद्यार्थियों के लिए राजनेताओं की तरह सुख की परिभाषा; परस्पर आलोचना करना,एक दूसरे को नीचा दिखाना और परपीड़क Sadistic बनना ही है तब तो आप इस व्यर्थ प्रतिस्पर्धा वाली शिक्षा-परीक्षा प्रणाली में लिप्त रहें लेकिन यदि आप अपना और अपनी संतति के भविष्य को सुरक्षित,संरक्षित और आनंददायक बनाना चाहते हैं अर्थात अपने भावी जीवनकालों को आनन्ददायक बनाना चाहते हैं तो इस आन्दोलन को भी आनंद के साथ लक्ष्य पर पहुँचाने का पराक्रम दिखाएँ।यदि आपने यह सोचकर इसकी अवहेलना की कि हमें अपनी पढाई में ध्यान देना है राजनीति के दलदल में नहीं जाना है तो मानकर चलें कि राजनीति का यह दलदल पूरी सभ्यता संस्कृति को ही दलदल बना देगा।  


2014 के आगामी आमचुनावों में आप [विद्यार्थी समुदाय] ही एकमात्र आशा की किरण हैं जो भारतीय संसद को दलदल मुक्त कर सकते हैं। यदि समय रहते सजग नहीं हुए तो नारकीय जीवन जीने को तैयार रहें। 

  
उत्तिष्ठ पार्थ !

हे पार्थ [पदार्थ से बना पार्थिव शरीर] उठ खड़ा हो जा!

चारों तरफ विषमता, तुम सम लिए पड़े हो। 
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ?
युवा हो,बौद्धिक बल है, जीवन पड़ा है बाक़ी। युग है प्रजातंत्र का, तुम खामखाँ डर रहे हो।
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ?
धरती भरी है सुख साधनों से, सिर्फ अव्यवस्था के कारण, अभाव भुगत रहे हो।
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ?
मुद्रा तो व्यवस्था का मानवनिर्मित है साधन , तुम्हारे पास बुद्धि है, प्रकृति के अनुग्राही हो 
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ?
उपयोग करो बुद्धि का, प्रयोग करो संपर्कों का, संगठित हो जाओ युवाओं, क्यों देर कर रहे हो ?
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ?
धर्म करो धारण, साथ में लो शिक्षा, किनारे करो साम्प्रदायिक गुरुओं को।
भगवान् के नाम पर क्यों शैतानों से डर रहे हो !
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ?
शास्त्र कहते हैं, अधिकार के लिए, शस्त्र उठाना धर्म है तुम्हारा।
Ballot से  Bullet को नीचा प्रमाणित कर दो
खड़े हो जाओ पार्थ ! क्यों तनाव भुगत रहे हो ? 


रविवार, 12 अगस्त 2012

16e. सनातन धर्म का संरक्षण ! Protection of Ecology [Sanatan Dharma Chakra].


    सनातन धर्म दो परम्पराओं के परस्पर सन्तुलित रहते हुए समानान्तर विकास करने का नाम है।
 1. ब्रह्म परम्परा    2. वेद परम्परा
     ब्रह्म परम्परा कहती है, चौरासी लाख पशुयोनियों से क्रमिक विकास को प्राप्त होकर विकसित हुए मानव को अपने ब्रह्म[ब्रेन] को इतना विकसित करना चाहिये कि वह ब्राह्मण बने।
    इसी के समानान्तर वेद परम्परा कहती है कि जीव प्रजातियों में भावों का परस्पर पर्याप्त आदान-प्रदान हो ताकि 1.वनस्पति-साम्राज्य   2. पशु-साम्राज्य   3. मानव-साम्राज्य ; तीनों एक साथ रहकर वसुधैव- कुटुम्बकम बनकर सभी अपनी वंश वृद्धि करें और अपने वंश को अधिकाधिक उत्तम नस्ल का बनाएं ताकि  प्राकृतिक प्रक्रिया में आने वाले प्रत्येक अवरोध को सहन कर सके, सामना कर सकें और अपनी-अपनी प्रजाति को विलुप्त होने से बचा सकें।
     आप ब्रह्म परम्परा को धर्म के नाम से जानते हैं और वेद परम्परा को विज्ञान के नाम से जानते हैं। ये दोनों एक दूसरे की पूरक हैं जो समाज इनके अद्धैत आचरण को द्वैत बना देता है वह मूर्खों तथा धूर्तो की दो शाखाओं में विभाजित हो जाता है तब मूर्खों के शोषित एवं धूर्तों के शोषक वर्ग के रूप में विभाजित इस दोगले समाज का चमत्कारिक रूप से विकास तो होता दिखाई देता है लेकिन जल्द ही विनाश होकर धराशायी भी हो जाता है।
       तब बचता कौन है! जो सक्षम होता है! 'fittest survives.'
       अतः अपने अस्तित्व की रक्षा करने हेतु सक्षम होना धर्म एवं विज्ञान का आत्म-कल्याण के लिए  निजी उपयोग है और पूरे मानव-समाज को सक्षम करना धर्म एवं विज्ञान का सर्व-कल्याण हेतु सार्वजनिक उपयोग है।
    मानव समाज का वैभव तभी स्थायी रह सकता है जब वह वर्ग संघर्ष से मुक्त होने के लिए वर्गीकृत होकर रहे। इसी तथ्य को गीता में वैज्ञानिक तरीके से बताया है। मैं उसकी मात्र व्याख्या कर रहा हूँ अतः जो व्यक्ति भाव में आकर मुझ से राग अथवा द्वेष रख कर मुझे स्वीकार करते हैं अथवा विरोध करते हैं उनसे यही कहना है कि ये गीता में लिखा है मेरे निजी विचार नहीं हैं। और जो धर्म के नाम पर किसी भाषा विशेष की पुस्तक को साम्प्रदायिक समझता है उनसे कहना है कि ये विचार मेरे अपने अंदर स्वतः पैदा हुए हैं गीता का उपयोग तो सिर्फ इन विचारों को प्रामाणिक बनाने के लिए कर रहा हूँ।

16d.यह 'सनातन धर्म' का मामला है ! It is a matter of responsibility and the rights.


    हिंसा-अहिंसा, आस्था, श्रद्धा, संस्कार इत्यादि अनेक शब्द हैं जिनका विशेष वर्गों ने पेटेण्ट करा रखा है जबकि सच्चाई यह है कि अनेक विद्वान इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करते हैं फिर भी इन शब्दों का उपयोग यथा-अर्थ में नहीं किया जाता। इसी तरह संस्कृत भाषा की शब्दावली का एक शब्द है 'सनातन धर्म'।
     सनातन अर्थात् बिना लोप हुए,निरन्तरता लिये हुए चलने वाला धर्म। सनातन धर्म शब्द का शब्दार्थ है  non dis-continuous, बनी रहने वाली गुण-धर्मिता। वैज्ञानिक शब्दावली के लेटिन में इसको इकोलोजीकल  सिस्टम Ecological Cycle System और हिन्दी में पारिस्थितिकी-चक्र-सृष्टम कहा गया है। संस्कृत के अनेक धार्मिक-वैज्ञानिक शब्दों की तरह सनातन शब्द का भी कोई पर्यायवाची शब्द नहीं है। इसके अनेक पूरक शब्दों में पर्यावरण भी एक पूरक शब्द है जो इसका आंशिक अर्थ दर्शाता है।
     सनातन धर्म के संरक्षण के तीन तात्पर्य या तत्वार्थ हैं।

आध्यात्मिक तात्पर्य:- मानव चाहे कितना ही पतित और स्वार्थी हो जाये, आपस में लड़ने-झगड़ने लग जाये और युद्ध के माध्यम से सामूहिक आत्महत्या कर ले फिर भी वह बिना किसी सामाजिक ढ़ाँचें के रह नहीं सकता। मानसिक रूप से मानव इतना दुर्बल है कि वह आपसी सम्बन्धों के बिना नहीं रह सकता। जब ऐसा है तो मानव को चाहिये कि वह एक वर्गीकृत व्यवस्था पद्धति को अपनाये और परस्पर मान-सम्मान देते हुए जीवन का आनन्द ले। 
वर्तमान में यदि मानव ऐसा नहीं करता है और मनुष्य योनी में होते हुए भी श्वान योनी की तरह एक दूसरे पर गुर्राने,भोंकने,चिल्लाने का आचरण अपनाए हुए रहता है और आयुधों का निर्माण कर एक दूसरे से लड़कर मरता हैं तब भी युद्ध के समाप्त होने पर बचे हुए मानवों को अक्ल आयेगी तब वो प्रेम एवं भाईचारे से पुनः रहना शुरू कर देंगे। प्रेम एवं भाईचारा ही तो हमारा सनातन चरित्र है।
आधिदैविक तात्पर्य:- प्रकृति ने अर्थात् देवी शक्ति ने जिस पारिस्थितिकी[ईकोलोजी] को बनाया है उसके साथ सन्तुलन रख कर चौरासी लाख जीवयोनियों में बँटी प्रजा की प्रत्येक प्रजाति को अपनी वंशवृद्धि करने में सहयोग दे, उनका संरक्षण, संवर्धन करे अपनी भी वंशवृद्धि करे और सुन्दर से सुन्दर जीवन जीने का तरीका यानी विद्या अपनाये। जबकि आज हम दवाईयों के बल पर रिस-रिस कर जीने वाले, औसत आयु बढ़ने का भ्रम भले ही पाल लें l लेकिन इस सच्चाई को नकार नहीं सकते कि हम शक्तिहीन और वीर्यहीन [बलहीन] होते जा रहे हैं। 
आधिभौतिक तात्पर्य:- ईकोनोमिक्स को ईकोलोजी[फोरेस्ट ईकोलोजी एवं एग्रीकल्चरल ईकोलोजी] के माध्यम से पैदा होने वाले प्राकृतिक उत्पादन के आधार वाली अर्थव्यवस्था का रूप दे और भौतिक सुख साधनों के समान वितरण की ऐसी पद्धति अपनाये जिसमें एक दूसरे की आवश्यकता पूरी हो अर्थात् एक दूसरे की पूरक रहे ना कि परस्पर शोषक बनें। 
उपर्युक्त तीनों स्तरों पर सनातन धर्म की हानि तब होती है जब मानव सभ्यता मात्र सभ्यता रह जाती है और मूल संस्कृति नष्ट हो जाती है। जैसे कि पान के पत्ते का सेवन करने के लिए मसालों का उपयोग किया था लेकिन पान गायब हो गया मसाले रह गए और वे भी अपयोग बन कर, इसी तरह संस्कृति का अर्थ हो गया भूतकाल के भूत को अपनी मानसिकता पर हावी कर लेना, ऐसा इसलिए होता है क्यों कि मानव कामार्थ Commercial ढ़ाँचे को स्थापित कर लेता है।
यह उत्थान-पतन[उठा-पटक] क्या है, क्यों होता है मूल ढाँचा क्या था जो सनातन है और पुनः पुनः स्थापित होता है! इत्यादि अनेक प्रश्नों  के उत्तर खोजने के प्रयास में मैंने जैसा समझा है वह संक्षिप्ततम शब्दों में तथा अनेक आयामों से बताने का प्रयास कर रहा हूँ।
क्रुरान में सबसे ऊपर लिखा है ‘‘इस किताब में शंका करने की कोई गुँजाईश नहीं है‘‘।
इसी तरह बुद्ध ने अपने अनुयाईयों से कहा था कि ‘‘जितना मैंने जाना है वह सत्य है। इसको आस्था से ग्रहण करो। इसके बाद भी अनेक सत्य हैं उन्हें खोजो‘‘।
जबकि गीता में कहा ‘‘हे अर्जुन! मैने तुम्हें अशेषेण बता दिया है। अब तुम्हें क्या करना है, क्या नहीं करना है, इसका निर्णय तुम स्वविवेक से करो‘‘।
   अशेषेण के दो अर्थ होते हैं। 1. कुछ भी शेष नहीं छोड़ा सब कुछ बता दिया। लेकिन इस छोटेसे आख्यान में सब कुछ बताने का अर्थ है संक्षिप्त में,सारगर्भित,शब्दकोशीय भाषा में बताना। 2. अतः दूसरा अर्थ है Endless. यानी  कितनी ही विस्तृत व्याख्या करते जाओ कभी समाप्त नहीं होगी अतः अपनी बात को प्रामाणिकता देने के लिए मैं गीता को केन्द्रीय भूमिका में रख रहा हूँ।
मैंने गीता पर व्याख्या लिखी है। अन्य अनेक स्थापित विद्वानों ने भी लिखी है। लेकिन बाकी सभी व्याख्याऐं भाषा विशेषज्ञों ने लिखी हैं। उन्हीं के शब्दों में ‘‘गीता में जीव-आत्मा और परमात्मा के बीच का सम्बन्ध बताया गया है‘‘।
अब यहाँ एक तथ्य सीधा-साधा एवं स्पष्ट है कि जिसने जीव-विज्ञान को गहराई से नहीं जाना वह जीव-आत्मा के विषय को तथ्यात्मक और तर्क संगत[लोजीकली,बायोलोजीकली] कैसे समझ सकता है।
इसी तरह गीता के बारे में अनेक विद्वान कहते हैं कि गीता कर्म का सन्देश देती है लेकिन जिस व्यक्ति ने गीता की व्याख्या काम एवं अर्थ की गणित से की है वह कर्म के मूलार्थ को कैसे समझ सकता है !
गीता एक राजा,एक रक्षक,एक क्षत्रिय,एक गृहस्थ को कही गई है। जिसने गृहस्थ जीवन त्याग दिया और भिक्षा के अन्न् पर ऐश्वर्य भोग रहा है वह गीता के कर्म विषय की व्याख्या कैसे लिख सकता है !
गीता हो या अन्य शास्त्र, इनमें जो भी बातें कही गई हैं वे सभी बातें मानवीय स्तर की हैं अतः इन्हें साम्प्रदायिक एवं राष्ट्रीय मनोभावना के सीमित दायरे में बाँध कर कैसे समझा जा सकता है !
गीता में जैसे अशेषेण लिखा है वैसे ही गीता सदैव प्रासंगिक है। इसे पाँच हज़ार वर्ष पूर्व हुई एक ऐतिहासिक घटना के परिणामस्वरूप कही जाने के रूप में समझ कर वर्तमान काल-स्थान-परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में इसकी प्रासंगिकता को कैसे समझा जा सकता है !
   अभी-अभी रूस की सरकार ने गीता पर बेन लगाया तो आपने इसमें अपमान महसूस किया। यदि इस अपमान से बचना है तो इस एक मात्र विश्वकोश को भारत की धरोहर नहीं मानकर वैश्विक-शिक्षा-विभाग की धरोहर माननी चाहिए और इस तरह का अपमान भविष्य में नहीं हो इसके लिए भारतीयों को आगे आकर 'यथार्थ गीता' "gita as it is.' पढ़ना चाहिए तब आपको पता चलेगा कि इसमें कितनी कट्टरता, कितना पूर्वाग्रह,कितनी अतिवादिता भरी है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि इसमें गीता को वर्तमान के लिए अप्रासंगिक बता दिया गया है। मैं भी कहता हूँ इस तरह के अनुवाद का भारतीय मनीषी वर्ग स्वं आगे आकर विरोध करें।
गीता एक अशेषेण आख्यान है अतः इसे निष्पक्ष एवं समग्र दृष्टिकोण से समझना सिद्धान्ततः सत्य हो सकता है लेकिन गीता में यह भी लिखा है कि -
‘‘हे अर्जुन सांख्य[थ्योरी, प्रिसिपल, सूत्र, समीकरण, आंकड़ों] का तब तक कोई महत्व नहीं है जब तक सांख्य का योग[प्रयोग,उपयोग, व्यवहार में लाना,आचरण में ग्रहण करना] नहीं हो। बिना योग के सांख्य का जानकार उल्टा दुःखी हो जाता है जबकि योग[प्रेक्टिकल अभ्यास] में लगा हुआ एक योगी[योग्य व्यक्ति] स्वतः सांख्य का जानकार हो जाता है।
अब जब मैंने गीता के सांख्य को जाना है तो उसका उपयोग करना मेरा कर्तव्य भी और अधिकार भी हो जाता है। इसी कर्तव्य एवं अधिकार से बनने वाले धर्म की पालना करने हेतु मैं तब से लगा हूँ जब से मैने निर्णय किया।
इस सन्दर्भ में मैंने दो कार्य करने का प्रयास किया। एक तो यह कि सनातन धर्म के योगशास्त्र गीता की व्याख्या लिखी है जिसके साथ एक दुखान्तिका घट गई। जो पूर्वाग्रहों से ग्रसित लोग हैं उन्हें मेरी भाषा शैली पसन्द नहीं आई और जिस प्रबुद्धवर्ग के लिए यह पुस्तक लिखी गई वह वर्ग गीता को हाथ ही नहीं लगाता है। एक तो कारण यह है कि यह प्रबुद्ध वर्ग धर्म नाम से ही ऊकचूक हो जाता है और दूसरा कारण है वह हिन्दी में है। उनकी दृष्टि में हिन्दी में स्तर की चीज नहीं लिखी जा सकती।
अब इस ब्लॉग श्रंखला के माध्यम से मैं सांख्य के रूप में तो गीता की पुनः नये तरीके से व्याख्या करूँगा तथा योग के रूप में मैं अपने जीवन काल में पाँच किलोमीटर लम्बा पाँच किलोमीटर चौड़ा अर्थात् पच्चीस वर्ग किलोमीटर का एक गांव बसाना चाहता हूँ ताकि प्रत्यक्ष बता सकूं कि सनातन धर्म का स्थूल रूप क्या है! सर्वकल्याणकारी सामाजिक-आर्थिक ढाँचा कैसा होता है! सार्व-भौतिक उद्धेश्य की पूर्ति से मेरा तात्पर्य  है कि स्वर्ग कैसा होता है यह भूमि पर उतार कर बताना।
उपर्युक्त तीन धार्मिक उद्देश्यों में सभी धार्मिक उद्देश्य यानी शैक्षणिक उद्देश्य आ जायेंगे।

16c. धर्म एवं विज्ञान की तर्क संगत एवं तथ्यपरक जानकारी देना ! Religion sense and science information to be logical and fact oriented !


     धर्म एवं विज्ञान दोनों जीवन रूपी सिक्के के दो पहलू हैं और एक दूसरे के पूरक हैं। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए आवश्यक है कि हम दोनों का अलग-अलग अध्ययन नहीं करके एक साथ अध्ययन करें साथ ही आप देखेंगे कि किस तरह संस्कृत शब्दावली के एक ही शब्द से अन्य भाषाओं में दो अलग-अलग शब्द बने हैं जो उच्चारण दोष या कहें अपभ्रंश उच्चारण के परिणामस्वरूप बने हैं।
    भारतीय सभ्यता-संस्कृति की जिस ऊंचाई पर आप गर्व करते हैं; वह अभी तक एक काल्पनिक भ्रम है। जबकि इस ब्लॉग श्रृखला का यह उद्देश्य यह भी है कि आप यह प्रमाणिक रूप से बता सकेंगे कि भारत विश्वगुरू क्यों और कैसे था !
    इस विषय पर दो वर्ग बन गये हैं। एक वर्ग है जो सत्य जाने बिना ही राग-अनुराग से ग्रसित होकर एक बेसुरा राग अलापता है कि हमारी संस्कृति सर्वोच्च है,हमारी संस्कृति सर्वोच्च है,हमारी संस्कृति सर्वोच्च है। इस कारण दूसरा एक वर्ग द्वैष भाव रखने वाला पैदा हो जाता है वह भी सच्चाई जानने का इच्छुक हुए बिना ही पहले वर्ग को मूर्ख,साम्प्रदायिक,अतिवादी,कट्टरवादी इत्यादि कहता है। अब सच्चाई यह है कि ऐसा करने वाला दूसरा वर्ग सही कहता है क्योंकि जो पहला वर्ग अपनी सांस्कृतिक अवधारणाओं को जाने बिना आंखे बन्द किये हुऐ सिर्फ एक ही राग अलापता है उसको प्रतिकात्मक वाक्य में कहें तो वह कहता है ‘‘झण्डा ऊँचा रहे हमारा‘‘।
    इस ब्लॉग श्रृंखला के माध्यम से यह बताने या जताने का प्रयास किया जायेगा कि भारतीय संस्कृति क्यों सर्वोच्च है और थी !
    वर्तमान में स्थिति यह है कि एक भारतीय पुराने भवनों, भूतकाल की घटनाओं, उलजुलूल मान्यताओं से बने विभ्रम को संस्कृति समझ बैठा है परिणामस्वरूप संस्कृति यथार्थ से जुड़ा विषय नहीं रह कर भूत-प्रेतों का विषय बन गया है।
     मैं प्रबुद्ध वर्ग से अपेक्षा करता हूँ कि मेरी बात को यथा-अर्थ समझें; Otherwise meaning, अन्यथा अर्थ से न लें और भारत में पुनः सांस्कृतिक समाज व्यवस्था को स्थापित करने में सहभागी बनें, सहयोग दें, नैतिक समर्थन दें !

16b. सभी भाषाओं का प्रचार-प्रसार एक साथ ! Dissemination of all languages ​​at once !

संस्कृत भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, हिंदी भी। चुंकि संस्कृत भाषा संस्कारित भाषा है अतः 
इस में धर्म एवं विज्ञान का मूल साहित्य रचा हुआ है। धर्म एवं विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में शब्दों का अर्थ सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। संस्कृत के शब्दों का अर्थ देवनागरी लिपि तथा हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओँ के माध्यम से जितना स्पष्ट होता है, अन्य विदेशी भाषाओं में सम्भव नहीं है। अतः इस ब्लॉग श्रृंखला का एक उदेश्य अन्य भाषाओं के साथ साथ हिन्दी का प्रचार-प्रसार स्वतः पूरा होता है।
    हिन्दी भाषा एवं देवनगरी लिपि के माध्यम से बताने की मेरी मजबूरी के कारण देवनागरी लिपी एवं हिन्दी भाषा में मैं गीता की व्याख्या कर रहा हूँ अतः स्वतः ही संस्कृतजन्य हिन्दी भाषा का प्रचार होगा।
अतः जो सज्जन हिन्दी के प्रचार-प्रसार के इच्छुक हैं, उनसे अपेक्षा करता हूँ कि वे इस ब्लॉग श्रृंखला  के माध्यम से इस आन्दोलन के प्रचार-प्रसार में सहयोग देंगे। विशेषकर हिन्दी भाषी क्षेत्र के किशोरों एवं नवयुवाओं को पढ़ने के लिए प्रेरित करें।
इसके साथ मैं यह भी चाहता हूँ कि अन्य भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में तथा अंग्रेजी एवं अन्य राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं में भी इसका अनुवाद हो ताकि अन्तर्राज्यीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व की सबसे अधिक संस्कारित तथा प्रथम धार्मिक-वैज्ञानिक भाषा संस्कृत के शब्दों का प्रचार-प्रसार हो। इसका तरीका है अन्य भाषाओं में जब अनुवाद हो तब साथ-साथ में धार्मिक-वैज्ञानिक शब्दावली के मूल शब्द जो देवनगरी लिपि में, संस्कृत के हैं उन्हें उसी रूप में लिखा जाये।
कोई भी सज्जन यदि किसी क्षेत्रीय भाषा एवं लिपी में अनुवाद करने का इच्छुक हो और ऐसा श्रम कर सकता हो तो सम्पर्क करें। ब्लॉग्स में रूपांतरण की सुविधा है लेकिन अन्वय-समन्वय करना आवश्यक होता है। जो विद्यार्थी विद्या का उपयोग समाज हित में करेगा तभी समाज उसे अपना निर्दलीय जन प्रतिनिधि चुनेगा अथवा आप यदि स्वयं सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहें तो आपके समर्थन को वे विशेष दर्जा देंगे।
मेरा मानना है आज नहीं तो कल वैज्ञानिक भाषा के रूप में विश्व में लेटिन के स्थान पर संस्कृत शब्दावली अपनाना आवश्यक हो जायेगा। बस प्रारम्भिक अवस्था में हिन्दी के प्रति श्रद्धा रखने वाले, हिन्दी के प्रति राग-अनुराग रखे बिना और अन्य भाषाओं से द्वेष रखे बिना,सभी भाषाओं में अनुवाद करें,विशेषकर   भारतीय भाषाओं में अनुवाद अवश्य करें और इस आन्दोलन के सहयोगी बनें।

16a.. सार्वभौमिक उदेश्य ! Terrestrial Universal Objectives.


     यह लेखन एक ऐसे उद्धेश्य को लेकर किया जा रहा है जिसे सार्वभौमिक उद्देश्य कहा जा सकता है। सार्व-भौमिक का अर्थ है, इस भूमि पर भौतिक देह के जितने भी उद्धेश्य हो सकते हैं उन सभी उद्देश्यों को एक सूत्र में जोड़ कर सभी समस्याओं का निदान एवं समाधान करना। एक ऐसी अर्थशास्त्रीय अर्थव्यवस्था को स्थापित करना,जिसमें कोई भी व्यक्ति अभावग्रस्त नहीं रहे। व्यक्ति तो क्या; पूरा व्यक्त जगत[जीव-जगत] अभावमुक्त होकर भाव में भावित रहे, न कि अभावों में रहे,जैसा कि वर्तमान में हो रहा है।

     अब यदि, इन उद्देश्यों की सूची बनाई जाये तो सभी उद्देश्यों को तो सूचिबद्ध नहीं किया जा सकता अतः इन्हें तीन वर्गों में वर्गीकृत करके संकेत दे रहा हूँ कि सर्व कल्याणकारी व्यवस्था बनाने यानी सार्वभौमिक उद्देश्य पूर्ति करने हेतू एक मानक व्यवस्था पद्धति बताने और व्यावहारिक एवं प्रेक्टिकल रूप से एक मॉडल बनाकर बनाने के लिये; मैने अपने आप का सृजन किया है|

 उसको स्पष्ट करने के लिए इन सभी उदेश्यों के तीन शीर्षक दे रहा हूँ यानी वर्गीकृत कर रहा हूँ।

(1) सभी भाषाओं का प्रचार-प्रसार एक साथ।
(2) धर्म एवं विज्ञान की तर्क संगत एवं तथ्य परक जानकारी देना।
(3) सनातन धर्म का संरक्षण।